कभी रातों को वो जागे

08-01-2015

कभी रातों को वो जागे

देवमणि पांडेय

कभी रातों को वो जागे कभी बेज़ार हो जाए
करिश्मा हो कोई ऐसा उसे भी प्यार हो जाए

मेरे मालिक अता कर दे मुझे तौफ़ीक़ बस इतनी
ज़बां से कुछ नहीं बोलूँ मगर इज़हार हो जाए

मुहब्बत हो गई है तो नज़र आए निगाहों में
करूँ जब बंद आँखें मैं तेरा दीदार हो जाए

तुम्हें हम चाहते हैं क्या तुम्हें अच्छा नहीं लगता
अगर ये भी ख़ता है तो ख़ता सौ बार हो जाए

कई दिन तक नज़र से दूर रहना भी नहीं अच्छा
कहीं ऐसा न हो ये फ़ासला दीवार हो जाए

किसी का बनके जीने में मज़ा कुछ और होता है
किसी के इश्क़ पे दिल को अगर एतबार हो जाए

लुटाकर दिल की दौलत आ गया फ़ुटपाथ पर लेकिन
वो फिर से चाहता है इश्क़ का बीमार हो जाए

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