लॉकडाउन (डॉ. मंजु शर्मा)

15-05-2020

लॉकडाउन (डॉ. मंजु शर्मा)

डॉ. मंजु शर्मा (अंक: 156, मई द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

“माँ! ओ माँ! कुछ खाने को दो न,” छोटू के होठों पर भूख पपड़ी जम आई थी। पाँच बरस के छोटू ने पल्ला खींचते हुए ज़िद की। 

“हूँ,” एक कराहती देह जो टूटी चटाई के तारों से लगी हुई थी, में कुछ हलचल हुई। “हाँ बिटवा, कठड़े में रोटी का टुकड़ा पड़ा है खाले,” कहते हुए उसने पानी का गिलास आगे सरका दिया। 

सूखी रोटी का नुकीला कोना नरम हलक में चुभते हुए कंठ से तकरार करता हुआ उतरने लगा। बाहर से लड़खड़ाती आवाज़ सुन छोटू का हाथ मुँह में ही अटका रह गया। मोहिनी ने तुरंत बच्चे को अपने डैनों में छुपा लिया। 

“अरे क्या मर गई, कहाँ है? ला खाना दे। साला लॉकडाउन .....। सब बंद,” और उसने ख़ाली बोतल आँगन में दे मारी। “सुना नहीं ..!” एक भद्दी सी गाली। 

कहाँ से लाऊँ? सुबह की मार से ग़ुस्साई मोहिनी ने दो चार ख़ाली डिब्बे उसके सामने पटक दिए, जिसमें से एक चुहिया जान बचाकर भागी।

“हमारी छोड़ो इन बच्चों का पेट पीठ से जा मिला है, इनका ध्यान भी है तुम्हें?” 

इतना सुनते ही टूट पड़ा वह, “मुझसे ज़बान लड़ाती है।” उसने अधमुँदी, अधखुली आँखों से इधर-उधर देखा पास में एक पाइप का टुकड़ा पड़ा था। बस क्या था ताबड़तोड़ बरसा दिए उसने। मोहिनी की पीठ झरने लगी। बच्चे माँ से लिपट कर सिसकने लगे। वह गाली-गलौच करते हुए वहीं खटिया पर लुढ़क गया। अँधरे ने रात को समेट लिया था। दुनिया नींद के आग़ोश में कस गई पर मोहिनी को नींद कहाँ? वह अपने हाथ को मोड़ तकिया बना सोने की कोशिश करने लगी, मोहिनी के हाथ सूज गए थे। हाथ ही तो थे जो उसके बचाव में आड़े आ जाते थे। यह तो रोज़ का हाल है लेकिन इस ‘कोरोना’ ने तो रोना ही छोड़ा है बस। आज तो चार दिन ही हुए हैं आगे क्या होगा? सुबह ऑटो लेकर निकल जाता था। शाम को ही शामत आती थी। अब तो चौबीस घंटे इसका शिकार होना पड़ता है, हर तरीक़े से। मैं भी इनसान हूँ, यह इस राक्षस को कौन समझाए? मैंने दो दिन से कुछ खाया नहीं, अब तो पानी भी कलेजे में अटकने लगा है। एक बार भी पूछा इसने, ख़ुद को जो चाहे ज़ोर ज़बरदस्ती बस चाहिए ही। उसका मन घृणा से भर उठा। अपनी उधड़ी क़िस्मत की तुरपाई में लगी थी वह कि जग्गा की आवाज़। काँप उठी वह। उसने पानी दिया। 

“इधर आ।” बस क्या था जानवर की भूख।

सुबह मुँह अँधेरे ही मोहिनी जाग गई, वैसे सोई ही कब थी? आज पाँचवा दिन था, वह रोज़ दिन गिनती कि इस बीमारी से नजात मिलेगी तो मुझे भी इस ... शब्द उसके गले में ही फँस गए और मन रुआँसा हो आया।

अब तो कपड़ा बर्तन के लिए भी कोई झाँकने नहीं देता। कल की बात याद आई उसे; मेमसाहब ने कैसे कहा था ’दूर ही रहो’। वैसे एक दिन भी न जाओ तो आसमान सिर पर उठा लेती थीं। आज ऐसा बर्ताव। वो भी क्या करे मुई बीमारी ही ऐसी है। उसका सिर चकराने लगा था। ये बच्चे क्या जाने लॉकडाउन, बंद, महामारी? उसके मन में एक हूक-सी उठी कि क्या यह बीमारी भगवान से बड़ी है कि उसने भी अपने पट बंद कर लिए हैं। उसकी आँखों के कोरों से गर्म बूँद निकल कर गालों पर लुढ़क आई। उसका ध्यान न चाहते हुए भी पति की ओर चला गया। यह कुम्भकरण उठते ही हाय तौबा मचाएगा। इंतज़ाम नहीं हुआ तो लातों से स्वागत करेगा मेरा। कहते हुए फिर बच्चों के सूखे चेहरों को देखने लगी, कलेजा मुँह को आ गया उसका। हे भगवान मुझे ही कर दे ‘कोरोना’। पर मेरे बच्चे ..? तड़प उठी वह। जागते ही जग्गा ने चाय की फ़रमाइश की। दूध कहाँ है? और चीनी भी कल ही ख़तम हो गई थी। यह सुन जग्गा पैर पटकता हुआ बाहर चला गया। ऑटो को ज़ोर से लात मारी क्योंकि उसका भी किराया चुकाना है। वह उठी और पड़ोसन से चीनी माँग कर काली चाय बनाई। चाय का गिलास थमाते हुए बोली कि चावल का दाना नहीं है। जग्गा ने कुछ कहा तो नहीं पर खा जाने वाली नज़रों से घूरने लगा। फिर गिलास पटककर बाहर चला गया। मोहिनी ने चैन की साँस ली। फिर बुदबुदाने लगी कि चूल्हा कैसे जलेगा? उसे ध्यान आया पड़ोस में राधा भाभी के यहाँ टीवी है; आज तो कुछ अच्छी ख़बर की आशा में वह चल पड़ी। कब खुलेगा काम? मोहिनी ने निराश मन से पूछा। उसे बीमारी, महामारी, देश दुनिया से क्या मतलब; यह तो बड़े लोगों का काम है, वे देख ही लेंगे। उसकी दुनिया तो उसके भूखे बिलबिलाते बच्चे हैं। राधा ने कहा, “अरे मोहिनी काहे की बीमारी यह तो माणस खाणी बेमारी है। दुनिया ने निगले वास्ते आई है।”

“अच्छा ...” बस इतना कह पाई वह। मोहिनी ने फिर पूछा, “यह बताओ बाहर जाने दिया जा रहा है?”

“ना रे!” लंबे साँस के साथ कह गई वह कि बाहर जाने से ही तो ज़्यादा फैल रही है बीमारी। वह उदास हो गई। झिझकते हुए पूछ ही लिया, “भाभी थोड़े चावल हैं? जब लाऊँगी तो पहले के साथ ये भी दे दूँगी।”

“देख, हैं तो हमारे पास भी थोड़े ही। फिर भी ले जा बच्चे भूखे हैं तेरे।”

उसने पावभर चावल दे दिए। मोहिनी ने चावल का मांड सुबह के लिए और चावल दोपहर के लिए तैयार कर लिए। अब शाम? बड़ा प्रश्न मुँह बाए खड़ा हो गया। वह सोचने लगी भूख तो अपनी टेम पर लग ही आती है। इसे क्या पता कि कमाई है या नहीं।

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