जीवन संध्या की बेला है
डॉ. सुनील शर्मादिन इक इक करके उड़ चले
हाथों में बची कुछ यादें ही
आँखों में धुंधलके छाने लगे
दिल से उठीं बस फ़रियादें ही
तनहाई की दम घोंटू फ़िज़ा
क्या गुज़रा जिसकी पाई सज़ा
महफ़िलें हमारे गिर्द थीं जो
अब उनके हैं बस वादे ही
जीवन में न थी रंगों की कमी
रस भी थे और रंगायन भी
कुछ ऐसा पटाक्षेप हुआ
भूले हम थे शहज़ादे भी
जीवन संध्या की बेला है
कब उठ कर चलना पड़ जाए
कुछ साज सामान ले जाना नहीं
चल देंगे यूँ ही सादे ही