कलाइयों पर ज़ोर देकर!
मंजुल सिंहलोग
इतने सारे लोग
जैसे लगा हो
लोगों का बाज़ार
जहाँ ख़रीदे और बेचे
जाते हैं लोग
कुछ बेबस,
कुछ लाचार
लेकिन सब है
हिंसक,
जो चीख़ना चाहते हैं
ज़ोर से, लेकिन
भींच लेते हैं अपनी
मुट्ठियाँ कलाइयों पर ज़ोर देकर
ताकि कोई
देख न सके
बस महसूस कर सके
हिंसा को
जो चल रही है
लोगों की
लोगों के बीच, में
लोगों से!
एक हिंसा तय है
लोगों के बीच
जो ख़त्म कर रही है
किसी तंत्र को
जो इन्हीं हिंसक लोगों
ने बनाया था
हिंसा,
रोकने के लिए!
लेकिन सब ने,
सीख लिया है
कलाइयों पर ज़ोर देकर
मुट्ठियाँ भींचना,
इन्होंने भी सीख लिया
सभ्य लोगों की तरह
कड़वा बोलना,
गन्दा देखना और
असभ्य सुनना!
यह समझते हैं
ख़ुद को सभ्य
कलाइयों पर घड़ी,
गले में टाई,
पैरों में मोज़े,
और
हाथ में ज़हरीली
तलवार रखने से
मैं भी रोज़ जाता हूँ
लोगों के बाज़ार,
तुम भी जाया करो
ऐसा ही सभ्य बनने
ताकि तुम भी
भींच सको अपनी मुट्ठी
कलाइयों पर ज़ोर देकर!