हर युद्ध तू स्वीकार कर - 3
ज्योति मिश्राहर अश्रु को हथियार कर,
हर चुनौती को पार कर,
हो विजय पथ पर अग्रसर,
न दासता स्वीकार कर॥
असहाय निर्बल जानकर,
जो प्राण को निष्प्राण कर,
था गर्त में तुझे ले गया,
उसके विरुद्ध आवाज़ कर॥
तेरी देह पर अधिकार कर,
तेरी अस्मिता तार - तार कर,
जो ख़ुद को कहते श्रेष्ठ हैं,
हो उठ खड़ी, उनपर वार कर॥
दानव का दर्प तोड़कर,
तू काल का मुँह मोड़ कर,
पंकज से तू, पाषाण बन,
अपरुष का प्रांतर छोड़ कर॥
पट को जो तेरे चीर कर,
तेरी शीलता को क्षीण कर,
हैं दंभ से गर्वित खड़े,
उन नेत्रों को नेत्र नीर कर॥
बन त्रिपथगा उद्धार कर,
अरुण प्रिया बन शृंगार कर,
तू ज्ञान से परिपूर्ण है,
त्रिनेत्रा बन उजियार कर॥
भय की तू, न आवृत्ति कर,
स्वयं का तू, स्वामित्व कर,
अबला नहीं तू, शक्ति है,
तू आदि है, ये सिद्ध कर॥
स्थिरता को चरितार्थ कर,
अयथार्थ को तू, यथार्थ कर,
कलयुग के दुः शासन विरुद्ध,
हर युद्ध तू स्वीकार कर॥
हर युद्ध तू स्वीकार कर॥
1 टिप्पणियाँ
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बहुत सुंदर रचना है।