महसूसो यूँ भी
डॉ. विजेता साव सोचती हूँ क्या कहूँ?
कहूँ भी या चुप ही रहूँ?
चुप रहूँ तो आख़िर क्यों रहूँ?
कहूँ अगर तो किससे कहूँ?
क्या बेहतर है मौन ही धरूँ!!!!
या फिर गर्व से सर्हष कहूँ
जो भी कहीं भीतर है उमड़- घुमड़ रहा
बेख़ौफ़, बेफ़िक्र बेरोक-टोक
मैं 'स्त्री' हूँ
और 'मैं' हूँ
मेरा होना ही
होना है घास फूल का खिलना
नागफनी में कली का खिलखिलाना
घुप्प अँधेरी में जुगनू का चमकना
दीवार भेद कर हरियाली का झाँकना
नीली सी आग में गोल रोटी का सेंकना
बेदर्द मौसमों में साँसों का चलना
चलना . . . चलना . . .और चलते चलना . . .
दूर. . . बहुत दूर, अनथक. . . निरंतर
और महसूसना एक जलती मशाल
अपने भीतर बियाबान में रास्ता सुझाती
एक हथोड़ा चोट करता युगीन पत्थरों पर
और और एक स्पर्श!!!
प्राण भरता मिट्टी में
मुझे देखो कभी मेरी आँखों से
मुझे छुओ कभी मेरी साँसों से
मुझे पहचानो कभी मेरे होने से
मुझे जियो मेरे जीवन से
यक़ीन मानो आसान तो नहीं होगा
पर जो महसूसोगे
पहले कभी यक़ीनन महसूसा ना होगा
महसूसा ना होगा. . .