खाटप्रिया
दिव्या माथुरउलझ के इसकी गाँठों में
सुलझाया खुद को कई बार
सहलाया इसने कई बार
बहलाया मुझको कई बार
खदेड़ भगाती थी नैराश्य
दुर्दशा सहेज वह लेती थी
कितने करीब हम दोनों थे
जब सारी दुनिया बैरी थी
ज़रा सी बारिश होने पर
खुशबू से वह भर जाती थी
गर्व में तनके कभी कभी
कंधे उचका अड़ जाती थी
भइया को सिरहाने बिठा
पैताने को मैं दबाती थी
दी ज़रा सी कोई ढील कहीं
ये तुनक खड़ी हो जाती थी
अदवायन इसकी कसते
मैं स्वयं स्फूर्ति पाती थी
जकड़ के मेरे पैरों को
ये रस्ते पर ले आती थी
बड़े बड़े बचकाने आँसू
पिये बहुत मेरे इसने
ऊधम और शैतानी भी
चुपचाप सही झेली उसने
तन क्या मेरी आत्मा को भी
छीला कुरेदा था उसने
कुछ भी तो छिपा न पाती थी
मानो मैं थी इसके वश में
गद्देदार पलंग पर अब
लन्दन में भी मैं अकुलाई
क्यों भूले नहीं भूला पाई
मैं अपनी प्रिय चारपाई।