हैलियोफोबिक 

30-06-2008

हैलियोफोबिक 

तरुण भटनागर

(स्वाभाविकता और समझने की सहूलियत के लिए कहानी के अफ़गानी, भारतीय और पाकिस्तानी पात्रों से मिश्रित हिन्दी और यूरोपीय पात्रों से इंग्लिश कहलवायी गई है।)

 

वह उसी कैंप से आता था। वह सुंदर था। बहुत सुंदर। लड़के कहाँ इतने सुंदर होते हैं।

कैंप भयंकर और निर्दयी लोगों की बस्ती था। ग़रीबी और भुखमरी के कारण पागल और लुटेरे बने निर्मम लोग। जहाँ किसी का मरना ख़ुशी लाता था। लोग हत्या और लूट के लिए हमेशा तैयार रहते। इस कैंप को देखकर यक़ीन करना मुश्किल था, कि ये सब लोग अच्छे घरों से थे। शांत और अच्छे घरों वाले लोग, जो छोटी-छोटी इच्छायें पालते हैं और यक़ीन करते हैं, कि वे और उनके माँ, बाप, भाई, बहन.....कभी मरेंगे नहीं। पर यहाँ उनकी औरतों और बच्चों को कुत्तों की भाँति लाठियों से पीटकर मार डाला जाता था और उन्हें इससे ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता था। कुछ लोग आत्महत्या कर लेते, ज़्यादातर नये लोग...पर अधिकतर ऐसा नहीं कर पाते थे।

वो १९८८ की गर्मियाँ थीं। मैं उस दिन पाकिस्तान में पेशावर के पास था।

कैंप में दूर-दूर तक लगे मटमैले, फटे और जोड़कर खड़े किए गये तम्बू, जो धूल भरी गर्म हवा की फुफकार के साथ कँपकँपाते थे और कभी-कभार लाइनों से गिर जाते एक बेतरतीब, मनहूस और निर्मम बस्ती की तरह थे। दूर-दूर तक, जहाँ धुँआ और धूल के कारण दिखना ख़त्म हो जाता था, उससे भी आगे, सूखे, नंगे पथरीले टीलों तक ये तम्बू अस्त-व्यस्त से लगे थे, जैसे शहरों के बाहर कचरा फेंकने की जगह होती है, दूर तक रंगहीन हवा में कँपकँपाता काग़ज़, पॉलीथिन, रद्दी अख़बार, फड़े कपड़े, गत्ता, प्लास्टिक शीट्स, केले के छिलके......मटमैले बदबू मारते घिसे हुए रंग, जिन्हें घिन के साथ फेंक दिया गया हो।

हर तंबू में कुछ लोग हैं। ज़्यादातर अकेले। कुछेक अपनी बीवी बच्चों के साथ। अपने साथ कोई किसी को रखना नहीं चाहता, जब तक कि कोई मजबूरी ना हो। पर कुछ   रिश्तेदारों के साथ हैं। बहुत कम, इक्का दुक्का.....उनके कुछ परिचित जो अब तक लड़-झगड़कर अलग नहीं हुए हैं।

एक से लोग, रूखे बाल, धूप में जलकर लाल-काले हुए गोरे चेहरे, तार-तार होते कपड़े जिनमें से ज़्यादातर गहरे ब्राउन रंग के मोटे लबादे थे, जो पाकिस्तान की सरकार ने बाँटे थे। ज़्यादातर नंगे पैर और कुछ घिसी-पुरानी चमड़े की जूतियाँ, गले या बाँह पर कोई ताबीज़, एक मात्र ऐसी चीज़ जो मरने के बाद उनके साथ क़ब्र तक जाती है, बाक़ी सब लोग नोच लेते हैं पर ताबीज से डर लगता है, सपाट भावहीन चेहरे ना हँसी, ना ख़ुशी, ना पश्चाताप, ना उम्मीद......बस दो पलक झपकाती आँखे .............यंत्रवत।

यहाँ जीवन रगड़े खाने की औक़ात है। कमज़ोर और बीमार ................याने मौत। इसलिए यहाँ बच्चे बहुत कम हैं .............कहीं-कहीं इक्का दुक्का, ज़्यादातर अपनी पर्दानशीं माँ से चिपके हुए......रोते-झींकते।

मुझे बताया गया है, कि ये लोग लगभग ड़ेढ़ लाख हैं।

रोज़ सुबह दस बजे ये सब लोग लाखों की तादात में, पत्थरों वाले टीले के पार जहाँ पेशावर से आने वाली रोड़ गुज़रती है, इकट्ठा हो जाते हैं। रंगबिरंगे और तरह-तरह की चमकीली चीज़ों से अटे पड़े पेशावर सूबे के पाकिस्तानी ट्रकों का एक हुजूम इन लोगों के लिए खाने के पैकेट लाता है। नार्थ वेस्ट फ्रंटियर स्टेट की पुलिस और पाकिस्तानी आर्मी के सैनिक जो ज़्यादातर पख्तून हैं या लोकल बाशिन्दे रोज़ बेदर्दी से जानवरों की तरह इस अनियंत्रित भीड़ पर लाठियाँ लेकर टूट पड़ते हैं। वे भीड़ को, जो खाने के पैकेट के लिए बुरी तरह लड़ती-झगड़ती है, नियंत्रित करने की बेजान सी कोशिश करते हैं। भीड़ में फटे-पुराने अफ़गानी नीले लबादे-बुरके से सिर से पाँव तक ढकी चीखती-चिल्लाती औरतें, एक दूसरे को लात-घूँसा मारकर आगे बढ़ते आदमी, जिन पर मुस्टण्डे सिपाहियों की लाठियाँ भी बेअसर हो जाती हैं। यहाँ यह सब रोज़ होता है। बच्चे लाखों की दम घोंटू भीड़ से अलग रोते-चीखते खड़े होते हैं। उनकी माँयें लगभग उन्हें फेंककर, भीड़ में लड़ती-झगड़ती समा जाती हैं। इस क़ातिलाना भीड़ में कभी-कभी कोई कुचलकर-दबकर मारा जाता है। ज़्यादातर कोई औरत या बूढ़ा जिसका शरीर धूल भरी ज़मीन पर बिखरा हुआ सा पड़ा रह जाता है। सब चले जाते हैं ............बस एक या दो बेजान शरीर छूट जाते हैं, जिसके पास से किसी के सिसकने की, या किसी बच्चे की चीख-चीखकर रोने की आवाज़ आती रहती है। फिर रात घिरती है और आवाज़ों को बंद होना पड़ता है। कुछ लोग जिन्हें खाने का पैकेट मिल जाता है, ख़ुश होते हैं...........ज़्यादातर आदमी जो लूट-खसोट में क़ामयाब रहते हैं, जो पुलिस की काफ़ी लाठियाँ सह सकते हैं...........वे एक भय के साथ दमकते चेहरे लिए तंबू पहुँचते हैं, तम्बू की औरतें, आदमी और बच्चे उस पर टूटते से गिड़गिडाते हैं। यह यहाँ रोज़ होता है। पूरा दिन सिर्फ़ तीन काम ज़िंदा बने रहने के लिए ज़ोरमजस्ती, खाने की लूट और अक्सर कुछ लोगों की मौत....... सिर्फ़ तीन काम।

वह इन्हीं लोगों के बीच से आता था। वह किसी बड़े अमीर घर में पैदा हुआ था। लगता नहीं था, कि वह इसी भीड़ का हिस्सा है।

मरे हुए लोगों को दफ़नाना यहाँ एक बड़ा काम है। यह सरकारी पुलिस करती है। एक मुल्ला जिसकी यहाँ ड्यूटी है, दफ़नाने के समय फ़ातेहा पढ़ता है। कभी-कभी किसी को दफ़नाते समय उसका कोई अपना वहाँ पहुँच जाता है। कभी-कभी वहाँ पहुँचने वाला सिसकता है, रोता है..... पुलिस काग़ज़ों पर उसका अँगूठा लगवाती है। कभी कोई सिपाही सिसकते-रोते आदमी के कंधे पर हाथ रख देता है, पर वह औरतों के साथ ऐसा नहीं कर सकता। यहाँ औरतों को छूना हराम माना जाता है। इसकी सख़्त मनाही है। वह औरतों से कुछ कह भी नहीं पाता है क्योंकि ज़्यादातर औरतों को पख्तूनी, अँग्रेज़ी या उर्दू नहीं आती है, ज़्यादातर औरतें पढ़ी लिखी नहीं है, और ठेठ अफ़गानी बोलती समझती हैं।

कैंप से दूर पत्थरों वाले टीले के पार, रोड और टीले के बीच फैली हज़ारों कि.मी. लंबी बंजर ज़मीन पर सिपाहियों के टैंट लगे है। ज़्यादातर सिपाही पाकिस्तानी आर्मी के सैनिक या रेंजर हैं और कुछ स्थानीय पुलिस स्टेशनों के वर्दीधारी। पर सभी लोग एक ही शब्द से जाने जाते हैं - दरोगा, अगर अलग-अलग जानना हो तो "बड़ा दरोगा" और "छोटा दरोगा"। इन्हीं टैंटों के किनारे एक टपरेनुमा ढाबा है -"भिश्ती बाबा का होटल"....यह उर्दू में लिखा है और उर्दू ना जानने के कारण काफ़ी दिन बाद मुझे पता चला कि ख़ालिद भाई की दुकान का नाम भिश्ती बाबा पर है, एक सूफ़ी बाबा जिसकी एक अनजान और तुच्छ सी मजार यहाँ से पास ही है।

इस कैंप में आये हुए पूरा एक सप्ताह हो गया है। मैं यहाँ आने के बाद सिपाहियों के टैंट के पास ही रहने लगा। इस तरह रोज़ पेशावर से आने की झँझट और यहाँ की बेहतर कवरेज, बेहतर कहानियाँ, बेहतर फोटो मैं अपने पेपर के लिए पा सकता था। फिर यह सुरक्षित भी था। ख़ालिद भाई के होटल में ही मेरी एक खटिया लग जाती। ख़ालिद एक पहाड़ी है, नार्थ वेस्ट फ़्रंटियर स्टेट के पूर्व में पहाड़ों पर रहने वाले पुराने लोग। रात को होटल में सिपाहियों का हुजूम होता। ज़्यादातर दारू पिये होते ओर अनर्गल बातें करते रहते। वहाँ हर रात बकरा, भेड़, मुर्गा या गाय का माँस पकाया खाया जाता। वे उजड्ड और गँवार क़िस्म के सिपाही थे। उनके चेहरे निर्दयी और पथरीले से लगते। यद्यपि मुझे धीरे-धीरे पता चला कि उनमें से ज़्यादातर का अपना परिवार है, बच्चे हैं और वे अपने परिवारों के बारे में अक्सर बातें करते हैं। यह एक अजीब सा मेल था निर्मम और उजड्ड से लंबे तगड़े, लाल-लाल आँखों वाले, दरिंदो की तरह माँस और दारू पीने वाले ये सिपाही अपने घर-परिवार की बातें बड़ी संजीदगी से करते थे।

इस कैंप में दूसरे शरणार्थियों का आना अक्सर होता था। सामान्यतः वे किसी ट्रक में या मिलिट्री की भारी-भरकम गाड़ी में लाये जाते। उनके साथ कुछ सैनिक होते। कभी-कभी एक या दो ट्रक भरकर सौ-ड़ेढ़ सौ लोग, तो कभी कोई एक मात्र परिवार आदमी-औरत और दो-तीन बच्चे, तो कभी कोई अकेला आदमी या औरत या बच्चा। सबसे पहले पुलिस के टैंट में उन सबके नाम लिखे जाते। एक तगड़ा सा पख्तून जो अफ़गानी जानता था, उनके नाम पूछता, फिर उन्हें कुछ चीज़ें दी जातीं तंबू का कपड़ा, एक दो हिण्डालियम के बर्तन, कत्थई रंग का लबादा एक आदमी को एक के मान से, कुछ दवायें बुखार और उल्टी दस्त के लिए, तंबू बाँधने की मोटी रस्सी..........कुल जमा आठ या दस सामान जिसे लेकर वे पथरीले टीले के पार फैले गँदले और बेदम इलाक़े में गुम हो जाते। इस बस्ती का एक नाम भी है.......जखूदी जिसका मतलब है - महफ़ूज़ इलाका।

नये आने वाले लोगों को यहाँ हिक़ारत से देखा जाता है। नये आने वालों को यहाँ दुत्कारा जाता है। या तो उनका सामान छीन लिया जाता है या उन्हें मारा पीटा जाता है। पर फिर भी नये लोग कहीं और नहीं जा सकते, सो उन्हें वहीं कहीं अपना तंबू लगाना पड़ता है। अक्सर नये लोग अपने साथ कोई छोटा-मोटा सामान लाते हैं, ज़्यादातर टीन की पेटी, चमड़े का बैग, कपड़े की पुटरिया, सुतली या जूट से बँधा गठ्ठा............ऐसा कुछ जिसमें तरह-तरह का सामान होता है - औरतों के बचे हुये जेवर, क़ुरान, या हदीस जैसी किताब, कुछ तस्वीरें, इत्र, शीशा, रंग-बिरंगे कपड़े के टुकड़े, गोश्त काटने का चाकू, काजल की डिब्बी, कुछ अफ़गानी नोट आदि, जिस पर बस्ती के दूसरे आदमी औरतें गिद्ध की तरह नज़र गड़ाये रहते हैं और मौक़ा पाते ही लूट लेते। थोड़ी देर शोरगुल मचता। कोई औरत चीखती-रोती। फिर सब शांत हो जाता।

वह इसी बस्ती से आता था।

उसका नाम नहीं पता। जब वह इस कैंप में आया था, तब रूस ने पहली बार अफ़गानिस्तान पर हमला किया था। तब वह तीन साल का था और उसे उसका नाम नहीं पता था। उसे उसकी बस्ती के ही कुछ लोग अपने साथ ले आये थे। उसका पूरा परिवार माँ-बाप और दो बहनें लड़ाई में मारी गई थीं। रूस के लड़ाकू जहाज़ों ने उसकी बस्ती पर बम गिराये थे। पत्थरों की चिप और लोहे से बना उसका पूरा घर एक धमाकेदार आवाज़ के साथ गिर गया था। चारों ओर लाल-पीली रोशनी तैर गई थी। मानो दिन निकल आया हो और भयानक क़िस्म की चीख-पुकार के बीच वह जाने कहाँ मलबे में देर तक दबा रहा। कुछ लोगों ने जब उसका घर खोदा तब वह उसमें मिला था। एक धुँधली सी स्मृति आज भी उसके भीतर चीत्कारती है। वह जब याद करता है, तो कुछ बौखला जाता है और पागलों जैसी हरकत करने लगता है। उसने पहली बार देखा था कि किस तरह मरे हुए लोगों को हड़बड़ाये, डरे और चीखते पुकारते लोग गड्ढों में गाड़कर भागते हैं। वह बुरी तरह डरा था, जब उसके बाप, माँ और बहनों को घसीटकर एक ही गड्ढे में फेंका गया था। जैसे कचरा फेंकते हैं। वह अपनी बड़ी बहन को यूँ फेंकते वक़्त बुरी तरह से चीखा था। यह उसकी आदत थी। वह चीखता था, जब कोई उसकी बहन को चिढ़ाता या मारता था। उस दिन उसने उसकी बहन को फेंकने वाले आदमी का हाथ अपने पैने दाँतों से काट दिया था और उसे अजीब लगा था, जब उस अदमी ने उसे थप्पड़ मारने कि बजाय अपने लबादे में भर लिया था।

वह किसी के साथ घिसटता सा चल रहा था। चारों ओर धमाकों के साथ आतिशबाज़ी सी छूट रही थी। वह उस आतिशबाज़ी को देखकर ख़ुश हुआ था, फिर थोड़ी देर बाद माँ को पुकारकर रोने लगा था। फिर एक धुँधली सी सुबह याद है, वह चितराल (उत्तर पूर्वी पाकिस्तान का एक शहर) था एक बड़े से घास के मैदान में कुछ लोग पोलो खेल रहे थे। उसके साथ के बाक़ी सब ख़ुश थे...यह पाकिस्तान था, एक पराया मुल्क ख़ुशी की बात तो थी ही...। फिर वे किसी ट्रक से आये थे, सिपाहियों से भरा ट्रक....रास्ते से गुज़रता एक गाँव जहाँ साँड़ों की दौड़ हो रही थी... चीखता चिल्लाता हुजूम। उसे उन दिनों का कुछ और याद नहीं.....।

वह बहुत सुंदर दिखता था। लड़के कहाँ इतने सुंदर होते हैं। नीली-हरी बड़ी-बड़ी आँखें, संगमरमर सा गोरा रंग, ब्राउन पतले हवा में उड़ते बाल, .....जब वह धूप में भटकता तो उसके चेहरे का गुलाबी रंग थोड़ा बदलकर चिकना और गहरा हो जाता। कैंप की सारी गंदगी, धूल, लूट-खसोट................रेत भरी हवा बुरी तरह उस पर चिपकती, उसे रोज़ और गंदला कर देती, पर पिछले कई सालों से वह ऐसा ही सुंदर दीखता रहा है..............वह इस बस्ती का बाशिन्दा ना होकर, मानो कहीं और से आया हो। उसे देखकर मुझे फ़रिश्तों की कहानियों पर यक़ीन करने का मन करने लगता।

"ख़ान ऊपर देख।”

सिपाही अक्सर उससे चुहल करते रहते। उससे कहते आकाश की तरफ़ देख, पर वह नहीं देखता, ढीठ सा खड़ा रहता। उसका कोई नाम नहीं था, सो सब सिपाही उसे ख़ान कहते थे। सिपाही उससे बार-बार ऊपर देखने को कहता और वह लगातार उस सिपाही को घूरता।

"अबे देख.......।"

"देख तो कैसा नीला आकाश है...।"

सिपाही ने उसका चेहरा पकड़कर आकाश की ओर घुमा दिया।

"क़ादिर....। क़ादिर....।"

उसने सिपाही को धक्का दिया, अपना चेहरा उसके हाथों से छुड़ाया और पथरीले टीले की और दौड़ पड़ा। सिपाही हँसने लगे। लड़के को लगा जैसे वह एकदम से क़ादिर के लबादे में धँस सकता है।

"लोग"या ख़ुदा"कहते हैं और यह क़ादिर....क़ादिर..।"

एक सिपाही ने मुँह बनाते हुए कहा। बाक़ी सब हँस दिये।

क़ादिर का पूरा नाम क़ादिर-उल-अली है। वह एक अफ़गानी लड़ाका है। एक तालिबानी। अल-क़ायदा का नया मुरीद। वह अनपढ़ है, पर उसे क़ुरान के बहुत से पाठ और अयातें याद हैं। वह अक्सर अपने लाव-लश्कर जिसमें पाँच-छह लड़ाके, कुछ हथियार ढोने वाले अफ़गानी टट्टू और कई क़िस्म के हथियार होते हैं, के साथ इस जगह आ धमकता है। कैंप के फटीचर से दिखने वाले लोग क़ादिर के लाव-लश्कर के इर्द-गिर्द मधुमक्खी की तरह भिनभिनाते रहते हैं। लोग अफ़गानी में चिल्लाते से उससे पूछते हैं और वह एक ही बात बार-बार कहकर लोगों को बहलाता है.....एक स्वप्न, जो वह बार-बार कहता है....जब उनकी ज़मीन, उनके गाँव, उनके लोग, उनके घर उनको वापस होंगे.....जब वे वापस अपने मुल्क जायेंगे.....एक दिन तालीबान रुसी काफ़िरों से उनकी ज़मीन छुड़ा ही लेगा......तो क्या हुआ अगर तालिबान पर बेहतर हथियार नहीं हैं....ख़ुदा उन्हीं पर मेहरबान होगा, जंग ख़त्म होगी और तालिबान उनकी ज़मीन का सुल्तान हो जायेगा....क़ादिर चीख-चीखकर उन्हें यक़ीन दिलाता.....वह पिछले आठ सालों से यह यक़ीन दिलाता आया है....पर लोग हर बार उससे बुरी तरह चिपक जाते हैं.....और फिर वह अपनी क्लैश्नेकौफ़ (रुसी मशीनगन जैसा हथियार) आकाश की ओर करके आधे-एक घण्टे तक गोलियाँ चलाता रहता है...उसके दूसरे साथी भी दनादन गोलियाँ दागते हैं.....चारों ओर कानफोडू आवाज़ होती है....लोग पगलाये से ख़ुशी में चीखते हैं.....कुछ हाथ आकाश में उठकर दुआयें माँगते हैं......हाँ अबकी बार ज़रूर, हाँ इस बार पक्का उन्हें उनका घर और उनके लोग मिल जायेंगे....लड़का आकाश की ओर लपकती मशीनगनों की आग और गोलियों को देखता है.....वह पागलों सा चिल्लाता है....उसे यक़ीन है क़ादिर के हथियार एक दिन आकाश को ख़त्म कर देंगे...आकाश से ख़ून निकलेगा और आकाश हमेशा के लिए मर जायेगा....। सिपाही पथरीली पहाड़ियों से यह तमाशा देखकर हँसते।

क़ादिर की सिपाहियों से ग़ज़ब की दोस्ती है। याराना। वह उनके लिए सूखे मेवे और बहुत सारे पैसे लाता है और बदले में उसे कुछ और नये हथियार मिल जाते हैं। पेशावर के पास ही एक शहर है डेरा। डेरा में हर तरह के हथियार बनते हैं। लोग डेरा से आलू प्याज़ की तरह हथियार ख़रीदते हैं। डेरा के बंदूकचियों ने क़ादिर की क्लैश्नेकाफ़ की नक़ल कर कई क्लैश्नेकौफ़ बनाई हैं, जो क़ादिर के दूसरे गुर्गों के पास हैं। सिपाही क़ादिर के लिए दुआ माँगते हैं और कुछ हाथ उसकी पीठ थपथपाते हैं.....वह ख़ून के आखरी क़तरे तक लड़ेगा....वह पहाड़ पर खड़ा चिल्लाता है, एलान करता है।

"ख़ान सिपाहियों का बड़ा ख़ास है।"

ख़ालिद ने मुझे बताया।

"कुछ ना कुछ खाने पीने को दे देते हैं। गोश्त रोटी या कुछ और....इसी से इधर आता है। खाने को कुछ मिलता नहीं, सो नियतख़ोर की तरह रोज़ आता है।"

"ख़ान इसका नाम है।"

"यहाँ काफ़ी लोग बेनाम हैं। उन्हें नाम देना पड़ता है। पुलिस उनको नंबर दे देती है। जब बेनामी आते हैं, ज़्यादातर छोटे बच्चे-बच्चियाँ तब एन्ट्री के समय पुलिस वाले नंबर देते हैं। बताते हैं यही शऊर है।"

"इसका क्या नंबर है?"

"पता नहीं। बस ख़ान कहते है। नंबर ज़रूर होगा, जब यह आया था तब तीन साल का था। नंबर तो ज़रूर होगा।"

"बहुत पुराना नंबर।"

"हाँ और छोटा नंबर भी। जो लोग पहली-पहल खेप में दस ग्यारह साल पहले आये थे, उनके नंबर छोटे थे, अब बड़े नंबर मिलने लगे हैं। किसी को क्या पता था कि लोगों की भीड़ हो जायेगी...।"

"ख़ान तो फिर यहाँ की ज़बान बोलता होगा।"

"शायद।"

"क्यों तुमने नहीं सुना?"

ख़ालिद कई बार मेरी बातों से चिढ़ जाता था। मैं हर बात को, हर कहानी को ....... विस्तार से जानना चाहता। वह काम जिसके लिए मैं यहाँ आया था। अपनी पत्रिका के लिए बेहतर कहानी और कवरेज ढूँढ़ने। ख़ालिद को कैंप की बजाय दर्रे के पार उसके पहाड़ों की बात बताना ज़्यादा पसंद था। वह अक्सर पहाड़ों जिन्हें वह अपना मुल्क कहता था, की बातें बड़ी तल्लीनता से बताता। उसने मुझे खोवर (पाकिस्तान की पहाड़ों की भाषा) के बारे में बताया। वह शेंडूर पास में चितराल और गिलगित के बीच हर साल खेले जाने वाले पोलो मैच के बारे में मुझे बताता, खैबर लाइन वाली रलों के बारे में, किसी अता-मोहम्मद-ख़ान नाम के क़बीला सरदार के प्रिंस मलिक के क़िले की तर्ज़ पर बने विशाल संगमरमर के महल के बारे में जहाँ वह पहले काम करता था, पेशावर सूबे से लगे सूखे पहाड़ी इलाकों के लोग.....जहाँ मेहमाननवाज़ी और बदला लेने होने वाले ख़ून खच्चर की ढेरों कहानियाँ हैं...., पाकिस्तान के पहाड़ों पर रहने वाले कलश नाम के आदिवासी जो ख़ुद को सिकंदर की संतान मानते हैं....और भी बहुत कुछ। पर ख़ान में उसे दिलचस्पी नहीं थी। उसके बारे में बात करना उसे बोर करता था। शायद उसको पता था कि उस बात में मेरा कोई स्वार्थ है। पर फिर मेरी ख़ालिद से जुगत हो गई। जितनी ज़्यादा बातें वह बतायेगा उतने ज़्यादा पैसे मैं उसे दूँगा। वह बताते हुए बोर हो जाता, पर पैसे के लालच से बताना बंद नहीं करता। उन दिनों छोटे-हैण्डी टेप नहीं होते थे, सो मैं उसकी हर बात को शार्ट हैण्ड नोट करता जाता और रात-बेरात अपनी डायरी में लिख लेता।

"ख़ान कुछ कहे, तब ना सुनें। पर जानता ज़रूर होगा। बस्ती में जो तीन-चार साल से रह रहा है, उर्दू ज़ुबान तो बोल लेता है। फिर यह तो दस साल से है। कुछ लोग तो माशा अल्ला पख्तूनी भी जानते हैं।"

"कुछ तो बोलता ही होगा। कोई ऐसे कैसे रह सकता है।"

"बात तो सौ फ़ीसदी ठीक है। पर मैंने नहीं सुना। सिपाहियों ने सुना होगा।"

"बहुत सुंदर दिखता है। है, ना।"

"ख़ुदा की रहमत है। पर क़िस्मत..........।"

ख़ालिद ने नाक सिकोड़ते हुए कहा।

"इसके घर वाले।"

"कहते हैं, सब ख़त्म हो गये। शायद पैंसठ की लड़ाई में। पूरा नहीं मालूम, बस इतना ही पता है। यह अकेला था। तीन साल का, बस्ती के एक जवान के साथ आया था। इधर चितराल के रास्ते।"

"बस्ती का नाम पता है।"

"बताते हैं कांधार के पास ही थी। मुझे नहीं मालूम।"

"किसी बड़े घर का रहा होगा।"

"शकल सूरत से तो ऐसा ही लगता है।"

उस उजाड़ कैंप में बड़े घर की बात करना काफ़ी बेतुकी थी। मैं जब यहाँ नया-नया आया था, तब उस ट्रांसलेटर को जो पुलिस के पास एण्ट्री करवाता था, अपने साथ लिए कैंप में भटकता था। यहाँ के बाशिन्दे जो चीख-पुकार, गाली-गलौच, रोने-पीटने के अलावा ज़्यादातर चुप रहते हैं, उनसे बात करता था। उनसे उस घर की बात पूछता जो अफ़गानिस्तान में था। मुझे लगता कि इस तरह सबसे मार्मिक कहानी निकल सकती है। घर और परिवार काफ़ी भावनात्मक मामला होता है। पर मुझे ज़्यादातर निराशा ही मिलती। बुज़ुर्ग अवश्य घर की बात में दिलचस्पी लेते, पर ज़्यादातर जवान आदमी, औरत इस विषय पर ज़्यादा बात नहीं करते। उन्हें घर की बात करने की उत्सुकता नहीं होती थी। वे बस इसी फ़िराक़ में रहते कि, मैं उनके लिए क्या लाया हूँ? विशेषकर खाने की कोई चीज़। कुछ औरतें सजने-धजने की चीज़ माँगती। मैंने शायद ही इनमें से किसी औरत का चेहरा देखा हो, पर सुना ज़रूर था कि अफ़गानी औरतों को सजने का बड़ा शौक़ होता है। हमेशा नीले कपड़े से अपना पूरा शरीर ढका होने के बाद भी, वे ख़ूब सजती हैं। उन्हें कोई देख नहीं पाता है और यूँ वे ख़ुद के लिए सजती हैं। उन्होंने ख़ुद के लिए सजने की ख़ुशी को बहुत सँभालकर अपनी बेटियों को दिया है। मैं उनके लिए काँच की चूड़ी, काजल की डिब्बी, कोई सस्ती सी क्रीम या ऐसा ही कुछ ले जाता। बच्चों के लिए बिस्कुट जो मुझे सिपाहियों से मिल जाते थे, ले जाता था। पर कुछ भी काम नहीं आता। अफ़गानिस्तान का पुराना घर उन्हें उत्सुक नहीं करता था। मुझे ऐसा भी लगा कि वे सब उन यादों से छुटकारा पाने की फ़िराक़ में रहते थे। आगे क्या होगा, यह उनकी बातों का मुख्य विषय होता। पर ऐसे कुछ इक्का-दुक्का बूढे, जो मार-पीट और लूट-खसोट के बाद भी ज़िंदा बचे थे, पुरानी बातें बड़ी लगन से बताते थे। उनकी भाषा समझ नहीं आती थी, पर वे कहना जानते थे। उनके कहने को भाषा नहीं लगती थी। वह ट्रांसलेटर कभी मेरे साथ होता, तो कमी नहीं..........पर मैं उनसे उनके घर की उनके परिवार की बात कर पाता। उनको सुन पाता। उन बूढ़ी आँखों में छलक आने वाला पानी मुझे मेरे अपने देश के बूढ़ों की याद दिलाता था। उनकी चुप्पी घर की बात पर, बांध की तरह टूटती थी और मैं शार्ट हैण्ड में उसे समेट नहीं पाता था। कुछ था जो छूट जाता था। कुछ था जिसे लिखते नहीं बनता था। कुछ ऐसा जिसे हम कभी भी लिख नहीं पाये। उनमें से कुछ बड़े घरों से थे और कुछ छोटे घरों से पर घर के बड़े होने या छोटे होने की बात उनकी बात में नहीं होती थी। इस बात को पता करना पड़ता था। वे अपने घरों को बड़े घर या छोटे घर के रूप में नहीं जानते थे। इस तरह जानना वे भूल चुके थे।

ख़ान की बातों ने मुझे उत्सुक किया था। उसका घर, उसकी कहानी......।

"मैंने इतना सुंदर लड़का पहले कभी नहीं देखा।"

ख़ालिद हँसने लगा।

"सिपाही इसके साथ मज़े करने के चक्कर में रहते हैं।"

"क्या मतलब।"

"इसे पकड़ लेते हैं और..................।"

उसने आँख मारते हुए कहा। मुझे मतली सी आई...............एक अजीब सी ऐंठन जैसे गीली रस्सी आग में जलते समय गुड़मुड़ी होती जाती है.............एक नोचने वाला हिच.........कि अब क्या? 

"यहाँ यह सब बहुत होता है। पर्दानशीं औरतों को छू नहीं सकते, वरना गदर हो जाये। सो लड़कों की पकड़-धकड़ हो जाती है। फिर ख़ूबसूरती सबकी कमज़ोरी है।"

"पर वह तो अक्सर यहाँ आता है।"

"गोश्त और रोटी की नीयत। भूखे को क्या चाहिए? बस कुत्ते की तरह सूँघता-साँघता चला आता है।"

"उसके बारे में और कोई बता सकता है।"

मुझे रिपोर्टिंग के लिए कहानी मिलने लगी थी।

"वो ही लोग जो उसे यहाँ लाये थे।"

"तुम जानते हो।"

"पुलिस के रिकार्ड में होगा। एक-दो तो बूढ़े लोग थे, शायद मर खप गये हों, पर मालुमात हो सकता है।"

अगले दिन बड़ी मन्नतों के बाद बड़े दरोगा ने मुझे पुराने रिकार्ड दिखाये। इतनी पुरानी जानकारी पाने के लिए उसकी काफ़ी लल्लो-चप्पो करनी पड़ी। घूँस भी देनी पड़ी। उसने मेरे सामने मोटे रजिस्टरों का बंडल सा रख दिया। एक दूसरा सिपाही ढूँढने लगा। पूरे रजिस्टर में हर पन्ना किसी एक शरणार्थी की जानकारी से भरा था। कुछ के नाम थे, तो कुछ के नाम की जगह नंबर लिखे थे। सारी जानकारी उर्दू में। बहुत मशक़्क़त के बाद वह पन्ना मिला। उसमें एक तीन साल के लड़के का हुलिया उर्दू में दर्ज था। नाम ३३६४, नीली-हरी आँखे, गोरा रंग..............निशान बाँयें हाथ की छोटी उँगली आधी कटी हुई। ख़ान की भी बाँयें हाथ की छोटी उँगली कटी हुई है ..।

"हाँ बस यही।"

सिपाही उन लोगों के नाम बताने लगा जो इस तीन साल के लड़के को यहाँ लाये थे। मैंने उनके नाम और सारे मालुमात नोट कर लिये। ख़ालिद सही कहता था, ख़ान का घर कंधार के पास का एक छोटा सा क़स्बा जाबेह था। उसके साथ आये लेागों को ढूँढने में मुझे ख़ासी मशक़्क़त करनी पड़ी। इतने बड़े कैंप में जहाँ सब कुछ बेतरतीब और लाखों लोगों की भीड़ से अटा पड़ा था, यह एक दुश्कर काम था। मैं सबसे पुरानी वाली खेप को जहाँ बसाया गया था, उस हिस्से में तीन दिनों तक ढूँढता रहा और अंत में मुझे वह आदमी मिला उसका नाम हबीबुल था, उम्र लगभग पचपन साल। उसने एक साँस में जो कुछ पता था, बताया -

"उसका बाप शफ़ीक़ उल्ला ऊन का धंधा करता था। पूरे कंधार में मशहूर था। क्या देसी, क्या विलायती, सब तरह की ऊन, पश्मीना, खुर्दब से लेकर विदेशों की बारीक़ सिल्की ऊन तक सब कुछ। वल्लाह बड़ा अमीर सौदागर था। मैं उसका मुख़्तयार था, सारे कोर्ट कचहरी के मामलों से लेकर सौदागरी के हिसाब तक सब कुछ मेरे हवाले। हम सब ख़ुश थे। जाबेह एक ख़ुशमिजाज बस्ती थी। जाेह की शबे बारात की बड़ी रारीफ़ थी। पर सब मिट्टी में मिल गया। लोग बताते हैं, अब सिर्फ़ पुराने घरों की कुछ दीवारें रह गई हैं, जहाँ मुजाहेदीन जंग करते हैं। हमारी औलादें ख़ाक़ हो गईं। हमारा घर जल गया। मैं ही इसे यहाँ लाया था। पर लगता है, ग़लत किया। वहीं मरने छोड़ देता तो उसे यह हिक़ारत भरा दिन तो ना दिखता। उसका कोई नहीं। मैं उसको मरने के लिए नहीं छोड़ पाया। ख़ान तीन साल का था, और मुझे पहचानता था। जब भी हम शफ़ीक़उल्लाह की बारादरी में बैठते वह मेरे पास आकर बैठ जाता............। मैं उसे मरने के लिए नहीं छोड़ पाया।"

हबीबुल दूसरे शरणार्थियों से अलग नहीं था। वही फटेहाल, खाने के लिए मारामारी, वही धूल और गंदगी, वही गंदी सी बदबू..............पर वह बोलता था, कुछ ज़्यादा ही। उसके चेहरे पर एक अदेखी और अनहोनी सी हताशा हमेशा दीख पड़ती थी।

"ख़ान ख़ामोश रहता है। इधर तीन साल के बच्चे को बचे रहने काफ़ी गुर सीखने होते हैं। शुरू-शुरू में जब वो पाँच एक साल का था, लोगों से ख़ूब मार खाता था। कई बार इतनी मार कि उसका दम निकलने को होता और उसे कोई बेहोश हालत में कैंप से बाहर पटक आता। पर वह नहीं मरा। वह जान गया एकदम से झपटने और माँगने से कुछ नहीं मिलता। पहले जुगत बैठानी पड़ती है। मतलब सामने वाले का मूड कैसा है, पहले जान लो फिर उसी के मुताबिक़ चलो। अगर कमज़ोर है, बूढ़ा है और चेहरे से बीमार दिखता है, तो छीन सकते हो और अगर जवान है, दुरुस्त है तो देखो कि मूड कैसा है। मूड के माफ़िक उससे माँगो...। इधर कुछ लोग सुअर की तरह खाना खाते हैं। बस नाक घुसाये घिघयाते रहेंगे। ऐसे लोगों से दूर रहो। अगर ख़ान यह ना सीखता तो एक रोज़ सही में किसी लुटेरे के हाथ हलाक़ हो जाता, और सिपाही उसे मिट्टी में दफ़ना आते। पर जो आइडिया जान जाये, वो थोड़े मरेगा। एक तरह से मैंने ही उसे यह सब सिखाने की शुरूआत की। लूटना, छीनना और रिरयाना, पहले घूर लो............फिर आगे चलो। ट्रेनिंग माशा अल्लाह दुरुस्त रही...........।"

वह मुस्कुराया पचपन साल की उम्र में वह फिर से मुस्कुराना सीख रहा है।

"वह बात करता है। हकलाता है और डरता भी है, पर बात कर लेता है। यहाँ किसी से क्या बात करो। सब मारामारी है। लोग बोलना भूल गये लगता है। ख़ान अच्छा बोलता है। पर उसका डर, उसकी घिघ्घी, उसकी बेशरमी, उसका ढीठपना, सब कुछ अगर तुम थोड़ा कम कर पाये, तो वह बोलेगा।"

हबीबुल सही था। ख़ान बात करता था। अभी कुछ ही दिनों पहले वह क़ादिर से बतिया रहा था।

ख़ान को क़ादिर अच्छा लगता है। एक रहनुमा की तरह। उसकी ज़ुबान, ज़मीन और तहज़ीब वाला आदमी। वह उसे उस दिन से और अच्छा लगने लगा जब उसने उसे उसके गाँव जाबेह की और उसके अब्बू की कुछ बातें बताईं।

"वह तालीबान का ख़ैरख़्वाह था। पक्का मुसलमान।"

"अब्बू को तुम जानते थे।"

"क्या बंदा था, वह....।"

"अब्बू से तुम्हारी दोस्ती थी।"

"वह ख़ुदगर्ज नहीं था। जब रूसी काफ़िर हमारे मुल्क के, हमारे अफ़गानिस्तान के दूसरे शहरों में बम बरसा रहे थे, उसने तब से तालीबान का साथ दिया। कभी रक़म तो कभी असद। उसने नहीं सोचा कि उसका शहर तो महफ़ूज़ है, फिर क्या लेना देना दूसरे शहरों से.....।"

"तुमने अब्बू को देखा था?"

"ख़ूब.....कई बार। वह कई बार हमारे खेमे पर हमसे मिलने आता था।"

"मुझे बस अब्बू थोड़ा सा याद है।"

ख़ान ने अपनी उँगलियों के बीच ज़रा सी जगह बनाकर कहा-

"बस इतना.....बस इतना ही।"

क़ादिर मुस्कुरा दिया। उँगलियों के बीच की वह जगह थोड़ी देर तक बनी रहीं....ख़ान थोड़ी देर तक उस जगह को देखता रहा। क़ादिर ने अचानक मुस्कुराना बंद कर दिया।

"क़ादिर भाई तुम अच्छे हो।"

"क्यों?"

"तुम मुझे गाली जो नहीं देते हो....पागल जो नहीं कहते हो।"

"क्यों और कहते हैं, क्या?"

"हाँ। कहते हैं मेरे अब्बू के कारण ही जाबेह तबाह हुआ। मेरे अब्बू के कारण ही रूसी काफ़िरों ने बम गिराया था। मेरा अब्बू जाबेह के लिए नासूर था....।"

"अपने मुल्क की ख़ातिर, अपने घर, अपने लोगों के ख़ातिर यह फ़र्ज़ होता है। उसने निभाया....।"

"क़ादिर मुझे डर लगता है।"

"क्यों?"

"अगर रुसियों को यह पता चल गया कि अब्बू का एक लड़का ज़िंदा है, तो वे मुझे मार डालेंगे। है ना....।"

"अरे नहीं वो यहाँ नहीं आ सकते।"

"क्यों?"

"यह दूसरा मुल्क है।"

"पर इसमें पूरे जाबेह का क्या?"

"जाबेह ही क्या? पूरे अफ़गानिस्तान का क्या? हमने इनका क्या बिगाड़ा था, जो ये हमारे लोगों को मारने को पिल गये....। बताओ...।"

ख़ान को लगा जैसे पुराने दिन लौट आयेंगे, क़ादिर लौटा लायेगा उन सारे दिनों को। उसे लगा कि वह क़ादिर को बता सकता है, कि वह क्यों पागलों की तरह और डरा हुआ रहता है.....अक्सर जब उसे अब्बू, माँ और बहनों के अधजले बदबू मारते और कचरे की तरह गड्ढे में फेंके जाते शरीर याद आते हैं, जिसका मतलब वह बहुत दिनों बाद जान पाया था....तब उसे कुछ हो जाता है। अक्सर जब सिपाही उसका चेहरा पकड़कर उसे आकाश दिखाते हैं तो वह पागल सा हो जाता है। डाक्टर अब्राहम ने उसे कुछ कहा था...अंगरेजी बीमारी....। पर वह क़ादिर से कह नहीं पाया। उसे लगा वह फिर से पागलों जैसे करने लगगा.....। वह हड़बड़ाकर क़ादिर से लिपट गया। शायद उसके लबादे से आज भी अब्बू की ख़ुशबू आती हो....।

"हर कोई दुश्मन हो गया है। हमारे ये लोग भी।"

क़ादिर ने कैंप की ओर इशारा करके कहा।

"हमारे अपने ही लोगों को हमारा दुश्मन बना डाला।"

"क़ादिर मुझे डर लगता है।"

उसने क़ादिर से लिपटे हुए कहा। क़ादिर ने अपनी पोटली खोली। उसमें बहुत से हथियार रखे थे। उसने एक डेरा में बनी क्लैशनेकौफ़ निकाली और ख़ान को थमा दी.......अब मत डरना....यह कहते हुए क़ादिर के चेहरे से पत्थर निकल आया।

"सब दुश्मन हैं....सब।"

"सिपाही भी दुश्मन हैं।"

"ना ख़ान। सिपाही तो दोस्त हैं।"

ख़ान चुप हो गया।

"क्यों तुझे किसी ने मारा। बता कौन है....आज ही स्साले को ठीक करता हूँ।"

"ना। ऐसी बात नहीं है।"

ख़ान चुप्पी लगा गया। उसे अपनी जाँघों के बीच कुछ घुसता हुआ महसूस हुआ। गोश्त और रोटी का लालच उसे चुप करा देता है।

यू.एन.ओ.(संयुक्त राष्ट्र संघ) की सफ़ेद गाड़ियाँ जो किसी बड़ी जीप की तरह होती हैं, अपने पूरे हुजूम के साथ यहाँ चक्कर लगाती हैं। सिपाहियों के टैंटों में से तीन टैंट यू.एन.ओ. वालों के हैं। दो टैंटों में तरह-तरह का सामान, दवायें, चद्दरें, डिब्बाबंद खाना, कपड़े, टार्च आदि बेतरतीब तरीक़े से पड़े हैं। एक टैंट में डाक्टर एब्राहिम रहते हैं। डाक्टर एब्राहिम मूलतः बेल्जियम के हैं। अंगरेज़ी जानते हैं। हफ़्ते में एक दो दिन कैंप में चक्कर लगा आते हैं। आगे-आगे डाक्टर एब्राहिम और पीछे-पीछे दवाओं का बैग पकड़े एक सिपाही। बहुत कम लोग एब्राहिम तक आ पाते हैं, सो वे ही यहाँ आ जाते है। टैंट में अक्सर वे ख़ाली रहते हैं....ज़्यादातर कोई नावेल पढ़ते हुए।

"इट्स टू हाट टुडे...।"

उस दिन सुबह ही मिल गये। रोड पर चहलक़दमी करते हुए।

"इट्स काल्ड लू...ए हाट विण्ड....आलमोस्ट बर्निंग।"

डाक्टर अब्राहिम से मेरी मुलाक़ात हाल ही हुई। वे यहाँ दो सालों से हैं।

"लू।"

"इट्स ए सीज़नल विण्ड हाट एण्ड ड्राय।"

"हाउलांग इट बी हियर।"

"एबाउट टू मंथ्स मोर।"

"व्हाट ए हैल....आई हैव एप्पलाइड फ़ॉर ए लीव। ए लांग वन....।"

मैंने अपनी उत्सुकता एब्राहिम के साथ बाँटनी चाही। मुझे ख़ान की कहानी जो पूरी करनी थी।

"हैव यू सीन ख़ान।"

"दैट व्हाइट टाल गाय।"

"या...द सेम।"

"ही इज़ माई पेशेंट।"

"पेशेंट....।"

"यस.....एक्चुअली ही इज़ सिडिरोफोबिक एण्ड आलसो हैलियोफोबिक....।"

"व्हाट....।"

"इट्स ए मैंटल डिसआर्डर। ए काइण्ड आफ ल्यूनैटिक पर्सनैलिटी.....।"

"ल्यूनैटिक...।"

मुझे अजीब लगा। मैंने कभी ख़ान को इस तरह नहीं देखा था कि वह पागल है। ख़ान पागल है....एब्राहिम ने सहजता से कहा और मेरे अचरज को भाँप गया।

"इट कैन बी सैड....…

उसने बात को थोड़ा सा आल्टर कर दिया...इट कैन बी....।

......एक्चुअली सिडेरोफोबिक इज़ वन हू फ़ियर द नाइट स्काई.....एण्ड स्टार्स। फोबिया मीन्स फ़ियर एण्ड सिडेरोस इट्स ए ग्रीक ओरिजिन सिनानिम ऑफ़ स्टार्स....।"

"अमेज़िंग...आई नेवर हर्ड दिस।"

डाक्टर एब्राहिम मुस्कुरा दिये। मैंने कभी नहीं सोचा था कि इंसान आकाश से डर सकता है और साइकाइट्रिक्स में यह एक बीमारी है। रात के तारों भरे आकाश से डरना याने सिडेरोफोबिया। डाक्टर इब्राहम ने यह भी बताया कि ख़ान को हैलियोफोबिया भी है। इस बीमारी का मरीज़ दिन के आकाश और सूरज से डरता है। ख़ान को दोनों बीमारियाँ हैं। यहाँ ख़ान बहुत से लोगों के लिए नई और अजीबोग़रीब बीमारी को जानने का तरीक़ा है। मुझे बेदर्दी से आकाश की ओर ख़ान का चेहरा घुमाते हुए सिपाही और उसके गुलाबी चेहरे पर उतरने वाला काँपता काला डर याद आया....। मैंने सोचा मैं उन्हें रोकूँगा।

"आई हैव गिवेन हिम सम एलमेण्ट्स ड्रग्स.....बट नो यूज़। फ़्रॉम टू इयर्स आई एम हियर बट अनेबल टू गैट देअर फ़ेथ इन द टास्क आई एम डुइंग....…”

एब्राहिम के चेहरे पर एक थकान उतर आई और वह उस फटेहाल कैंप की तरफ़ देखने लगा.....एक उम्मीद जो अब ग़ुस्से में बदल रही है।

“.....व्हाट द हैल आइ एम डुइंग हियर....दीज़ पीपुल नेवर अण्डरस्टैण्ड मी नेवर.....या नेवर।"

थोड़ी देर बाद हम दोनों अपने-अपने रास्ते चल दिये। लौटते समय मैंने देखा कुछ फटीचर से धूल भरे बदबू मारते बच्चे खेल रहे थे। एक अजीब सा खेल। एक पुतला जिस पर रूसी और अफ़गानी में कुछ लिखा था और लाल गेरु से उस पर ख़ून के निशान बनाये गये थे। वे उस पुतले को लकड़ी और पत्थरों से मार रहे थे।

"मारो...काफ़िर रूसी काफ़िर......मारो-मारो....रूसी मारो....।"

दूर खड़ा एक बुज़ुर्ग उन्हें देखकर मुस्कुरा रहा था। क्या दिन बदलेंगे...क्या अपने लोग फिर से मिलेंगे...क्या....उस बूढ़े को उस खेल को देखना संजीदगी के साथ सुहा रहा था।

उस दिन मैं ख़ालिद की दुकान पर चाय पी रहा था। तभी ख़ान वहाँ आ गया। वह मुझे घूरने लगा। मैंने उसे एक कप चाय दी वह डरता सा चाय पीता रहा। उसके गुलाबी होंठो से लगा काँच का गिलास काँप रहा था। काँच के गिलास पर नीला आकाश थरथरा रहा था। मुझे डाक्टर एब्राहिम की बात याद आई.… ख़ान बीमार है.....हैलियोफोबिया, एक बीमारी जिसका मरीज़ आकाश से, सूरज से डरता है।

मैंने उसे चबूतरे पर बैठने को कहा। गिलास पर से नीला आकाश हट गया। मैंने उससे पूछा, उसे और चाहिए। उसने हाँ में सर हिलाया..................और इस तरह चार कप चायी पी गया।

"तुम्हारा नाम ख़ान है।"

उसने गर्दन हिलाई, याने-हाँ।

"पता है जब तुम चाय पी रहे थे तो गिलास के काँच पर आकाश काँप रहा था............।"

वह होटल की दीमक खाये लकड़ी के फट्टे पर धोकर रखे काँच के गिलासों को देखने लगा। फिर अपना चेहरा घुमाकर सिपाहियों के टैंटों की ओर देखने लगा। दूर तक धूल और रेत पर बहती गर्म हवा पानी की तरह दिख रही थी और टैंट के तम्बू उसमें लहरा रहे थे। टैंट के पार बैरन, उदास, कठोर और पथरीला टीला था। वह उसी तरफ़ टकटकी लगाये था।

"आकाश बहुत ज़रूरी है। आकाश ना हो तो बरसात ना हो, सूरज ना हो, चाँद ना हो, दिन और रात ना हो......बताओ पंछी फिर कहाँ उड़ेंगे। हवा कैसे बह पायेगी बताओ.....बताओ। पता है अगर आकाश नहीं होता तो हम सब भी नहीं होते। कहते हैं आकाश ना होने से सारे आदमी मर जाते। आकाश बहुत ज़रूरी है।"

वह मेरी बात अपनी आँखों से सुनने लगा। मानो मैं कोई उसे गहरा राज़ बता रहा हूँ। कोई कहानी जिसे सुनने की ज़िद उसने अपनी माँ से की हो और ना सुन पाया हो और हक्क-बक्का रह गया हो, जब पता चले कि यह कहानी एक अजनबी जानता है। कहानी जो अजनबी जानता है, कहानी जो उसकी माँ सुना नहीं पाई थी, छुटपन की कहानी.....पता नहीं यह किसकी कहानी है....अजनबी की या माँ की.......। उसकी आँखे अब कह रही थीं, उन्होंने सुनना बंद कर दिया।

"तुम आकाश की ओर क्यों नहीं देखना चाहते।"

वह मुझे घूरने लगा। तभी दो वर्दीधारी सिपाही वहाँ आ गये और चाय पीने लगे। उन्हें देखकर ख़ान खड़ा हो गया। लगा वह वहाँ से भाग जाना चाहता है।

"मियाँ इसे क्या गुर सिखा रहे हो।"

एक सिपाही ने मुझे चोर आँख से देखते हुए कहा।

"जानना चाहता हूँ, आकाश की ओर क्यों नहीं देखता है यह। क्यों आकाश से डरता है। आकाश कोई डरने की चीज़ नहीं।"

दोनों सिपाही खिलखिलाकर हँस दिए। उनमें से एक ने मुझसे धीरे से कहा-

"साला बुरी तरह डरता है।

"आकाश से।"

"हाँ। पागल है................पागल।"

वह तेज़ी से ख़ान के पास गया और उसका चेहरा अपने हाथ में पकड़ लिया। ख़ान काँपने लगा। उसने ख़ान का चेहरा आकाश की ओर घुमा दिया। ख़ान की आँखे बंद हो गईं।

"अबे देख। देख।"

"न....न...नहीं। छोड़ो........।"

मैंने पहली बार ख़ान की आवाज़ सुनी। सिपाही हैवान की तरह हँस रहा था, "अबे आँख खोल......।"

"जाने दो दरोगा जी।"

"अबे खोल।"

"आज नहीं बोल रहा क़ादिर....क़ादिर।"

"अबे देख ले। देख ले इस आकाश को। कब तक आकाश से डरेगा। यह पाकिस्तान का आकाश है, अफ़गानिस्तान का नहीं कि दनदना के रूसी जहाज़ घुसे आयें और बस्तियों को जलाकर तबाह कर दें....। इस आकाश में कोई रूसी जहाज़ नहीं आ सकता। रूस ऐसी हिम्मत नहीं कर सकता। यह तेरे कांधार का आकाश नहीं है, जिसका कोई ख़ैरख़्वाह नहीं। हाँ तेरे मुल्क के आकाश का कोई ख़ैरख़्वाह नहीं....कभी रूस, तो कभी अमेरिका, तो कभी यू.एन.ओ., तो कभी पाकिस्तान और अब तालिबान भी फ़िराक़ में है। कोई भी चढ़ाई कर सकता है जैसे कोई भी सिपाही तुझ पर चढ़ सकता है। तेरे मुल्क का आकाश भी तेरी तरह ही है....जिसे पकड़कर जिसपर कोई भी.......कर सकता है। तेरे मुल्क का आकाश रांड है... रांड। तेरी तरह...। पर यह.....पाकिस्तान का आकाश देख इसे.....इससे पाक कुछ नहीं...बारिश के पानी की तरह पाकीजा....। इसे देख ले....। देख ले हरामी....।"

मैं उठकर खड़ा हो गया। मैंने उस सिपाही का हाथ पकड़ लिया। उससे गुज़्ज़रिश की। उसने ख़ान को झकझोर दिया। ख़ान ने पल भर को अपनी आँखें खोली। वह नीला आकाश बस झपकी भर, एक मिचमिची भर उसकी नीली आँखो में काँप गया.......। ख़ान के चेहरे पर डर और पागलपन एक साथ उतर आया। उसने गिरते पड़ते अपने को सिपाही के हाथ से छुड़ाया और पथरीले टीलों की और भाग खड़ा हुआ। वह बुरी तरह से चीख रहा था।

".....अबकी बार आकाश में बड़े-बड़े जहाज़ आयेंगे और ख़ूब आग गिरेगी। सब ख़त्म हो जायेगा......। सब मर जायेंगे। सारे जहाज़ जो आकाश में रहते हैं और घरों को लोगों को जला देते हैं…

वह भागता हुआ मुड़-मुड़कर सिपाही और मेरी तरफ़ देख रहा था।

...............सब ख़त्म। हाँ सब कुछ ख़त्म........…

उसकी आँखों से बेतरह पानी बह रहा था। वह अपनी बाँहों से अपनी बहती नाक और आखें पोंछ रहा था। उसका चीखना दूर तक सुनाई दे रहा था।

..........तुम झूठ बोलते हो। सब आकाश एक है। इधर का भी और कांधार का भी.......सब आकाश एक हैं। हाँ सब। देखना वो जहाज़ इधर भी आयेगा इधर के आकाश में भी आयेगा.......बहुत सारे जहाज़................जो आकाश में रहते हैं। वो आकाश के रास्ते आयेंगे। देखना........ तुम देखना.............। मुझे आकाश से निकलने वाली आग से डर लगता है.......वह सबको जला देगी, सब लोगों को....तुम्हारे अपने घर के लोगों को भी.…

वह मेरी ओर इशारा कर चिल्लाने लगा।

.......तुम भी झूठे हो..........…

वह किसी जल्लाद की तरह मेरी ओर देखने लगा।

.....ये सब रोटी और गोश्त देते हैं और तुम चाय पिलाते हो.....कहते हो मैं बहुत सुंदर हूँ...…

वह मुझे गालियाँ देने लगा।

.......आकाश ना होता तो हवा ना होती, आदमी ना होता, पंछी ना होते, सूरज चाँद ना होते....। आकाश ज़रूरी है। मेरे को चूतिया समझा है क्या.........…

वह फिर से मुझे गाली देने लगा। मैं हकबकाया सा उसे गिरता पड़ता, चीखता, रोता दूर तक जाता देखता रहा। ख़ालिद और वे दोनों सिपाही बुरी तरह से हँस रहे थे।

"पागल। अबे पागल। आज रात आना.............तेरे को गोश्त रोटी भी दूँगा और..........…"

उस रात मैंने अपनी डायरी में ख़ान की कहानी का अंतिम भाग लिखा।

एक लड़का जिसके लिए आकाश का मतलब है, बम गिराते जहाज़ों का ख़तरनाक अड्डा, कांधार के पास की एक ख़ुशमिजाज बस्ती को जलाकर राख करती दिन की तरह चमकीली लाल-पीली लपटें..............आकाश का मतलब है बिखरकर कचरा बनते घर रोते-चीखते लोग.............जिसके लिए आकाश वह है जिसकी वजह से उसके माँ, अब्बू और बहनों के अधजले, लटकते, बिखरते, ख़ून से लथपथ और कचरे की तरह फेंके जाते शरीर उसने देखे.....। आकाश ख़ून और बरबादी की उबसे बड़ी वजह है। ख़ान के घर को अयकयश ने ही ख़ाक़ किया था, आकाश ने ही उसे पागल बना दिया है.....आकाश से ख़ान को बहुत डर लगता है।

मैंने मान लिया ख़ान पागल नहीं है। डाक्टर एब्राहिम का डायग्नोसिस, इलाज और साइकियाट्रिक्स के स्थापित नियम सब ग़लत हैं। ख़ान हैलियोफोबिक नहीं है। उस दिन मैंने फिर से मान लिया कि वह पागल नहीं है.....।

कुछ दिनों बाद में वहाँ से लौटने की तैयारी कर रहा था। मुझे अगले दिन वापस दिल्ली जाना था। उस दिन शाम के खाने के ट्रक पर ज़बरदस्त हंगामा मचा था। आदमी, औरतों और इक्का-दुक्का बूढ़ों का एक दूसरे को निर्ममता से कुचलता, चीखता और एक दूसरे पर चढ़ता हुजूम....लाखों लोगों का पागल और ख़तरनाक हुजूम। पुलिस वालों के दो टैंट भी गिर गये। पुलिस जानवरों की तरह लोगों को डंडो से पिटती रही। मैं इस आवाज़ का अभ्यस्त था, पर उस दिन की चीख-पुकार और बेरहमी से कुचले पिटने वालों की आवाज़ भयंकर थी। पता चला दो दिन से खाने के ट्रकों की संख्या कम हो गई है। दो सौ पैंतीस ट्रकों से घटकर एक सौ पचहत्तर। यू.एन.ओ.के अधिकारियों ने पाकिस्तान पुलिस और लोकल अधिकारियों को ज़बरदस्त फटकार लगाई है।

काफ़ी देर बाद सब कुछ शांत हो गया। रात घिर आई थी। सिपाहियों के टैंट और रोड के बीच जहाँ छह घण्टे गदर और बेरहम लूटपाट मची थी, वहाँ से किसी के सिसकने की आवाज़ आ रही थी। कोई नीले बुरके वाली अफ़गानी औरत थी, जो किसी आदमी के कुचलकर मरे शरीर के पास बैठी सुबक रही थी। मैंने अपना कैमरा उठाया उसमें फ़्लैश अटैच किया और इस दृश्य की फोटो लेने चल पड़ा। ऐसे दृश्य मेरी आमदनी के सबसे अच्छे स्रोत हैं.......पत्रिका का संपादक इसके लिए ख़ासे पैसे देता है। बेरहम दृश्यों में मुझे नोटों की गड्डियाँ दीखती हैं।

सिपाही खाना खाकर सो चुके थे। किसी टैंट से पियक्कड़ सिपाहियों के हँसने और गालियाँ देने की आवाज़ आ रही थी। पास ही अँधेरे मेंकोई चपर-चपर कर कुछ खा रहा था। जब मैं उस अँधेरे के पास से गुज़रा तो वह चपर-चपर बंद हो गई। उस तरफ़ अँधेरा था। एक छाया सी दिखती थी। गौर से देखने पर उस छाया की दो आँखें दीखती थीं..... जिस पर चाँद का काँपता सा बिम्ब था। वे आँखें मुझे घूर रही थीं। मुझे ख़ालिद की बात याद आई, ख़ान इस तरफ़ रोज़ रात आता है। गोश्त और रोटी का लालच...। मैंने धीरे से पुकारा - ख़ान।

वे आँखें यथावत रहीं। मुझे बचपन में हमारे घर में पले खूंखार लेब्रेडोर कुत्ते की याद आ गई। जब वह खाने के बरतन में मुँह घुसाकर चपर-चपर खाता था, तब उसके पास जाकर खड़ा होना काफ़ी खौफ़नाक था। वह खाना छोड़कर अपनी आँखों को चौड़ाकर घूरता...। उसके ऊपरी जबड़े से दो नुकीले दाँत बाहर निकल आते, उसके दोनों खड़े कानों के बीच की खाल पर गहरी सर्पाकार नालियाँ सी बन जातीं और उसके गुर्राने की हल्की पर खौफ़नाक आवाज़ आती..........मुझे ख़ान की आँखें देखकर डर लगने लगा। वे अब पागल की, हैलियोफोबिक की आँखें नहीं थीं ...उन्हें मैंने अब तक कुछ और नहीं जाना था। लगा जैसे कुत्ते की तरह लपकर वह मेरी गर्दन में अपने नुकीले दाँत घुसा देगा......। मैं डर के मारे उल्टे पाँव ख़ालिद के होटल वापिस आ गया।

उस रात मुझे नींद आने तक उस औरत के सुबकने की आवाज़ सुनाई देती रही।

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