घर में पैर रखते ही पत्नी ने तपाक से पूछा, “इस बार सासू माँ ने आपको फोन करके राखी पहुँचाने को नहीं कहा?” उसने तो सामान्य ढंग से यह बात कही थी; पर न जाने क्यों मुझे उसकी बात गहरे तक चुभ गई। 

“क्यों भई! तुम्हें और कोई काम नहीं है। जब देखों तब ताने मारती रहती हो, फटे में टाँग अड़ाती रहती हो। दिन भर घर में खाली बैठे-बैठे ख़ुराफ़ात ही सूझती रहती है।”

पत्नी का मुँह लटक गया। उसे अच्छी ख़ासी खरी-खोटी सुना कर मैं सड़क पर निकल आया। इच्छा ही नहीं हुई कि मैं वहाँ कुछ देर ठहरूँ। इसलिए नहीं कि मुझे पत्नी पर अपार क्रोध आ रहा था; बल्कि इसलिए कि उसने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया था। मैं डर गया था कि कहीं वह मेरे मन के चोर को पकड़ न ले। 

सड़क पर इधर-उधर सवारियाँ अपनी गति से दौड़ लगा रहीं थी। किसी को भी एक क्षण रुकने की फ़ुर्सत नहीं थी। शायद वे भी डर रहीं थी कि रुक गए तो सृष्टि की गति ही न थम जाये। हाँ सही भी तो है, एक गाड़ी रुकी नहीं कि पीछे हज़ारों गाड़ियाँ रुक जायेंगी और जाम लग जायेगा। यह जाम भी कम समस्या नहीं है लग जाये तो घंटों फ़ुरसत। चाहें कोई भी हो, कितना भी ज़रूरतमंद हो, फँस गया तो निकलना मुश्किल। पर हलचल तो मेरे मन में मची है; बाहर से बड़ी हलचल। विचार कितनी तेज़ी से आ रहे हैं और जा रहेे हैं, न रुकते हैं न ठहरते हैं। जैसे उन्हें भी डर है कि कहीं एक पल भी ठहरे तो ज़िन्दगी भर के लिए जाम न लग जाए और मेरा मन उस जाम के झाम में न फँस कर रह जाए। सच ही तो पत्नी ने कुछ ग़लत तो नहीं पूछा था। इतने सालों में ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि माँ ने फोन करके न कहा हो कि मामा के यहाँ राखी और मिठाई पहुँचा देना। पर इस साल माँ ने फोन नहीं किया। वाद-विवाद किस घर में नहीं होता और मुझसे तो माँ से कोई विवाद भी नहीं हुआ। ये भी तो हो सकता है कि उसका मन नहीं हो मामा के यहाँ राखी भेजने का; मैं अपने मन को समझाने लगा। पर नहीं ऐसा नहीं हो सकता वह सब कुछ भूल सकती है पर मामा को राखी भेजना नहीं भूल सकती; तब??

अचानक मेरा ध्यान पत्नी की बात पर आ गया। वह भी जैसे-जैसे राखी नज़दीक आ रहा था इन्तज़ार कर रही थी कि माँ का फोन राखी पहुँचाने के लिए ज़रूर आयेगा। उसका रोज़ का यही काम था; जब मैं शाम को घर पहुँचता तो एक ही सवाल रहता, माँ का फोन आया क्या? क्यूँ? मैं नहीं समझ पा रहा कि वह मेरे खोखलेपन को भरना चाह रही थी या उसे उजागर करना चाह रही थी? या मेरे मन के चोर और कमज़ोरी को उकेरना चाह रही थी या मुझे रिश्तों के बदलाव से अवगत कराना चाह रही थी। पर मैं जानता हूँ उसकी ऐसी कोई मंशा नहीं थी, वह तो बस उस एक अनिवार्य नियम की याद दिला रही थी जिसका पालन इतने वर्षों से मैं लगातार करता चला आ रहा था। चाहे मैं मामा की बेरुख़ी पर ख़ुश रहूँ या नाराज़ पर मैं माँ की बात टाल नहीं पाता और वहाँ ज़रूर जाता। रोज़ तो उसकी बातों ने मुझे इतना नहीं झिंझोड़ा पर आज! शायद आज इन्तज़ार का आख़िरी दिन था इसलिए। पर कल भी तो है माँ कल भी तो फोन कर सकती है। राखी भी तो कल ही है और कितनी दूर है मामा का घर। शहर में इतनी दूरी को दूरी कहाँ कहते हैं? भले ही मन में कितनी भी दूरियाँ हों। पर अगर नहीं किया तो ऽ ऽ ऽ! इस ’तो’ में कितना कुछ आकर अटक गया। नहीं-नहीं रुकना नहीं है। रुके नहीं कि जाम लग जायेगा, विचारों का जाम। फिर तो इस जाम से निकलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जायेगा। 

जब से शादी हुई है मैंने महसूस किया माँ की दृष्टि मेरी ओर से कुछ बदल सी गई है, या वह मेरी तरफ़ से लापरवाह हो गई है, या उन्हें ये लगता है कि मेरी देखभाल करने वाला कोई आ गया है, इसलिए वो मेरी तरफ़ उतना ध्यान नहीं देती जितना पहले देती थीं। पर क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं ही बदल गया हूँ; पत्नी का पक्ष लेने लगा हूँ। मैं स्वयं को टटोलने लगा और बीती बातें मेरे मानस पटल पर उभरने लगी एक के बाद एक किसी फ़िल्म की तरह। अभी उसी दिन की ही तो बात है मुण्डन में जाना था। माँ ने मुझसे कहा तो मैं पत्नी के साथ जाने को तैयार हुआ। माँ ने पत्नी के लिए मना कर दिया, बस मैं भी नहीं गया। माँ को दुःख हुआ होगा मैंने पत्नी की साइड ली। पर जाने पर सब पूछते अकेले क्यों आये हो? भाभी को क्यों नहीं लाये? सबको क्या जबाब देता, माँ ने नहीं आने दिया! पर उन सब बातों को उभाड़ने से क्या फ़ायदा, ज़िन्दगी तब भी चल ही रही थी, बात इतनी तो नहीं बिगड़ी थी। क्या सचमुच बात बिगड़ गई है...। 

एक झटका सा लगा कोई गाड़ी मेरे बगल से सर्रर्र से निकल गई। यह मैं क्या सोचने लगा- माँ भाई के साथ ही तो है, उसे शायद माँ की ज़रूरत मुझसे ज़्यादा है, या फिर माँ को उसकी ज़्यादा ज़रूरत है। यह ज़रूरत शब्द भी न उलझा के रख देता है। हाँ ऽ ऽ भाई की नौकरी है, वह कमाता है, ज़रूरतें पूरी कर सकता है। मैं तो किसी की ज़रूरत भी पूरी नहीं कर सकता। अनायास एक कुंठा मन में भरने लगा। प्राइवेट नौकरी की कुंठा, या ज़रूरतें पूरी न कर पाने की कुंठा, या व्यवहारों में बदलाव की कुंठा कह नहीं सकता पर मन संकुचित होने लगा। प्राइवेट नौकरी में सुबह से शाम तक खटो फिर भी पेट भर खाने को नहीं हो पाता; बच्चे हों तो भीख माँगने जैसी स्थिति हो जाती है। भीख तो भीख है। चाहे सड़क पर खड़े होकर माँगो या घर में किसी से। पर माँ मेरी तरफ़ से लापरवाह हो गई है। वह खुलकर मुझसे कुछ नहीं कहती पर जब-तब पत्नी से कहती रहती है। पत्नी कभी पलट कर जबाब दे देती, कभी सुनकर चुप रह जाती। वह मुझसे माँ की बातों की शिकायत नहीं करती जैसा कि आमतौर पर घरों में होता है। न कभी माँ की बातों को लेकर झगड़ती। हाँ, कुछ दिन बीत जाने पर ज़रूर बताती, माँ ने क्या कहा। मुझसे न कहे तो किससे कहे उसका अपना कोई ऐसा है भी तो नहीं।

कभी-कभी कहती, “देखो जी माँ का विचार है घर बेचने का, ठीक भी है। उन लोगों को यहाँ रहना ही नहीं है; बाहर ही बाहर रहना है। इतने बड़े घर में हम ही तो दो जने रहते हैं। पर उस पैसे में से तुम एक फूटी कौड़ी भी मत लेना। सब अपने भाई बहनों को दे देना। आख़िर सबकुछ सारे ख़र्चे भैया ही ने तो उठाये हैं।” मैं उसकी उटपटांग बातें सुन कर चुप लगा जाता। उसे क्या वह तो दूसरे घर से आयी है, उसे तो मेरा घर, मेरी माँ, मेरे भाई पराये ही लगेंगे। पर यह तो मेरा घर है, मैं इसके विषय में पराया होकर कैसे सोच सकता था। इस बार तो माँ ने उसे अल्टीमेटम ही दे दिया था कि आधे घर में मैं ताला बन्द कर दूँगी और उसने सहजता से पूरा घर ही माँ को सौंप दिया। जैसा कि अक्सर घरों में होता है कि इस बात पर मैं माँ से प्रतिप्रश्न करता या अपने हिस्से की बात करता, पर ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं कि मैं पत्नी की बातें सुन कर माँ से प्रति प्रश्न करूँ। मैं इतिहास खंगालने लगा जब ऐसा कोई पल आया हो मैंने माँ से पत्नी की बातों की सच्चाई जाननी चाही हो। और अब मैं कैसे पूछ सकता था माँ से कि उसने ऐसा क्यों कहा? पत्नी को खटका तो ज़रूर लगा होगा, तब मैंने नहीं सोचा था। पर आज मैं महसूस कर सकता हूँ उसे कितना दुःख हुआ होगा; जबकि उसके इस छोटे से वाक्य ने मुझे इस क़दर झकझोर दिया। उसने माँ को फोन करना, उनसे बात करना एक अर्से तक छोड़ दिया; पर ऐसा नहीं कि उसे उनकी फ़िकर नहीं थी वह समय बे समय मुझसे ज़बरदस्ती फोन करने को कहती पर मैं नहीं कर पाता। शायद घर वाली बात मुझे भी अन्दर तक तोड़ गई थी। मैं कितनी देर तक सड़क पर निरुद्देश्य इधर-उधर भटकता रहा; अब लगता है घर जाना चाहिए। सड़क की चहल-पहल कम हो गई है और शायद मेरे मन का भी। 

घर का माहौल शान्त था। पत्नी ने बिना कुछ पूछे भोजन निकाल दिया और मै एक-एक निवाला गटकने लगा पर अभी भी मैं उससे आँखें नहीं मिला पा रहा था। वह भी चुपचाप रोटी निगलती रही। घर में सन्नाटा छाया था, सूई भी गिरे तो आवाज़ हो। कितना अजीब है न जब वे बोलती हैं तो हमें बुरा लगता है; और जब वे चुप हो जाती हैं तो सारी कायनात को बुरा लगता है। मैं चुपक-चुपके उसके चेहरे की ओर देख लेता हूँ पर उसपर मुझे कोई भाव नहीं दिखाई देता। जाने वह क्या सोच रही थी या उसके मन में भी विचारों का जाम लग गया था जिससे निकलने का वह अथक प्रयत्न कर रही थी। उसने एक उसास लिया। रात गहराती जा रही थी और सन्नाटा भारी लगने लगा था। मुझे भी लगने लगा था जैसे एक बड़ा जाम लगने वाला है; नहीं-नहीं मैं घबरा उठा। मैंने देखा पत्नी धीरे शब्दों में कह रही थी, जाने दो माँ ने फोन नहीं किया तो तुम्हीं फोन करके पूछ लो और चले जाओ मामा के यहाँ। मैं केवल हूँ कह कर रह जाता हूँ। जैसे इतने से ही सन्नाटा टूट गया हो और विचार धीरे-धीरे अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करने लगे हों।

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