मैंने नाता तोड़ा - 4

13-11-2007

मैंने नाता तोड़ा - 4

सुषम बेदी

हमारे शयनकक्ष में जो कुछ भी होता रहा हो, एक ज़िंदगी उसके बाहर भी थी जो अपनेी साधारण, बल्कि काफी तेज़ गति से ही आगे बढ़ रही थी। जैसे नदी अवरोध पाने पर और भी तेज़ गति से आगे बढ़ती है वैसे ही समय, स्थान और मानसिकता के तरह-तरह के गतिरोध आने के बावजूद जीवन की कितनी ही धारायें तेज़ चाल से बहे जा रही थीं।

एक दिन जब मैंने अनी से काम का ज़िक्र किया तो उसने कहा कि सबसे पहले मुझे कार चलाना सीखना चाहिये ताकि में अपनेआप से आ जा सकूँ। कार जो भारत में इतनी नायाब चीज थी और जिसे सीखने के बेहद शौक ने ही मुझे अंकल की ज्यादती सहने को कुछ हद तक मजबूर किया, वह यहाँ ज़रूरत की चीज थी और आसानी से मुहय्या थी। यहाँ पहुँचने के हफ़्ते भर बाद ही कार खरीदने की बात की जा सकती थी। जैसे तन ढकने को कपड़े, रहने को मकान वैसे ही कार भी। हर कोई खरीद सकता था गाड़ी, उसके लिये कोई बहुत अमीर होने की ज़रूरत भी नहीं।

फिर भी मैं काफी अरसे तक झिझकती ही रही गाड़ी सीखने से। जबकि मुझे मालूम था कि मैं जल्दी ही सीख जाऊँगी पर पता नहीं अंदर से उठता ही नहीं था कि चलाना सीखूँ और सीखने का सोचती तो भीतर घबराहट और खलबली सी मच जाती। पता नहीं लगता जैसे कि कुछ अघट घट जायेगा... कुछ अशुभ हो जायेगा!

अनी बार-बार याद दिलाता और पूछता कि ड्राइविंग स्कूल का पता किया कि नहीं। मैं टाल जाती- “आज करूँगी” और वहाँ आज आने का नाम लेता नहीं।

ड्राइविंग से अंकल का अक्स जुड़ा हुआ था। सोचती थी कि कैसे जूझूँगी उससे। कहीं वह सब फिर से दिमाग में हाथापायी करने लगा तो कहीं दुर्घटना ही न कर बैठूँ। लेकिन मुझे मुक्त होना ही है। कब तक इस डर को मन में बिठा कर खुद को जीने की सहज ज़रूरतों से दूर फेंकती रहूँगी। जो काम करने हैं वे तो करने ही हैं। वह सब मेरी ज़िन्दगी से बहुत दूर हट चुका है। उसके नजदीक आने की कोई संभावना ही नहीं। फिर यह झिझक क्यों? कब तक टालती रहूँगी! ऐसे तो कुछ कर ही नहीं पाऊँगी? बस घर में ही टिके रहना होगा।

 

बहुत अजीब लगता रहता मुझे।

 

एक दिन अनी ने मुझे टेलीफोन डायरेक्टरी दी और कहा कि इसमें से ड्राइविंग स्कूल का नम्बर खोज कर उनसे जानकारी ले लूँ और सीखने का वक्त भी नियत कर लूँ।

अनी चला गया और मैं घंटों मोटी सी डायरेक्टरी से ही उलझती रही। अपने भीतर ताकत संजोती रही। रितु यह काम करना ही है। यह सोच लिया कि सिखानेवाले ने जरा भी हाथ लगाया तो थप्पड़ जड़ दूँगी। जहाँ भी हुआ गाड़ी से बाहर निकल आक्रगी। अब तो मैं बड़ी हूँ। अक्लमंद हूँ। कोई करे तो हिम्मत। सीधा करके रख दूँगी। फिर दिन दिन में ही सीखनी है गाड़ी। खतरा किस बात का। रास्ते भी मुझे खासे आ गये है.।

दो-तीन स्कूलों के इश्तहार थे उसमें सो वहीं फोन किया। पता लगा कि वे लोग आकर घर से ही ले जाते हैं और उन्हीं की गाड़ी पर सीखना होता है। यह बात मजेदार थी। अनी की गाड़ी तोड़ने की फिक्र करने की ज़रूरत नहीं थी मुझे।

उत्साह भी था कि सचमुच गाड़ी चलाना सीखूँगी। अंकल के साथ मैंने स्टीयरिंग सम्भालना तो सीख ही लिया था पर वह बस नाम के वास्ते ही था। अब जबकि सचमुच सीखने की बात आयी तो पता लगा गाड़ी का क ख ग कतई नहीं आता था मुझे और कि मुझे सब कुछ शुरू से ही सीखना था। सिखानेवाला भी स्थानीय ड्राईविंग स्कूल का टीचर था। मेरी ही उम्र का। अजय का ध्यान हो आया मुझे। मेरा सहज ही विश्वास बन गया। वह बहुत ही प्रोफेशनल ढंग से सिखा रहा था। पहले उसने गाड़ी की मशीन के सारे हिस्सों से मुझे वाकिफ़ कराया। उनका कब कैसे इस्तेमाल करना है, उसके बाद प्रैक्टिकल ट्रेनिंग। रोज आधे घंटे का पाठ होता था। मैं बहुत जल्द ही सीख गयी। बस गाड़ी को पार्क करने में महारत हासिल नहीं हो रही थी। उसका कहना था कि सड़क के साथ गाड़ी को सीधा लगाने की पार्किंग सीखे बिना मैं इम्तहान में फेल हो जाऊँगी। खासकर दो गाड़ियों के बीच अपनी गाड़ी लगान मझे बेहद नर्वस करता। न तो आगेवाली गाड़ी से टक्कर हो, न ही पीछेवाली से। इतनी सफाई से भला कैसे टिका सकता है गाड़ी कोई। न बाबा न। पहले तो मैंने जवाब ही दे दिया। पर इस शहर में पैरालल पार्किंग यानि कि सड़क के समानांतर गाड़ी खड़ा करने की कला सीखे बिना लाइसेंस नहीं मिलेगा। करना था ही। वह मेरे साथ स्टीयरिंग संभाल कर बार-बार मुझे दिखाता कि ऐसे करो। दो दिन उसी की प्रैक्टिस कराता रहा। तब जाकर मुझमें अपने पर भरोसा आया। अनी से भी कहा कि मुझे कुछ अलग से अभ्यास करा दे।

शुरू-शरु में हाईवे पर प्रैक्टिस करते हुए भी मुझे डर लगता रहा था। कैसे याद रहेंगे इतने सारे नियम? यूँ सीखने से पहले नियमों का लिखित इम्तहान तो पास कर चुकी थी। उसके बिना तो स्कूल वाले गाड़ी सिखलाते ही नहीं। पर वह सब तो रट कर याद कर लिये थे। अब सचमुच जब सब गाड़ी में बैठकर संभालना पड़ा तो बहुत ज्यादा नर्वस थी मैं। दो बार ऐसा हुआ था कि आगे ट्रक था और सहसा मैं बहुत पैनिक कर गयी। एक बार आँखों के आगे पल भर को अंधेरा सा आ गया। गाड़ी कुछ असंतुलित हुई तो उसने झट से स्टीयरिंग संभाल लिया। फिर मैं भी संभल गयी।

पहली ही बार में इम्तहान पास कर गयी थी मैं।

अनी एक वीकैंड पर मुझे गाड़ियों की दुकान पर ले गया। मैं तो तरह तरह की कारें देख चकाचौंध थी। मुझे कितनी ही कारें पसंद आ गयीं। वह मुझे अलग-अलग कारों की खूबियाँ समझाता रहा ताकि फैसला लेने में मुझे कुछ मदद मिले। हम चार पाँच दुकानों पर गये। मैंने एक ही दिन  में कारों के बारे में ढेर सारी जानकारी हासिल कर ली। अनी ने बताया कि बड़ी बड़ी अमरीकी गाड़ियाँ यूँ लोकप्रिय थीं पर मेरे लिये छोटी ज्यादा अच्छी रहेगी। छोटी को संभालना, सड़क पर पार्क करना ज्यादा आसान रहेगा।

मुझे उसका सुझाव भा गया। यूँ भी मुझे कुछ पता तो था नहीं। इस तरह मुझे एक दिशा मिल गयी अपने चुनाव में। फिर भी मैंने कहा - ”कुछ सोच लूँ...इतनी बड़ी चीज...कुछ वक्त तो दोगे न फैसला लेने के लिये...अगले वीकैंड दुबारा नहीं आ सकते?”

वह मुस्कुरा दिया।

जिस दिन अपनी गाड़ी के आटोमेटिक ट्रांसमिशन को आन कर मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ गाड़ी चलाकर सड़क पर निकली, मुझे लगा जैसे आसमान और जमीन दोनों मेरे काबू में आ गये हों। यहाँ कोई क्लच नहीं दबाना था। क्लच के झटके लगने का कोई खतरा भी नहीं था। गाड़ी चलाना सच में एक खिलवाड़ जैसा लगा मुझे। ज़मीन जैसे मेरे लिये एक खेल का मैदान हो जहाँ मुझे खेलने की पूरी आजादी मिली हो। सचमुच एक आजाद पंछी सा महसूस किया मैंने। मैं कहीं भी आ जा सकती  थी, कहीं भी अपने आप पहुँच सकती थी। अब मुझे किसीपर निर्भर होने की ज़रूरत नहीं थी। जैसे एक नयी ज़िंदगी मिली हो मुझे।

गाड़ी सड़क पर चल रही थी यूँ ही निरुद्देश्य। मैं सोचने लगी कि कहाँ जाना चाहिये मुझे। सबसे पहले कहाँ जाऊँ। अनी तो दुकान से घर तक लाते हुए मेरे चलाने से प्रभावित हो ही चुका था। यूँ भी इस वक्त यूनिवर्सटी में काम में मशगूल होगा उसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहिये। अनायास ही गाड़ी मैंने भाभी जी के घर की ओर मोड़ दी। गेट खोलकर उनके पैसेज में गाड़ी रोकी तो भाभी जी आवाज़ सुनकर खुद ही दरवाजा खोल बाहर निकल आयी - “अरे तू!” और इधर-उधर देखते हुए बोली -”कौन लेके आया है तुझे? क्या छुट्टी है अनी की?”

“भाभी जी खुद गाड़ी चलाकर आयी हूँ।” मैंने बड़े जोश और फ़ख़्र के साथ कहा।

“इतनी जल्दी गाड़ी भी सीख ली।” और फिर गाड़ीपर गौर करके बाली - “हूँ तो नयी गाड़ी ली है मैडम ने।”

भाभी जी ने खूब बढ़िया लंच खिलाया मुझे। आलू के परांठे, भरवाँ करेले और कढ़ी। वे बहुत खुश थी। “ऐसे ही आ जाया कर। मुझे तो बड़ी खुशी हुई तुझे देख कर। ऐसे कौन मिलने आता है यहाँ। मैं तो दिन भर अकेली बैठी रहती हूँ। ये कभी-कभी लंच पर घर आ जाते हैं। जब दूर निकल जाते हैं तो आते भी नहीं। सच आ जाया कर।”

वीरजी, भाभी जी के पति, के शहर में कई पैट्रोलपंप थी जिनसे उनको खासी आमदनी थी। पर वीरजी ज्यादातर कामवश पर घर से बाहर ही होते थे। भाभी जी को सचमुच मुझसे मिलकर बड़ा अच्छा लगा था। बच्चे भी तो दिनभर बाहर होते।

भाभी जी में मैंने माँ का प्यार देखा, दीदी का प्यार देखा। मुझे लगा कि मेरा यहाँ भी अपना घर था। जहाँ मेरा स्वागत था, जहाँ मैं आ जा सकती थी। एक अंदरूनी सुख मिला था उस दिन। उस नन्हीं सी कार ने मुझे एक और घर भी दिला दिया था उस दिन।

यूँ बाद में मुझे भी फुरसत कम ही मिलती थी इस तरह दिन-दहाड़े घूमने-फिरने की। रोज ही कुछ न कुछ काम पड़ जाता और वही मेरा वक्त लील लेता। मेरा कालेज भी शुरू हानेवाला था।

यूँ शामों को हम साथ-साथ अनी के मित्रों से मिलते। वे भी हमारे यहाँ आते। पर ज्यादातर पहले से तय रहता कि कब कौन किसके यहाँ आ या जा रहा है। ज्यादातर वीकैंड पर ही सोशल मुलाकातें होती थीं। बाकी दिन सुबह से शाम पढ़ने-लिखने के काम, घर की सफ़ाई, कुकिंग, सौदाबाज़ी और बाकी के छोटे-मोटे कामों में लग जाते थे। भाभी जी को वीकैंड पर बारबेक्यू का बहुत शौक था। कहतीं कि इस तरह रसोई से छुटकारा मिल जाता है। वर्ना सातों दिन एक ही दिनचर्या।

बारबेक्यू पर ज्यादातर आदमी लोग ही पकाने का काम करते। हम लोग घर से मुर्गे और कबाब वगैरह मसालों में डुबो कर तैयार करके ले जाते, साथ में भुट्टे, तरबूज़, आलू के चिप्स और कोकाकोला की बोतलें। भाभीजी के एक दो पसंदीदा पार्क थे जहाँ चूल्हे भी बने हुए थे।

आदमी लोग ही चूल्हों में कोयले डालकर आग जलाते और फिर मुर्गे, कबाब, हैमबर्गर तथा भूट्टों को कोयलों की आँच पर पकाया जाता। ज्यादातर ऐसी पिकनिक गर्मियों में ही होती। पर सर्दियों में भाभी जी और दूसरे लोग घरों के अंदर भी इस तरह का इंतजाम रखते। पैटियो में बारबेक्यू किया जाता और तब भी घर के आदमी ही करते पकाने का काम।

मैं भी वीर जी के साथ माँस भूनने के काम में लग जाती। मेरे लिये नया था यह सब। मुझे भुनने की खुशबू भी अच्छी लगती और मैं मीट के टुकड़े उलटना-पलटना सीखती। मैं बार-बार चिमटों से मुर्गे की टाँगे उलटने लगती तो वीरजी कहते - तुम तो भरता बना दोगी सारी टाँगों का। इतनी बार थोड़े न पलटते हैं।

मैं रुक जाती। फिर मिनट बाद दुबार हिलाने का यत्न करती। मेरे लिये तो यह एक खिलवाड़ ही बन गया था। शायद मेरे और वीरजी के बीच खिलवाड़। उनके इलावा और कोई मुझसे कुछ कहता नहीं था। पर वीरजी घर के बड़े की तरह मुझसे बर्ताव करते। उनका हक भी था। हमारी शादी का सारा इंतज़ाम उन्होंने ही तो किया था। अनी से उनका विशेष स्नेह था और उसी नाते से मुझसे। कभी-कभी मुझे लगता कि वे मुझे अनी से भी ज्यादा स्नेह देते हैं। मुझे भी वीरजी बहुत भले लगते। उन पर सहज भरोसा हो जाता। अक्सर कोई बात पूछनी हो तो मैं उनसे बेझिझक पूछ लेती और वे भी विस्तार से सब कुछ समझा देते।

कभी वे मुझे छेड़ते - रितु तो मेरे शहर की है। बतलाओ कि जब मैं आई.आई.टी. में था तो तुम मिली क्यों नहीं मुझे। मैं तो तुम्हीं को ब्याह कर लाता।

पता नहीं किस संदर्भ में उनको अपने कानपुर वास का ज़िक्र किया था पर फिर जब उन्होंने अपनी बात की तो मैं उनके कानपुर से होने की बात से बहुत घबरा गयी थी। पर जब मन ही मन सालों का हिसाब लगाया तो वे मेरे कानपुर छोड़ने से कई साल पहले देश छोड़ चुके थे। वीरजी उम्र में मुझसे कम से कम बारह-पंद्रह साल बड़े थे। फिर भी घर तो उनका अभी भी कानपुर में ही था। वे शायद अंकल को भी जानते हों। मेरा डर ऐसे जकड़ता कि बदन में कंपकंपी छूट जाती।

मैंने यूँ ठान लिया था कि कभी किसी से ज़िक्र नहीं करुँगी कि कभी कानपुर में भी रहे थे हम। यूँ ही आ बैल मुझे मार वाला हिसाब था। क्या ज़रूरत है उस इतिहास को कुरेदने की! मेरा काला इतिहास! ओह क्या कभी मिटा पाऊँगी उस घिनौने इतिहास को।

कहीं ऐसा न हो कि वीरजी ने मुझे पहचान लिया हो?

पर कैसे? हम तो बिलकुल ही दूसरे इलाके में रहते थे। इंजीनियरिंग कालेज के पास तो कभी फटकते ही न थे। अजय तो स्कूल से ही सेना में चला गया था फिर इस कालेज का ज़िक्र ही भला क्योंकर?

परदेस में तो कोई भी छोटा-मोटा सूत्र मिल जाये, बहुत होता है नाता बनाने को। शायद इतना ही सहारा लिया था वीरजी ने मुझसे जुड़ने का।

यूँ मैं भी बहुत सुख पा रही थी उनसे जुड़कर।

बस कभी कानपुर की बात करते तो मैं चुपचाप सुन लेती। न कोई सवाल करती, न ही ज्यादा रुचि दिखाती। एक बार हिम्मत करके कह भी दिया - “हम लोग तो वहाँ थोड़ी देर ही रहे थे। पिताजी का तो तबादला होता ही रहता था। अब तो मेरा परिवार दिल्ली में है। मैं खुद को दिल्लीवाली मानती हूँ। कानपुर से कुछ नहीं मुझे।”

“अच्छा जी तो खुद को हमसे ऊपर रखने की कोशिश की जा रही है। दिल्लीवाली हैं आप। सारे बड़े बड़े लोग तो भई दिल्ली में ही रहते हैं। हम तो ठहरे छोटे शहर के।”

“नहीं नहीं वीरजी। वो मतलब नहीं था मेरा। पर अब तो हम कई साल से दिल्ली ही रह रहे हैं। दिल्ली मुझे अच्छा भी लगता है। कानपुर तो... दिल्ली से मुकाबला भी क्या?”

मैंने उनको फिर छेड़ दिया था। जल्द से विषय भी बदल दिया - ”अगल पलटा नहीं तो सारी टाँगें जल जायेंगी। पलट दूँ?”

“ू भरता खिलाने के मूड में हैं क्या? तो फिर बैंगन भून ना।”

जितने कबाब, चिकन टिक्के मैंने बरस भर में खा लिये थे, अपनी पूरी उम्र में भी हिंदुस्तान में न खाये होंगे। कभी-कभी आम भी मिल जाते। पर उनका वैसा स्वाद न होता था। मैक्सिको वगैरह से आते थे ये आम। मुझे कलमी और दशहरी आमों की याद आती। पर ऐसा कभी कभी ही होता।

सर्दी पड़ते ही सारा का सारा माहौल कितना बदल जाता। दिन इतने छोटे हो जाते कि दफ़्तरों से सीधे घर आकर सबको खाना खा सो जाने की पड़ जाती। ज्यादा से ज्यादा बैठकर टेलीविजन देख लिया। अकसर बर्फ़ पड़ती और घंटों पड़ती ही रहती। यानि कि काम पर पहुँचना भी दुश्वार हो जाता। पर सब जाते ही। उस साल खाली एक दो बार ऐसा हुआ था कि रास्ते साफ नहीं हुए थे सो काफी देर तक अनी भी घर में ही इंतजार करता रहा। पर रास्ते खुलते ही निकल पड़ते सब। हमारे साथवाली इमारत में एक पोलिश आदमी रहता था। वह तो रात के अंधेरे में काम पर निकल पड़ता। मैं बहुत हैरान थी। उसने बतलाया कि वह शहर के सेनीटेशन डिपार्टमेंट में काम करता था और जब बर्फ़ ज्यादा पड़ती तो उसे रातोंरात सड़कें साफ करने के लिये विभाग से बुलावा आता था। बताते हुए वह बहुत चहक रहा था कि ज्यादा बर्फ़  पड़ने से उसको फायदा है क्योंकि ओवरटाईम करने का पैसा दुगना मिलता है।

पर कट गयी थी सर्दियाँ भी अपार्टमेंट में ही दुबके-छिपके। मेरे लिये बर्फ़ देखने का अनुभव भी तो नया नया था। बस घंटों अपनी खिड़की से बर्फ़ का गिरना ही देखती रहती। फिर बर्फ़ गिरना रुक जाता तो बाहर जाकर मुट्ठियों  में भरकर उसे महसूस भी कर लेती। मिनटों में ही हाथ जमने से लगते और अंदर आकर गर्म पानी के नीचे हाथ छोड़ देती। यूँ कोट और बूट पहनकर, सिर में टोपी लगाकर गिरती बर्फ़ में बाहर चलने का अनुभव भी ले डाला था और बहुत खुश थी कि गिरती बर्फ़ में भी चलकर देखा है मैंने। पर पहली बार सुबह सुबह जब बर्फ़ गिरी देख कर बाहर निकली थी तो बेवकूफों की तरह हीलवाले पंप जूते पहन कर चल पड़ी। दो मिनट के लिये दुकान तक जाना था सो सोचा कि ठंड क्या लगेगी। सड़क गेरेज से निकलती थी और ढलान सी थी वहाँ। पैर रखते ही वह जाके नीचे तक फिसलती ही रही। चोट खास नहीं लगी थी पर कमर और कूल्हे दूर तक फिसलते जाने से काफी दिन तक दुखते रहे थे। कुछ हैरानी सी भी हुई थी कि यह किय क्या मैंने! दर्द की दवा खाकर ठीक हो गयी थी और अनी से उपदेश भी मिला था कि बूट लेकर दिये हैं तो इस्तेमाल के लिये हैं। अजय को एक ख़त भी डाला था इसके बारे में।

अतीत में रहने की मेरी आदत नहीं। न इच्छा ही। मुझे वर्तमान में ही रहना अच्छा लगता है। अपने आसपास से जुड़कर। अनी के साथ अपने वर्तमान को पूरी तरह से जी रही थी। पूरे उत्साह से। हर छोटे-छोटे सुख में सुखी होती, खुशी बटोरती हुई।

बस एक धरातल पर तनाव अभी भी कसमसा रहे थे।

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