मैं यहाँ फिर आऊँगा - अली सरदार जाफ़री

15-04-2012

मैं यहाँ फिर आऊँगा - अली सरदार जाफ़री

चंद्र मौलेश्वर प्रसाद

नवम्बर, मेरा गहंवारा है, ये मेरा महीना है
इसी माहे-मन्नवर में
मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी
मिरे कानों में पहली बार इन्सानी सदा आयी-

 सन्‌ २९ नवम्बर १९१३ई. को जन्म लेने वाले प्रसिद्ध शायर अली सरदार जाफ़री के लिए निश्चित ही नवम्बर एक यादगार महीना रहा होगा। सरदार का जन्म गोंडा ज़िले के बलरामपुर गाँव में हुआ था और वहीं पर हाई स्कूल तक उनकी शिक्षा-दीक्षा भी हुई थी। आगे की पढा़ई के लिए उन्होंने अलीगढ़ की मुस्लिम युनिवर्सिटी में दाखला लिया। यहाँ पर उनको उस समय के मशहूर और उभरते हुए शायरों की संगत मिली जिनमें अख़्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज़्बी, मजाज़, जाँनिसार अख़्तर और ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे अदीब भी थे।

कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में
बहुत अहले-सुखन उट्ठे बहुत अहले-कलाम आये।

यह वह दौर था जब अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी और कई नौजवान इस आंदोलन में कूद पडे़ थे।

हर तरफ अँधेरा है
और उस अँधेरे में
हर तरफ शरारें हैं
कोई कह नहीं सकता
कौन सा शरारा कब
बेक़रार हो जाये
शो’लाबार हो जाये
इन्क़िलाब आ जाये!

इसी समय वॉसराय के इक्ज़िकिटिव कौंसिल के सदस्यों के विरुद्ध हड़ताल करने के लिए सरदार को यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया।  अपनी पढा़ई आगे जारी रखते हुए उन्होंने एँग्लो-अरेबिक कालेज, दिल्ली से बी.ए. पास किया और बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री हासिल की।  फिर भी, छात्र-आंदोलनों में भाग लेने का उनका जज़्बा कम नहीं हुआ।  परिणामस्वरूप उन्हें जेल जाना पडा़।  इसी जेल में उनकी मुलाकात प्रगतिशील लेखक संघ के सज्जाद ज़हीर से हुई और लेनिन व मार्क्स के साहित्य के अध्ययन का अवसर मिला।  यहीं से उनके चिंतन और मार्ग-दर्शन को ठोस ज़मीन भी मिली।

वह आग मार्क्स के सीने में जो हुई रौशन
वह आग सीन-ए-इंसाँ में आफ़ताब है आज
वह आग जुम्बिशे-लब जुम्बिशे-क़लम भी बनी
हर एक हर्फ़ नये अह्द कि किताब है आज।

इसी प्रकार अपनी साम्यवादी विचारधारा के कारण वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुडे़ जहाँ उन्हें प्रेमचन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, फैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ , मुल्कराज आनंद जैसे भारतीय सहित्यकारों तथा नेरूदा व लुई अरांगा जैसे विदेशी चिंतकों के विचारों को जानने - समझने का अवसर मिला।

यही सलीक़ा है बस हर्फ़े-बद से बचने का
कि अपनी ज़ात को इतनी बुलंदियाँ दे दो
किसी का संगे-मलामत वहाँ तक आ न सके
चिरागे़-इल्म-ओ-हुनर को कोई बुझा न सके।

कई आलिमों की संगत का यह असर हुआ कि सरदार एक ऐसे शायर बने जिनके दिल में मेहनतकशों के दुख-दर्द बसे हुए थे।

ऐजाज़ है ये इन हाथों का / रेशम को छुएँ तो आँचल है
पत्थर को छुएँ तो बुत कर दें / कालिख को छुएँ तो काजल है
मिट्टी को छुएँ तो सोना है / चाँदी को छुएँ तो पायल है
इन हाथों की ताज़ीम करो..........

मेहनतकश चाहे खेत के खुले वातावरण में काम करनेवाला किसान हो या मिल की कफ़स में कार्यरत मज़दूर, शोषण तो उसका हर जगह होता है।  सब से अधिक दुख तो इस बात का है कि बाल श्रमिक भी इस शोषण से नहीं बच पाया है।

यह जो नन्हा है भोला-भाला है
सिर्फ सरमाये का निवाला है
पूछती है यह उसकी ख़ामोशी
कोई मुझको बचानेवाला है?

अपने इसी चिंतन के कारण सरदार का झुकाव वामपंथी राजनीति की ओर हुआ और वे कम्यूनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए।  राजनैतिक उठा-पटक का नतीजा यह हुआ कि उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा और उन्होंने कई रचनाएँ जेल की सीखचों के भीतर रह कर ही लिखीं।

मुझे गिरफ्तार करके जब जेल ला रहे थे पुलिसवाले
तुम अपने बिस्तर से अपने दिल के
अधूरे ख़्वाबों को लेकर बेदार हो गई थीं
तुम्हारी पलकों से नींद अब भी टपक रही थी
मगर निगाहों में नफरतों के अज़ीम शोले भड़क उठे थे...

सरदार चाहे जहाँ भी रहे, उनकी लेखनी निरंतर चलती रही।  नतीजतन उन्होंने ग्यारह काव्य-संग्रह, चार गद्य संग्रह, दो कहानी संग्रह और एक नाटक के अलावा कई पद्य एवं गद्य का योगदान साहित्यिक पत्रिकाओं को दिया।  परंतु उनकी ख्याति एक ऐसे शायर के रूप में उभरी जिसने उर्दू शायरी में छंद-मुक्त कविता की परंपरा शुरू की।  तभी तो उनकी कई रचनाएँ; जैसे परवाज़, नई दुनिया को सलाम, खून की लकीर, अमन का सितारा, एशिया जाग उठा, पत्थर की दीवार और मेरा सफ़र ख्याति प्राप्त कर चुके हैं।  अपनी रचनाओं में उन्होंने प्रतीकों, बिम्बों और मिथकों का भी सुंदर प्रयोग किया है।

गरीब सीता के घर पे कब तक रहेगी रावण की हुक्मरानी
द्रौपदी का लिबास उसके बदन से कब तक छीना रहेगा
शकुंतला कब तक अंधी तक़दीर के भँवर में फँसी रहेगी
यह लखनऊ की शिगुफ्तगी मक़बरों में कब तक दबी रहेगी?

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इसी बुलंदी से वेद ने ज़मज़मे सुनाये
यहीं से गौतम ने आदमी की समानता का सबक पढा़या
हमारी तारीख़ की हवाएँ मसीह के बोल सुन चुकी है
हमारे सूरज मुहम्मद-मुस्तफ़ा के सर पर चमक चुकी है

इस बुलंदी से गिरकर देश के बँटवारे की स्थिति को शायर-मन कैसे बरदाश्त करता!

इसी सरहद पे कल डूबा था सूरज होके दो टुकडे़
इसी सरहद पे कल ज़ख्मी हुई थी सुब्‍हे-आज़ादी
यह सरहद खून की, अश्क़ों की, आहों की, शरारों की
जहाँ बोय़ी थी नफ़रत और तलवारें उगाई थी।

होनी को तो  नहीं टाला जा सका, परंतु आशा की यह किरण तो थी कि दोनों देश आपस में प्रेम और भाईचारे स जी सकेंगे।

तुम आओ गुलशनो-लाहौर से चमन-बर-दोश
हम आयें सुबहे-बनारस की रौशनी लेकर
हिमालय की हवाओं की ताज़गी लेकर
और उसके बाद ये पूछें कि कौन दुश्मन है?

सरदार एक ऐसे सामयिक शायर माने जाते हैं जो अपने समय की परिस्थितियों पर चिंतन करते रहे।  उनका मानना भी था कि "हर शायर की शायरी वक़्ती होती है।  मुमकिन है कि कोई और इसे माने न माने लेकिन मैं अपनी जगह यही समझता हूँ। अगर हम अगले वक़्तों के राग अलापें तो बेसुरे हो जाएँगे।  आनेवाले ज़माने का राग जो भी होगा, वह आनेवाली नस्लें गाएँगी। हम तो आज का ही राग छेड़ सकते हैं।"

सरदार का चिंतन भले ही साम्यवादी विचारधारा में बहता रहा पर उनकी शायरी में धर्म के प्रति श्रद्धा भी झलकती है, जब वे अपनी रचनाओं में गीता, वेद और कुरआन की बातें करते हैं।

ज़मीन क्या, आसमान क्या है? / सितारे क्यों जगमगा रहे हैं?
कोई है ख़ालिक़ तो वो कहाँ है? / अगर नहीं है तो फिर ये क्या है?
ये दिल में किस नूर का ज़िया है? / बशर का जल्वा है या खुदा है?

सरदार कोई शुष्क शायर नहीं थे।  उनके सीने में जहाँ किसान और मज़दूर के लिए दर्द था, वहीं एक धड़कता दिल भी था जो एक हसीना के प्यार की टीस को छुपाये रखा था।  यही प्यार जीवन के उतार-चढा़व देखता हुआ पनपा, परवान चढा़ और शादी की मंज़िल तक पहुँचा जिसका निभाव उन्होंने अपनी अंतिम साँस तक किया।

हर किस्सा मिरा अफ़साना है
हर आशिक है ‘सरदार’ यहाँ
हर माशुका ‘सुलताना’ है।

यद्यपि सरदार ने अपनी शायरी में फ़ारसी का अधिक प्रयोग किया है, फिर भी उनकी रचनाएँ आम आदमी तक पहुँची और बेहद मकबूल हुई।  उनके क़लम का लोहा देश में ही नहीं, अपितु अंतरराष्ट्रीय साहित्य जगत में भी माना जाता है।  उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, कुमारन आशान पुरस्कार तथा इक़बाल सम्मान जैसे विशिष्ठ साहित्यिक सम्मानों से अलंकृत किया गया।  भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री और रूसी सोवियत लैण्ड  नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किया।

इस अज़ीम शायर ने अपने पूरे जीवन में मज़लूम और मेहनतकश ग़रीबों की समस्याओं को उजागर करने के लिए अपनी क़लम चलाई जिसके लिए उन्हें निजी यातनाएँ भी झेलनी पडी़। ८६ वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते अपने जीवन के अंतिम दिनों में ब्रेन-ट्यूमर से ग्रस्त होकर कई माह तक मुम्बई अस्पताल में मौत से जूझते रहे।

मैं सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग कर फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ।

अंततः १ अगस्त २००० को इस फ़ानी दुनिया को यह वचन देकर अली सरदार जाफ़री ने अलविदा कहा:-

फिर इक दिन ऐसा आयेगा
आँखों के दिये बुझ जायेंगे
यादों के हसीं बुतखाने से
हर चीज़ उठा दी जाएगी
फिर कोई नहीं पूछेगा
सरदार कहाँ है महफिल में
लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा॥

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