हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में प्रयुक्त इतिहास दृष्टियों की सीमा

15-04-2019

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में प्रयुक्त इतिहास दृष्टियों की सीमा

कल्पना सिंह राठौर

सारांश - इतिहास अतीत की पुनर्व्याख्या है, जो सत्य और तर्कों पर आधारित होती है। अतीत की इस पुनर्व्याख्या द्वारा ही मानव अपनी ग़लतियों से सबक लेता है और उपलब्धियों से प्रेरणा। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का प्रथम प्रयास सन 1839 में गार्सा-द-तासी ने किया था। इस प्रथम प्रयास के बाद हिंदी में ऐतिहासिक ग्रंथों की एक लम्बी परम्परा मिलती है। इस परम्परा का हर इतिहास ग्रन्थ किसी न किसी इतिहास दृष्टि को केंद्र में रखकर लिखा गया है, लेकिन हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन परिस्थिति के अनुसार इतिहास दृष्टि की माँग करता है, न कि इतिहास दृष्टि के अनुसार अपने काट-छाँट की। किसी भी एक दृष्टि का आग्रह साहित्य के इतिहास की तटस्थता को भंग कर देता है। हिंदी साहित्य का इतिहास लिखे जाने के लिए इतिहास दृष्टि की ज़रूरत होनी चाहिए न कि इतिहास दृष्टि के हिसाब से साहित्य का इतिहास लिखा जाना चाहिए। किसी भी एक दृष्टि पर केन्द्रित होकर लिखा गया साहित्य का इतिहास, साहित्य को एक चौखटे में जड़ दिए जाने जैसा होता है। ज़रूरत इस बात की है कि हम साहित्य की विविधता के अनुसार इतिहास दृष्टियों का चयन करें न कि इतिहास दृष्टि के अनुसार साहित्य से बिंदु छाँटें। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में किसी भी एक इतिहास दृष्टि का चयन करने के बजाय इन दृष्टियों में से उन बिन्दुओं का चयन किया जाना चाहिए जो हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में प्रासंगिक साबित हों। कोई भी इतिहास दृष्टि इतिहास लेखन का साधन होनी चाहिए, साध्य नहीं।

मूल शब्द – साहित्य, इतिहास दृष्टि, विधेयवाद, मार्क्सवाद, सब-आल्टर्न, परम्परावादी, संरचनावादी, अस्तित्ववादी, नयी समीक्षा, स्त्रीवादी।

साहित्य की उत्पत्ति तब हुई होगी जब मनुष्य ने भाषा गढ़ ली होगी। अन्न की खोज में निकला मनुष्य पाषाण युग से लौह युग और लौह युग से होता हुआ सभ्यता के युग तक पहुँचा होगा। मानव की इस विकास यात्रा को क़लमबद्ध करने की कोशिश से ही साहित्य का जन्म हुआ होगा। साहित्य, मानव समाज के सुख-दुःख, आशा-निराशा, संवेदनाओं और कल्पनाओं की सहज अभिव्यक्ति है। समाज कैसा है और उसको कैसा होना चाहिए अथवा ‘हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी’ इस तरह के तमाम प्रश्नों की व्याख्या और विवेचना करना साहित्य का दायित्व रहा है। इस साहित्य को आगामी पीढ़ियों के लिए सँजोने का काम साहित्य का इतिहास करता है। ई. एच. कार अपनी किताब ‘इतिहास क्या है’ में कहते हैं कि इतिहास कालक्रमानुसार समाज में परिवर्तन के माध्यम से विकास का आलोचनात्मक अध्ययन करता है। 

इतिहास अतीत की पुनर्व्याख्या है, जो सत्य और तर्कों पर आधारित होती है। अतीत की इस पुनर्व्याख्या द्वारा ही मानव अपनी ग़लतियों से सबक लेता है और उपलब्धियों से प्रेरणा। इसके उदाहरण स्वरूप हम जयशंकर प्रसाद का साहित्य देख सकते हैं, वहाँ इतिहास, वर्तमान को प्रेरणा प्रदान करने का काम करता है। इतिहास एक ऐसा अनुभव भी होता है जो किसी के लिए ‘गया सभी कुछ गया मधुरतम’ की तल्ख़ी भरा होता है, तो किसी के लिए ‘जागो फिर एक बार जैसा सम्भावनाप्रद’। इस तरह से साहित्य का इतिहास लेखन एक महतवपूर्ण विधा है। 

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का प्रथम प्रयास सन 1839 में गार्सा-द-तासी ने किया था। इस प्रथम प्रयास के बाद हिंदी में ऐतिहासिक ग्रंथों की एक लम्बी परम्परा मिलती है। इस परम्परा का हर इतिहास ग्रन्थ किसी न किसी इतिहास दृष्टि को केंद्र में रखकर लिखा गया है। यही कारण है कि अब तक लिखा गया कोई भी इतिहास ग्रन्थ हिंदी साहित्य का मुक़म्मल इतिहास साबित नहीं होता है। इसका कारण यह है कि हमारी इतिहास दृष्टियाँ यूरोप से आयातित हैं। इन तमाम दृष्टियों में से कोई भी एक दृष्टि हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन के लिए पर्याप्त साबित नहीं होती है। 

भारत विविधताओं का देश है और इसका साहित्य ‘विरुद्धों का सामंजस्य’। यहाँ हर कालखंड में परस्पर मतभेद रखने वाली प्रवृत्तियों की भरमार है। यदि बात हिंदी साहित्य के आरम्भ यानी कि आदिकाल से ही करें तो वहाँ भक्ति भी है, रहस्य भी, शृंगार भी है और वीरता के अतिरंजित वर्णन भी, साथ ही खुसरो के साहित्य की अनूठी धारा भी है। यहाँ प्रश्न उठता है कि ऐसी कौन सी एक इतिहास दृष्टि है जिसके द्वारा इन चार अलग-अलग दिशाओं को समेटा जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की (कार्य-कारण सम्बन्ध पर आधारित) विधेयवादी दृष्टि वीर-काव्य को आधार बनाकर इस युग का मूल्यांकन करती है और नतीजतन धार्मिक साहित्य (सिद्ध, नाथ, जैन) उनके कैनन से बाहर हो जाता है। 

दरअसल, हिंदी साहित्य का इतिहास लिखे जाने के लिए इतिहास दृष्टि की ज़रूरत होनी चाहिए न कि इतिहास दृष्टि के हिसाब से साहित्य का इतिहास लिखा जाना चाहिए। किसी भी एक दृष्टि पर केन्द्रित होकर लिखा गया साहित्य का इतिहास, साहित्य को एक चौखटे में जड़ दिए जाने जैसा होता है। हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन परिस्थित्यानुसार इतिहास दृष्टि की माँग करता है, न कि इतिहास दृष्टि के अनुसार अपने काट-छाँट की। किसी भी एक दृष्टि का आग्रह साहित्य के इतिहास की तटस्थता को भंग कर देता है। निश्चित रूप से ऐसा इतिहास किसी एक प्रवृत्ति का समर्थक बनेगा और दूसरी प्रवृत्ति के प्रति उदासीन। जैसा कि हम आचार्य रामचंद्र शुक्ल की विधेयवादी दृष्टि में देखते हैं। आचार्य शुक्ल भक्तिकाल में तुलसीदास का समर्थन करते हैं और कबीरदास को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यही नहीं वे सूरदास और कबीरदास का सारा मूल्यांकन तुलसीदास के समानान्तर ही करते हैं। गोया कि तुलसीदास से अलग होकर अन्य किसी कवि का मूल्यांकन संभव ही न हो। किसी भी एक दृष्टि का अत्याग्रह शुक्ल जी के इतिहास में बख़ूबी दिखाई देता है, इसी कारण वे छायावाद का भी उचित मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं।

आज का समय यह माँग करता है कि साहित्य के इतिहास लेखन में परिस्थति के अनुसार इतिहास दृष्टि अपनाने की छूट होनी चाहिए। इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण आचार्य हजारी प्रसाद द्वेवेदी का इतिहास लेखन है। जो किसी भी तरह की दृष्टि विशेष के आग्रह से मुक्त है और इसीलिए एक मुक़म्मल इतिहास के क़रीब है। द्विवेदी जी स्वयं परम्परावादी होते हुए भी कबीर के साहित्य के सामाजिक पक्ष की व्याख्या सबऑल्टर्न दृष्टि से करते हैं। इसके साथ ही वे कबीर के रहस्यवादी अथवा हठयोग वाले पक्ष की व्याख्या के सूत्र बौद्ध दर्शन में तलाशते हैं। उनके यहाँ आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसा विधेयवाद का अत्याग्रह नहीं है कि, जो कार्य-कारण संबधी व्याख्या में फ़िट न बैठे उसे या तो ख़ारिज कर दो या फिर फुटकल खाते में डाल दो। 

साहित्य के इतिहास लेखन की तमाम दृष्टियों में से ऐसी कौन सी इतिहास दृष्टि है जो हिंदी साहित्य के रीतिकाल की सही व्याख्या कर सकती है। क्या विधेयवादी, मार्क्सवादी, आधुनिकतावादी, संरचनावादी, स्त्रीवादी, सबऑल्टर्न आदि किसी भी इतिहास दृष्टि के द्वारा दो सौ वर्ष के इस काल का इतिहास लेखन संभव है? मार्क्सवाद का वर्ग-संघर्ष क्या यहाँ लागू हो सकेगा? हाँ मार्क्सवादी सिद्धान्त की बेस और सुपरस्ट्रक्चर की अवधारणा यहाँ ज़रूर लागू होती है। इस काल में आधार, अधिरचना का निर्धारक है। हालाँकि मार्क्सवादियों में आधार और अधिरचना को लेकर एक बड़ा विवाद है, लेकिन फिर भी जदानोव, स्टॉलिन, प्लेखानोव जैसे रूढ़ मार्क्सवादी विचारकों की अवधारणा यहाँ चरितार्थ होती है। रीतिकालीन सामंती वर्ग, साहित्य और कला का निर्धारण अपने अनुकूल करता है। रीतिकाल का अध्ययन करने के लिए संस्कृत काव्य परम्परा की समझ होना एक अनिवार्य शर्त है। साहित्य के इतने बड़े हिस्से को सिर्फ़ ‘अन्धकार काल’ कहकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। 

हिंदी साहित्य का आधुनिक काल ऐसा समय है जहाँ हर पन्द्रह से बीस सालों में साहित्यिक प्रवृत्ति बदल जाती है। ऐसे समय में वह कौन सी एक उपयुक्त दृष्टि होगी जो सभी काल खण्डों का एक साथ मूल्यांकन कर सकने में सक्षम हो। डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी दृष्टि अपनाते हुए आधुनिक काल का मूल्यांकन करते समय तुलसीदास, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, प्रेमचंद, भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्वेवेदी, रामचंद्र शुक्ल को अपना नायक के रूप में चुनते हैं। लेकिन क्या वे इन लेखकों के अतिरिक्त अन्य या इनसे भिन्न विचार रखने वाले लेखकों के साथ न्याय कर पाते हैं? डॉ. रामविलास शर्मा तुलसी और कबीर के विवाद में ही कबीर जैसे सबऑल्टर्न रचनाकार का सही मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं। इसके साथ ही अपनी रूढ़ मार्क्सवादी अवधारणा के करण ही मुक्तिबोध जैसे मार्क्सवादी कवि भी उनको मानसिक रोगी नज़र आते हैं। इसको मार्क्सवादी दृष्टि की एक सीमा ही कहा जायेगा। इसी क्रम में अगले मार्क्सवादी आलोचक डॉ. नामवर सिंह हैं। डॉ. नामवर सिंह, अपनी किताब ‘कविता के नए प्रतिमान’ में मुक्तिबोध को तो स्थापित करते हैं लेकिन इसी किताब में वे अज्ञेय जैसे अस्तित्ववादी लेखक की ज़बरदस्त आलोचना करते हैं। यह पूरी किताब मुक्तिबोध की स्थापना और अज्ञेय के विरोध का प्रयास है। यह डॉ. नामवर सिंह की इतिहास दृष्टि की एक सीमा कही जाएगी क्योंकि साहित्य एक सर्जनात्मक विधा है इसीलिए उसका कोई एक प्रतिमान निर्धारित नहीं किया जा सकता है। जब साहित्यकारों के लेखन का प्लाट अलग है, तब एक ही दृष्टि से उन सभी का मूल्यांकन करना कहाँ तक सही होगा। हमारे यहाँ साहित्य ‘चित्तवृत्तियों का प्रतिबिम्ब’ है और यह चित्तवृत्तियाँ जड़ नहीं परिवर्तनकामी हैं। ऐसे में क्या यह ज़रूरी नहीं है कि हम अपनी इतिहास दृष्टि को इतना लचीला रखें कि सर्जक प्रतिभा के अनुकूल उसका मूल्यांकन किया जा सके। 

हिंदी साहित्य विविधताओं का एक समुच्चय है। इस साहित्य को पूरी तरह से न तो संरचनावादियों की अनैतिहासिक दृष्टि से समझा जा सकता है और न ही उत्तर-आधुनिकता की ‘लेखक की मृत्यु की घोषणा’ से। नयी-समीक्षावादी दृष्टि की अनुसार रचना पृष्ठ पर लिखी रचना मात्र है। वे कॉन्टेक्स्ट को नकारते हुए टेक्स्ट की बात करते हैं। नयी समीक्षा नामक इस इतिहास दृष्टि में रचना किसने लिखी, कब लिखी इस बात का कोई महत्व नहीं है। इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि कोई भी रचना अपने समय और समाज का उत्पाद होती है। तुलसीदास को यदि भक्तिकाल से निकाल कर देखा या परखा जायेगा तो उनके साहित्य की अर्थवत्ता ही समाप्त हो जाएगी। साहित्य या कला अपने समय और समाज की गतिविधियों में एक सर्जनात्मक हस्तक्षेप का नाम है। उसे उसके समय से काट कर देखना उसकी विशिष्टता को ख़त्म कर देने जैसा है। कबीर, इसीलिए कबीर हैं क्योंकि वे मध्यकाल में दलित चेतना की बात करते हैं। अन्यथा विमर्शों के इस दौर में कबीर या किसी भी अन्य दलित लेखक में क्या फ़र्क रह जाता है। विद्यापति पर जब तक हम भारतीय दर्शन की परम्परा से विचार करते हैं तभी तक वे हमें मूल्यवान लगते हैं, अन्यथा स्त्रीवादी दृष्टि से विचार करने पर वे सिर्फ अश्लील कवि साबित हो पाएँगे। सुमन राजे स्त्रीवादी दृष्टि से इतिहास लेखन करती हैं, क्या इस दृष्टि से वे विद्यापति, तुलसीदास और कबीरदास को श्रेष्ठ साहित्यकार स्वीकार कर पाएँगी ? 

यहाँ महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास लेखन की ये तमाम दृष्टियाँ पश्चिम में और पश्चिम के लिए विकसित हुई हैं। हमें इन इतिहास दृष्टियों के अन्धानुकरण से बचना चाहिए। इन दृष्टियों के ग्राह्य बिन्दुओं को ही इतिहास लेखन का आधार बनाया जाना चाहिए। हिंदी साहित्य के विविधतापरक साहित्य के इतिहास लेखन में इतिहास दृष्टि विशेष का आग्रह लेकर चलना अन्यायपूर्ण होगा। साहित्य का वर्तमान युग सब-ऑल्टर्न दृष्टि से इतिहास लेखन की माँग कर रहा है। आज ज़रूरत इस बात की है कि हम साहित्य की विविधता के अनुसार इतिहास दृष्टियों का चयन करें न कि इतिहास दृष्टि के अनुसार साहित्य से बिंदु छाँटें। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में किसी भी एक इतिहास दृष्टि का चयन करने के बजाय इन दृष्टियों में से उन बिन्दुओं का चयन किया जाना चाहिए जो हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में प्रासंगिक साबित हों। कोई भी इतिहास दृष्टि इतिहास लेखन का साधन होनी चाहिए, साध्य नहीं। इतिहास लिखा जाना ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है। दृष्टि उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती है जितना इतिहास स्वयं होता है। इतिहास दृष्टि इतिहास लेखन का साधन मात्र होती है इसलिए इस साधन में परिस्थित्यानुसार विभिन्न इतिहास दृष्टियों के ग्राह्य बिन्दुओं को अपनाने की छूट होनी चाहिए। 

कल्पना सिंह राठौर 
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र,
जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय, नईदिल्ली
Email: kalpana24march@gmail.com
Mob: 7905686477

सन्दर्भ:

  1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’, कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण – नवीनतम 
  2. हजारी प्रसाद द्वेवेदी, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल,’ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण – 2006
  3. हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण – 2011, 
  4. श्याम कश्यप, हिंदी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की समस्याएँ, हिंदी माध्यम कार्यान्वन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, प्रथम संस्करण – 1994 
  5. मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और इतिहास दृष्टि, वाणी प्रकाश, नयी दिल्ली, आवृत्ति संस्करण - 2013
  6. डॉ० प्रतापनारायण टंडन, ‘हिन्दी साहित्य का प्रवृत्तिगत इतिहास खण्ड – 1 : पद्य भाग’, विवेक प्रकाशन, अमीनाबाद, लखनऊ, संस्करण – 1968
  7. बच्चन सिंह, ‘हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास’, राधाकृष्ण प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण – 2013                

1 टिप्पणियाँ

  • 14 Nov, 2019 08:42 AM

    मैडम, साहित्यिक रूप से मूल्यवान जानकारी प्रदान कराने के लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ। आपका यह लेख आपके परिपक्व लेखन एवं बुद्धि कौशल का बोध कराता है। बहुत बहुत धन्यवाद।

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