कैसे जानूँ अभिलाषा मन की
भूपेंद्र कुमार दवेकैसे जानूँ अभिलाषा मन की
लंगड़ी आशा बनी हुई है
बैसाखी मेरे जीवन की
देख देखकर पथ के काँटे
कैसे चलता राह अमन की
दूर हुआ जो तेरे पथ से
काँप उठा सुन बात मरण की
कैसे जानूँ अभिलाषा मन की॥
मंदिर मन से दूर नहीं है
मुक्ति कहाँ है, पर बंधन की
देख देखकर तन की पीड़ा
थाल गिरी मेरे पूजन की
दूर हुआ जो अपने मन से
काँप उठा सुन बात तपन की
कैसे जानूँ अभिलाषा मन की॥
यह काया है कोमल कलुषित
क्या जाने अभिलाषा मन की
हर पल अपनी सोच समझ से
भर लाती त्रुटियाँ यौवन की
अंत समय में पीड़ा सारी
भर जाती साँसें पीड़न की
कैसे जानूँ अभिलाषा मन की॥