मन

सरफ़राज़ (अंक: 180, मई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

अभी बूढ़ा तो नहीं हुआ हूँ 
हाँ लगता ज़रूर हूँ
बालों को तो रंग लेता हूँ
काली स्याही से
निकाल दवात की गहराई से
पर समझ नहीं आता
इन रोओं का क्या करूँ?
 
बहुत शर्मिन्दा करती हैं
ये खुली हवादार खिड़कियाँ
नये पल्ले भी नहीं लगा सकता
चौखट जो सड़ गए हैं
पिलर शायद मज़बूत है
मगर पोताई झड़ गई है दिवाल पर
झुर्रियाँ और शिकन पड़ गई है
 
सारे तार पुराने-जर्जर हो गए हैं
दोनों बल्ब मद्धम-मद्धम जलते हैं
फ़र्नीचरों के पुर्जे ढीले हो गए हैं
लब लड़खड़ाते हैं ज़ुबां भी
आवाज़ को सिसकियों में बदले अर्से हुए
कानों में कोई हरकत नहीं होती
शायद दोनों पर्दे फट गए हैं
 
अब मजबूर हूँ दुनिया का दस्तूर है
सो ख़ुद को बूढ़ा मानने लगा हूँ
अजीब सी गुदगुदी हुई 
लहरें हिलोरें लेने लगीं
जब उसकी ख़ुशबू मेरी साँसों में उतरी
एकाएक अहसास हुआ
भला मैं बूढ़ा कैसे हो सकता हूँ
मैं कोई मकान थोड़ी हूँ
जिस्म या पैरहन थोड़ी हूँ
मैं तो मन हूँ
ताउम्र जवान रहता हूँ
जर्जर साँचे में क्यों हूँ
सोच हैरान रहता हूँ
मैं तो मन हूँ
मैं भला बूढ़ा कैसे हो सकता हूँ?
 

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