खरा सिक्का
कुमार शुभमवो कहता, घूम कर आता हूँ,
और दूर कहीं निकल जाता था।
रात अँधेरी,
वो अकेला डर काँप जाता था
नहीं पता कहाँ जाता,
किससे मिलता
मिलता भी या नहीं?
क्या उसे डर नहीं लगता?
क्या किसी को पता था?
भोर समय वो वापस आता,
बिन बोले
बिन कुछ कहे,
धीरे से ठंडे बिस्तर में
सो जाता।
तानों से जब आँखें खुलतीं,
तानों से जब शामें ढलतीं,
चुप-चाप सारा दिन वही करना,
साँसें भरना, और -
पूरी दुनिया से लड़ना।
जी हाँ! चुप-चाप वो भी लड़ना,
किसको आता है?
जाने कौन सिखाता है...
खैर!
चमड़ी उसकी मोटी थी,
क़िस्मत उसकी
ज़रा सी खोटी थी।
सबने कहा..
बेकार है ज़िन्दगी इसकी,
इज़्ज़त बिक गयी है जिसकी,
फूट गयी है क़िस्मत उसकी,
बेकार है ये ज़िन्दगी इसकी।
वो सुनता, फिर भूलता,
भूलता, फिर सुनता।
कुछ दिन गुज़र गए,
कुछ महीने निकले,
चंद साल भी निकल गए,
लाखों करोड़ों ताने सहे।
वो फिर कहते
शायद लड़का मर गया,
कुछ कहते
वो गाँव अपने घर गया।
एक सुबह एक ख़बर आयी,
साथ एक तहलका लायी..
ख़बर उसी की थी
कोई बाँध उसने तोड़ दिया था,
कोई रास्ता उसने मोड़ दिया था,
ख़बर ही कुछ ऐसी थी..
मंगल-पृथ्वी को जोड़ दिया था,
जीवन वहाँ खोज लिया था।
दुनिया ढूँढ़ रही जिसे
बच्चे से वो खेल रहा था
पतंग, नाव, उड़नतश्तरी
और न जाने क्या,
फिर एक फ़कीर ने कहा..
बेकार नहीं थी ज़िन्दगी इसकी,
इज़्ज़त मिल गयी वापस जिसकी,
क़िस्मत चमक रही आज उसकी,
देख लो दुनिया देख लो
गा रहे सब महिमा जिसकी!