हिंदी साहित्य में निबंध का वर्तमान स्वरूप एवं प्रासंगिकता : 1980 से अब तक

12-10-2017

हिंदी साहित्य में निबंध का वर्तमान स्वरूप एवं प्रासंगिकता : 1980 से अब तक

डॉ. संजय प्रसाद श्रीवास्तव

हिंदी साहित्य में ‘निबंध’ विधा वास्तव में लैटिन में ‘एर्ग्नायर’ फ्रेंच में ‘एसाई’ और अंग्रेज़ी के ‘एस्से’ (Essay) का पर्यायवाची है। मूलतः ‘निबंध’ का अर्थ बाँधना है तथा इसके पर्यायवाची के रूप में ‘लेख’, ‘संदर्भ’, ‘रचना’, ‘प्रस्ताव’ आदि का उल्लेख किया जाता है। मानक हिंदी कोश के अनुसार—“वह विचारपूर्ण विवरणात्मक और विस्तृत लेख, जिसमें किसी विषय के सब अंगों का मौलिक और स्वतंत्र रूप से विवेचन किया गया हो।” आधुनिक निबंध के जन्मदाता मौनतेन महोदय का कथन है—‘निबंध विचारों, उद्धरणों और कथाओं का मिश्रण है।’ जानसन महोदय ने निबंध की परिभाषा देते हुए उसे मस्तिष्क का स्वच्छंद और अव्यवस्थित प्रवाह कहा था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार निबंध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात् व्यक्तित्व विशेषता हो। भावों की विचित्रता दिखाने के लिए ऐसी अर्थ योजना ना की जाए जो उनकी अनुभूति की प्रकृति या लोक-सामान्य स्वरूप से कोई संबंध ही न रखे अथवा भाषा से सरकस वालों की सी कसरतें या हठयोगियों के से आसन न कराये जायें, जिनका लक्ष्य तमाशा दिखाने के सिवाय और कुछ न हो। (हिंदी साहित्य का इतिहास)

बाबू गुलाबराय ने निबंध की परिभाषा देते हुए कहा कि—“निबंध उस गद्य रचना को कहते हैं जिसमें एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय का वर्णन या प्रतिपादन एक विशेष निजीपन, स्वच्छंदता, सौष्ठव और सजीवता तथा आवश्यक संगति और संबद्धता के साथ किया गया हो।” (काव्य के रूप)

यद्यपि निबंध भाव प्रधान भी होते है, पर साहित्य की सभी विधाओं में निबंध सर्वाधिक बुद्धि प्रधान या विचारोत्तेजक रचना होती है। पाठ की बुद्धि उत्तेजित करने का निबंध ही सबसे महत्वपूर्ण साधन है। आज ‘निबंध’ गद्य साहित्य की एक विधा के रूप में स्वीकृत है, किंतु संस्कृत में पद्यमयी रचना भी निबंध के अंतर्गत आ जाती थी। वर्तमान में हिंदी निबंध साहित्य संस्कृत के उस प्राचीन परंपरा से भिन्न है। निबंध रचना की दृष्टि से उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्ध महत्वपूर्ण है। अतः निबंध भी हिंदी साहित्य का आधुनिक रूप है।

साहित्य की अन्य विधाओं की भाँति निबंध जीवन की व्याख्या भी करता है। निबंध में विचार तत्व अधिक रहता है। निबंध में अभिव्यक्ति की स्पष्टता और शुद्धता तथा शब्दावली की व्यापकता होती है। मूलतः निबंधों को चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है—विचारात्मक, आलोचनात्मक, भावात्मक और वर्णनात्मक।

हिंदी साहित्य में निबंध का समुचित सूत्रपात भारतेन्दु के कालखंड में हुआ। तत्कालीन सामाजिक तथा राजनीतिक चेतना ने इस युग में निबंध साहित्य को चार काल खंडों में विभाजित किया—(1) भारतेन्दु युग (2) द्विवेदी युग (3) शुक्ल युग (4) शुक्लोत्तर युग। सन् 1980 से अब तक यहाँ हम लिखे गए निबंधों की चर्चा करेंगे।

अज्ञेय के बाद विद्यानिवास मिश्र निबंधकार के रूप में सबसे सक्रिय रहे। उनका पहला निबंध संग्रह ‘छितवन की छांह’ 1953 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद उनके निरंतर निबंध संग्रह प्रकाशित हुआ है। उनके प्रकाशित निबंध संग्रह—‘अस्मिता के लिए’ (1981), ‘निज मुख मुकुर’ (1981), ‘भ्रमरानंद के पत्र’ (1981), ‘तमाल के झरोखे से’ (1981), ‘संचारिणी’ (1982), ‘अंगद की नियति’ (1984), ‘गांव का मन’ (1985), ‘नैरंतर्य और चुनौती’ (1988), ‘भावपुरुष श्रीकृष्ण’ (1990), ‘जीवन अलभ्य है जीवन सौभाग्य है’ (1991), ‘देश, धर्म और साहित्य’(1992), ‘नदी, नारी और संस्कृति’ (1993), ‘फागुन दुई रे दिना’ (1994), ‘बूंद मिले सागर में’ (1994), ‘सिरीष की याद आयी’ (1995), ‘गिर रहा है आज पानी’ (2001), ‘गांधी का करुण रस’ (2002) आदि। विद्यानिवास मिश्र के निबंधों में वस्तु और शिल्प एक विशिष्ट स्थान रखती है। उनके निबंधों में सहृदयता, भारतीय संस्कृति छटा देखने को मिलती है। साथ ही ग्रामांचल और गाँव की स्पष्ट दृश्य का चित्रण मिलता है। विद्यानिवास के निबंध संग्रह जैसे— ‘तुम चंदन हम पानी’ तथा ‘आंगन का पंछी’ और ‘बनजारा मन’ में भारतीय लोक जीवन का संबंध भारतीय साहित्य व संस्कृति से जुड़ा हुआ है। विद्यानिवास मिश्र को ललित निबंधकार के रूप में भी जाना जाता है।

धर्मवीर भारती भी इस पीढ़ी में सक्रिय निबंधकार रहे है। उनका निबंध-संग्रह, ‘कुछ चेहरे कुछ चिंतन’ (1995) और ‘शब्दिता’ (1997) में प्रकाशित हुई। उनके निबंधों में चित्रात्मकता और सांक्तिकता विद्यमान है। शिवप्रसाद सिंह मूलतः कथाकार के रूप में अधिक प्रसिद्ध हुए लेकिन हिंदी साहित्य में उन्हें निबंधकार के रूप में भी जाना जाता है। उनके निबंध संग्रह- ‘मानसी गंगा’ (1986), ‘किस-किस को नमन करूँ’ (1987), ‘क्या कहूँ कुछ कहा न जाये’ (1995) और ‘खालिस मौज में’ (1998) प्रकाशित हुए। वे अपने निबंधों में मन की मौज के साथ विचरण करते है। वे अपने निबंधों में मानव-मूल्यों के बारे में चिंतन करते है।

रमेश चंद्र शाह के निबंध संग्रह- ‘आडू का पेड़’ (1984), ‘शब्द निरंतर’ (1987), ‘भूलने के विरुद्ध’ (1990) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। समकालीन जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त अराजकता और मूल्यहीनता उनके निबंध की विषयवस्तु रही है। इस कालखंड के अन्य निबंधकार कुबेरनाथ राय रहे है। कुबेरनाथ राय को एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है। समकालीन कालखंड में ‘मन पवन की नौका’ (1982), ‘किरात नदी में चंद्रमधु’ (1983), ‘दृष्टि अभिसार’ (1984), ‘जेता का बृहत्साम’ (1986), ‘मराल’ (1993), ‘उत्तरकुरू’ (1994), ‘वाणी का क्षीरसागर’ (1998), ‘अंधकार में अग्निशिखा’ (1998), ‘आगम की नांव’ (2005) निबंध संग्रह प्रकाशित हुए। उनके निधन के बाद रामकथा से संबंधित निबंध संग्रह ‘रामायण महातीर्थम्’ (2002) में प्रकाशित हुआ। उनके निबंधों की मूल विषयवस्तु भारतीय साहित्य की क्लासिकल परंपरा, आधुनिकता बोध, देशी लोकसंस्कृति से सराबोर है। अतः इस कारण निबंध विधा में एक विशिष्ट निबंधकार के रूप में जाने जाते है।

रामअवध शास्त्री भी एक सशक्त निबंधकार के रूप में जाने जाते है। उनके प्रकाशित निबंध :- ‘डायरी के उड़ते पृष्ठ’ (1982), ‘बूझत श्याम कौन तू गोरी’ (1991), ‘कास फूल गये’ (1999) है। उनके निबंधों में प्राचीन और नवीन की अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलती है। उनके निबंधों में भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य परंपरा, तीज त्योहार, पर्व आदि मूल विषयवस्तु रही है। वे अपनी निबंधों में बड़ी शिष्टता के साथ विषय को रखते है।

कवि केदारनाथ सिंह की ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ (2003) प्रकाशित निबंध ललित निबंधों की श्रेणी में रखी जाती है। इनके निबंध विषयी प्रधान हो गए। लेखक के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के कारण यह श्रेष्ठ निबंध बन गया। हिंदी में हास्य-व्यंग्य लिखने वाले लेखकों ने भी निबंध लिखे हैं। हरिशंकर परसाई ऐसे हिंदी के निबंधकार है, जिन्होंने व्यंग्यात्मक शैली में उच्चकोटि के निबंधों की रचना की। हरिशंकर परसाई के ‘तुलसीदास चंदन घिसें’ (1986) और ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ (2003) व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया निबंध संग्रह है। अपने व्यंग्यात्मक शैली के माध्यम से जीवन समाज और राजनीति की विभिन्न विकृतियों, विद्रूपताओं को उजागर करते हुए आधुनिक एवं विसंगतियों पर तीखा व्यंग्य किया है। इन्हीं हास्य-व्यंग्य के श्रेणी अन्य रचनाकारों ने निबंध लिखा जैसे—रवींद्रनाथ त्यागी के ‘पराजित पीढ़ी के नाम’ (1988; मनोहरश्याम जोशी (‘नेताजी कहिन’ : 1982); श्रीलाल शुक्ल (‘कुछ ज़मीन पर कुछ हवा में’: 1990) मनोज सोनकर (‘डुग्गी’ : 1996), नरेन्द्र कोहली (‘मेरे मुहल्ले के फूल’ : 2000, ‘सबसे बड़ा सत्य : 2003’), हरिश नवल (‘मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ : 2004) आदि का उल्लेखनीय निबंध है। इधर डॉ. निर्मला जैन द्वारा लिखित ‘निबंधों की दुनिया’ नाम से पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी, निराला, बालमुकुन्द गुप्त, डॉ. रामविलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैनेन्द्र कुमार, बालकृष्ण भट्ट, महादेवी वर्मा पर आधारित प्रकाशित हुई है।

पद्य कवियों का निकष है, निबंध हिंदी गद्य का निकष है। आधुनिक हिंदी का निर्माण भारतेंदु के समय निबंध से ही शुरू हुआ और आज भी इसकी प्रासंगिकता हिंदी साहित्य में निहित है। हिंदी गद्य के आरंभ काल से ही व्यक्तिव्यंजक निबंध लिखे जाते रहे हैं। उस समय से आज तक निबंध विधा में नए शब्दों को गढ़ने, पुराने शब्दों को नया अर्थ देने तथा समसामयिक चेतना को मुखरित करने का प्रयास हो रहा है। हिंदी के महत्वपूर्ण ललित निबंधकारों ने अपने निबंध में गाँव की मिट्टी के महत्व को स्थान दिया है। जैसे कुम्हार के मिट्टी का बर्तन या खिलौना बनाना, पकने से पहले उन्हें चिकनी मिट्टी का लेप देता है, उसी प्रकार से हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, कृष्ण बिहारी मिश्र, शिवप्रसाद सिंह आदि अपने ललित निबंधों में गाँव के सीधे गढ़ा हुआ मुहावरे का निबंध में प्रयोग करते हैं।

हिंदी निबंध-साहित्य में उत्तरोत्तर प्रगति हो रही है। हमारे निबंधों का क्षेत्र कला और संस्कृति तक सीमित नहीं रही बल्कि उनमें जीवन के व्यावहारिक पक्षों जैसे, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि संबंधित समस्याओं का विवेचन और विश्लेषण हो रहा है। सन् 1980 के बाद अनेक निबंधकार उभर कर सामने आये हैं। लेकिन इस विधा पर अनंत संभावनाएँ निहित है। निबंधकार की अभिव्यक्ति ऐसी होनी चाहिए कि पाठक निबंध को पढ़ते ही रसमग्न के साथ विचारमग्न भी हो जाए।

भारतेन्दु काल से लेकर वर्तमान समय तक हिंदी निबंध साहित्य ने दीर्घकालीन यात्रा में अनेकों रूप-रंग को आत्मसात् किया। शुक्लोत्तर अर्थात् वर्तमान काल का निबंध साहित्य विविधमुखी है। इसमें विचारात्मक, समीक्षात्मक, साहित्यिक वर्णनात्मक, विवरणात्मक, ललितात्मक, हास्य-व्यंग्यात्मक आदि अनेक प्रकार के निबंधों का विविध शैलियों में सृजन किया जा रहा है। अतः कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य में निबंध लेखन का भविष्य चमकदार और उज्ज्वल है।

डॉ. संजय प्रसाद श्रीवास्तव
जूनियर रिसोर्स पर्सन/लेक्चरर ग्रेड (हिंदी)
राष्ट्रीय परीक्षण सेवा-भारत
भारतीय भाषा संस्थान, मानसगंगोत्री,
मैसूर-570006, कर्नाटक

संदर्भ ग्रंथ सूची

(क) हिंदी साहित्य का इतिहास, संपादक-डॉ. नगेन्द्र, डॉ. हरदयाल, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा, संस्करण-2016
(ख) साहित्यिक निबंध, गणपतिचन्द्र गुप्त, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2008
(ग) हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2011
(घ) साहित्य के सामान्य पक्ष संप्रत्ययात्मक व्याख्या संपादक-एम.बालकुमार, भारतीय भाषा संस्थान, मैसूरु, संस्करण-2015

 

1 टिप्पणियाँ

  • 12 Sep, 2023 07:19 PM

    Hindi sahitya ka nibandh..ya ruprekha

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