क्या करूँ मैं ऐसी ये दुनिया

01-03-2020

क्या करूँ मैं ऐसी ये दुनिया

डॉ. अमरजीत सिंह टांडा (अंक: 151, मार्च प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

क्या करूँ मैं ऐसी ये दुनिया
जला क्यों न दूँ मैं ऐसा संसार

 

लाशें बन कर जी रहें रास्तों के वृक्ष
हस्ती मिटा दी जाती है ज़रा सा बोलने पर
इन्सान को खिलौना समझ रखा है
इन ज़ालिम दरिंदों ने
जब दिल चाहे फोड़ देते हैं खेलने के बाद
अपनी ही गली के लोग


मौत कितनी सस्ती सी हो गई है 
इस नगर में
जिस्मों की मंडी लगती है
दिन दोपहरों का बलात्कार कर रहे हैं
बदकारी भटक रही है मुहल्लों में


किस काम है
ये रंग-ए-आलम
यह ताज तख़्त आसमान को छूते महल
जंगल जला रहा है 
समाज को ताक रहीं हैं 
मानवी नफ़रत की निगाहें
मर रहा है दौलत पे दुश्मन समय का दौर


ख़ून के प्यासे हैं रिवाज़ और रूहें
संसार है कि जिसे जिस्मों की भूख लगी है
क्या उम्मीदें पाओगे ऐसे बलात्कारी जहान से 


सीने जख़्मों से भरे पड़े हैं
आवाज़ ऊँची करो तो
ज़ुबानें काट दी जातीं हैं 
बेइज़्ज़त किये गए जिस्म घायल पड़े हैं 
बेपहचान हैं लाशें 
टुकड़ा टुकड़ा हुई बिन कफ़न
 

सूर्य उदास सा है हर सुबह का
तड़पन सी लगी है दोपहर को धूप की
उलझन में है हर शाम की आँख


पूछना पड़ता है दरिया को बहने के लिए
हवाओं को चलना है तो अनुमति चाहिए
कैसी बदहवासी है शहरों में
व्यापार सी बन गई है मोहब्बत यहाँ

 

क्या करूँ ऐसी दुनिया को
जला क्यों न दूँ ऐसे संसार को

 

आप को मुबारक आपकी ये दुनिया
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें