झूठ नहीं बोलूँगा 

01-11-2020

झूठ नहीं बोलूँगा 

कुमार शुभम (अंक: 168, नवम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

 झूठ नहीं बोलूँगा . . . 
अच्छी लग रही!
नहीं! तुम नहीं 
तुम्हारी ये आँखें 
ऐसी कि जिसको देख ले 
वो आईने में 
ख़ुद को देखना भूल जाए। 
  
हाँ अच्छी लग रही 
नहीं तुम नहीं 
तुम्हारी ये बातें 
जो किसी के सामने ज़ाहिर हों 
तो उसे झकझोर के रख दे।
मैंने कहा था न 
झूठ न बोलूँगा . . .
 
अच्छी लग रही . . .
नहीं तुम नहीं 
तुम्हारी ये हँसी 
जो किसी के ग़म की सियाही से 
उसकी हँसी लिखवा दे। 
अरे . . . पूछ क्यों रही हो?
अच्छी तो लग रही ..
 
तुम नहीं बाबा 
तुम्हारी ये अदाएँ 
जिस से मटक कर तुमने 
ये सवाल पूछा . . .
पहले भी बोला था,
फिर से बोल रहा . . . 
 
अच्छी लग रही 
तुम नहीं, बोला ना!
तुम्हारी ये सलवार कमीज़,
जिसे पहन कर तुमने 
उसकी खूबसूरती बढ़ाई है ..
आख़री बार बोल रहा, 
अच्छी लग रही .. 
 
पर इस बार, थोड़ा सच 
बोल ही देता हूँ . . .
कि कहते हैं 
लड़कियाँ तो बोहोत देखीं 
पर हुस्न तुमसा नहीं देखा,
मर गया पहली बार में 
जब नज़र का जाल तुमने फेंका। 
 
मोहतरमा!
क़ायल हो गया मैं,
आपकी हर एक चीज़ का,
पर . . .
आपने ही कभी 
पलट कर नहीं देखा . . .
 

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