मैं और मेरी परछाईं
संजय नारायणबचपन से
अपनी परछाईं के साथ
स्पर्धा करने का
अजीब सा शौक़ हुआ।
चलते हुए जब
दौड़ने का ख़्याल आया,
अपनी परछाई को तो हराना ही था,
हैरत तो तब हुई जब
मेरी परछाई ने भी,
हार नहीं मानी,
काँटे की जब टक्कर हुई,
मैं क्षुब्ध हुआ,
खीजा, पर हार नहीं मानी,
कमबख़्त वो भी मुझे
अब चिढ़ाने लगी थी,
मैं बेबस था,
इस दुश्मन से निपटना जो था,
हद तो तब हुई,
जब उसने मेरी नक़ल शुरू की,
मैं जो करता था,
वो हूबहू वही करने लगी,
मेरा क्रोध -
चरम सीमा पर तो था मगर,
अब मुझे उसकी
आदत सी हो गयी थी,
न कोई चारा होते हुए,
उससे दोस्ती कर ली,
हमारी बातें होने लगीं,
उसका साथ भाने लगा,
मैं बड़ा हुआ तो वह भी
मेरे साथ बड़ी हुई,
मैं अब जीवन की
ऊहापोह में खो चला था,
मैं अब उसको मैं भूल...
नए रिश्तों में मगन हुआ,
साल बीते रिश्ते बिछड़ने लगे,
मैं अकेला हुआ,
मेरा अब कोई साथ न था,
तन्हाई के सिवा,
बचपन के दिन मुझे
अब याद आने लगे थे,
तभी अपनी
परछाई का ख्याल जो आया,
फिर निकल गया बाहर मैं
उसकी तलाश में,
धूप तो खूब सजी थी
और मैं फिर चलने लगा,
चाल धीमी थी,
उम्र का तकाज़ा जो था,
मैं चौंका और
चौंक कर विस्मृत हुआ,
वो मेरे साथ थी और
साथ ही चल रही थी मेरे,
अपार ख़ुशी के साथ
बेहद सुकून सा हुआ,
भावनाएँ उमड़ चली थीं,
अश्रु द्वार खुल गए थे,
मैं अब अकेला न था,
परछाई साथ हो चली
2 टिप्पणियाँ
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भावपूर्ण कविता।
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सुन्दर अभिव्यक्ति!