जिस्म
राहत कैरानवीअपने क़द के आकार के
शीशे में खड़ी
अपना जिस्म देख रही थी कि
इसी बीच सवाल हुआ-
"शीशे में दिखने वाला
ये ख़ूबसूरत जिस्म
क्या सचमुच तेरा है"
जवाब आया-
"नहीं…!"
इसी बीच अगला सवाल हुआ-
"तो फिर किसका है यह जिस्म…?”
इस बार जवाब एक साँस आया-
"ये जिस्म उन माँ-बाप का है
जिनके इशारों पर ये आज भी नाचता है,
ये जिस्म उन हैवानों का है
जो इसे रौंद डालने की तमन्ना लिए फिरते हैं,
ये जिस्म उस समाज का है
जो इस पर अपना मनचाहा बोझ लादता है"
इस बार सवाल भी एक साँस हुए-
"तो क्या ये जिस्म नाचना बंद नहीं कर सकता?
क्या ये जिस्म रौंदने वाले के हाथ नहीं तोड़ सकता?
क्या ये जिस्म बोझ उतारकर नहीं फेंक सकता?"
जवाब आया-
"नाचना बंद भी कर सकता है,
रौंदने वाले के हाथ भी तोड़ सकता है,
और बोझ भी उतार सकता है,
लेकिन क्या इसके बाद उसे
इंसाऩ माना जाएगा…?”
इस बार जवाब सुनाई नहीं दिया
सिर्फ़ खड़े रह गये
दो ख़ूबसूरत जिस्म
लाल कमरे के भीतर
जीवन में किसी नीलेपन की आशा लिए…!
3 टिप्पणियाँ
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23 Jul, 2019 06:30 PM
बहुत ही मार्मिक और स्त्री की सामजिक,पारिवारिक चित्रण करती हुई रचना।आपकी कवितओं के बहुत ही गहरे माने है,जो हमे संवेदनशील बनती है।बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें । आपका शुभेक्छू नवीन कुमार सिंह
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23 Jul, 2019 06:04 PM
The real truth. It's the saddest part of every women's life.
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15 Mar, 2019 06:59 PM
@ राहत कैरानवी जी मार्मिक चित्रण , अंतरात्मा को झकझोर दिया आपकी रचना I उच्च स्तरीय रचना