क्या नाम दूँ
कुन्दन कुमार बहरदारएक तेरे नहीं से,
घर सुनसान है।
मैं कैसे कहूँ तुम्हें,
अधूरी ये जान है।
विचलित है मन,
तेरे बग़ैर सनम।
ढूँढ़ रही निगाहें,
तुम्हें वन - वन।
मैं जपती हूँ माला,
बस तेरे नाम की।
व्यर्थ मेरी जीवन,
तेरे पहचान की।
गर्भ में है जो पुष्प,
उसे क्या बताऊँगी।
तेरे न होने का मैं,
क्या क़िस्सा सुनाऊँगी।
दुनिया के सवालों से,
उसे कैसे बचाऊँगी?
चुभन भरी शब्दों से,
मैं कहाँ छिपाऊँगी??
तेरे इस प्रेम का,
मैं क्या नाम दूँगी।
स्त्रीत्व को खोकर,
उसे भी मार दूँगी।
मेरी माँग को भर,
सुहागन बनाता।
लाँछन जो लगा है,
तू उसे तो हटाता।
1 टिप्पणियाँ
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बहुत सुंदर रचना