लो फिर से

01-03-2020

लो फिर से

डॉ. अमरजीत सिंह टांडा (अंक: 151, मार्च प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

लो फिर से 
सुबह हुई है
धरत पे किरणों ने नई चादर बिछाई है 
जलते हुऐ सूर्य ने 
रहस्य में गुनगुनाने लगीं हैं गलियाँ 
पुर-असरार में हैं गीत नदियों की लहरों के


पेड़ों पत्तों को जगाया है  
परिंदों के नग़्मों की आवाज़ों ने


मुस्कुराने लगें हैं दरवाज़े घरों के
मिटने लगी है फ़ज़ा-ए-ग़म
मंज़र सा बना है तेरी याद का पहला सा
बादल से छाये हैं तेरी ज़ुल्फ़ों के मुक़द्दर के
घूँघट उठाया है तेरे हुस्न की तरंगों ने


शाख़-सारें हुई हैं जवां 
रात सिमटने लगी है सितारों की चाँदनी
सूर्य अभी गर्म करेगा 
शीत ठंडी नर्म सी रात के अंगों को


हँसती शबनम अभी रंगों से लिप्त होगी
बल खाती नन्ही नन्ही सी पगडंडियाँ
तुझे बुलायेंगी पाँव रखने के लिए
बन रहे साए वृक्षों के 
होंगे लिपटने के लिए हाज़िर


फिर आँचल सा झलकेगा एक सजी शाम का
तेरा अक्स बनेगा मेरे शहर की रूह पर
आसमां के सितारे झिलमिलाएँगे 
तेरे आने की उम्मीद बन कर


महफ़िल में तसव्वुर सा होगा 
तेरे शबाब का
यौवन में खिलेगी 
मेरे बाग़ की कली कली 
जवानी का सुर मिलेगा 
बाँहों को मुबारक होगी तेरे आने की ख़बर
महफ़िल को मिल जाएँगे दो जीने के पल

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