हमारी प्रकृति

15-08-2020

हमारी प्रकृति

सुनीता सिंह (अंक: 162, अगस्त द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

अम्मा जी 70 वर्ष से ऊपर की ही हैं। प्रतिदिन सुबह घूमने निकलती हैं। अपने लॉन में घूमते हुए मैं अक़्सर उन्हें देखती रहती हूँ।

यहाँ घरों के सामने वाली सड़क के मध्यभाग में पेड़-पौधे लगे हैं। इसी भाग में अपने घर के ठीक सामने मैंने देसी नीम का एक पौधा लगाया है।

एक दिन मैंने देखा कि उन माँ जी ने उस पौधे के ऊपरी भाग की नवागत पत्तियाँ तोड़ लीं। मैंने टोका, "माँ जी, इतने छोटे पौधे की पत्तियाँ तोड़ने से उसका बढ़ना रुक जाएगा, पौधा मर भी सकता है। आवश्यकता है तो आप किसी बड़े पेड़ से पत्तियाँ तोड़ा करें।"

माँ जी बिना कोई प्रतिक्रिया दिए आगे बढ़ गईं, शायद उन्हें बुरा लग गया।

दो-तीन दिन बाद मैंने देखा कि उस पौधे मैं फिर से कोंपले आ गईं हैं। अगले दिन उन्हीं माँ जी ने फिर कोंपलें तोड़ लीं। आज मैंने नहीं टोका; यद्यपि पत्तियाँ तोड़ने के बाद मेरी और माँ जी नज़रें आपस में टकरा तो गईं थीं।

दो तीन दिन बाद पौधे में फिर नई कोंपले आ गईं, उसके अगले दिन माँ जी ने फिर उन्हें तोड़ लिया। पिछली जून से रोज़ यही सिलसिला चल रहा है, पौधे में नई कोंपले आती हैं, माँ जी तोड़ लेती हैं, पत्तियाँ फिर आ जाती हैं, लगता है कि दोनों में होड़ लगी हुई है।

मेरे मस्तिष्क में आज यह विचार आ पाया है कि पौधे में पत्तियाँ माँ जी के लिए ही आती हैं; प्रकृति कुछ लेती नहीं है, केवल देती है।

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