एक सुंदर हाइकु-संग्रह : 'साँसों की सरगम'

01-07-2014

एक सुंदर हाइकु-संग्रह : 'साँसों की सरगम'

नीलमेंदु सागर

पुस्तक : साँसों कि सरगम
कवि : डॉ रमा द्विवेदी
संस्करण : प्रथम 2013
मूल्य :रुपए 150 /-
प्रकाशक : हिन्द- युग्म, नई दिल्ली -16

"साँसों की सरगम" कवयित्री रमा द्विवेदी के 569 निर्दोष हाइकुओं का सद्य: प्रकाशित प्रथम सुन्दर संग्रह है जिसकी भूमिका हिन्दी के जाने-माने गम्भीर हाइकुकार रामेश्वर काम्बोज "हिमांशु" ने लिखी है तथा जिसके मनोहर मुखावरण के अंत:पटल पर चर्चित साहित्यकार सतीशराज पुष्करणा तथा बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की उपनिदेशक मिथिलेश कुमारी मिश्र के सार्थक मंतव्य हैं। यों तो "साँसों की सरगम" स्वयं में एक पठनीय और सराहनीय हाइकु संग्रह है किन्तु भूमिका और मंतव्यों ने उसकी सार्थकता और महत्ता को और भी पोख्ता कर दिया है।

समीक्ष्य संग्रह के विविध भंगी हाइकु "प्रकृति पर्यावरण के विविध रूप" से लेकर "गूगल दादा और फेस बुक अजब-गज़ब" तक कुल 16 शीर्षकों के दायरों में सलीके के साथ सजाये गए हैं, जो आयातित हाइकु काव्य विधा को नए देश-काल-परिवेश में प्रतिष्ठित करने के सार्थक एवं सराहनीय प्रयास कहे जा सकते हैं। भारतीय (विशेषकर हिन्दी) हाइकु अपने मूल एवं परंपरागत विषय (प्रकृति और अध्यात्म) से आगे बढ़कर बहुविषयक एवं तुकाग्रही होता जा रहा है। फलत: हिन्दी में हाइकु और सेनरयू का विभेद मिट चुका है और हाइकु का सप्तदशाक्षरी छंद रूप प्रयोग में आने लगा। हाइकु गीत, हाइकु यात्रा काव्य, हाइकु खंड काव्य, हाइकु रामायण आदि हाइकु की छंदात्मक प्रकृति के ही परिणाम हैं परन्तु सब कुछ के बावजूद हाइकु का हाइकुपन उसके कविता होने में ही निहित है। कविता होना ही हाइकु का मौलिक गुण है और सब दिन रहेगा चाहे वह किसी भी भूखंड की जिस किसी भाषा में जब कभी लिखा जाए। अत: किसी हाइकु संग्रह की कसौटी संग्रहीत रचनाओं की काव्यात्मकता है, न कि विषयगत बहुलता या विविधता।

परन्तु "कविता क्या है" बड़ा विवादास्पद प्रश्न है इसलिए "क्या कविता नहीं है" से हमें अपनी बात शुरू करनी चाहिए। गद्द्य कविता नहीं है, तो कोरा पद्य भी कविता नहीं है, और अजब यह कि कविता गद्य और पद्य से परहेज भी नहीं करती, उनसे अलग रह भी नहीं सकती। आखिर क्या बला है कविता? बहुत पुराना, बहुत गहरा और कदाचित बड़ा जटिल प्रश्न है यह। इसलिए कविता की विभिन्न परिभाषाओं और उसके सम्बन्ध में झड़बेरी की तरह उगे परस्पर विरोधी विचारों एवं वाद-विवादों में उलझने से अच्छा और अधिक सुविधाजनक है "महामनो येन गता: सा पंथा :" वाले अनुभव सिद्ध सिद्धांत को ध्यान में रखकर आनंद वर्धनाचार्य की बात मान लेना कि "काव्यस्यात्मा ध्वनि:" है।

वास्तव में कविता वह नहीं है जो गद्य या पद्य में कहा जाता है बल्कि वह जो ध्वनित होता है, जिसकी ओर संकेत किया जाता है। ऐसा लगता है कि यह आर्षवचन हाइकु जैसी कविता के लिए कहा गया है क्योंकि ध्वनि और संकेत प्रधान कविता है। इसकी भाषा शैली वर्णनात्मक, विश्लेषनात्मक या व्याख्यात्मक नहीं बल्कि बिम्बात्मक, संकेतात्मक एवं ध्वन्यात्मक होती है। स्वभावत: भाषा और भाव का वैभिन्य हाइकु को स्वीकार्य नहीं है। कवि तुलसीदास जी ने प्रकारांतर से भाव और भाषा के तादात्म्य संबंध को इस प्रकार चित्रित किया है :"गिरा अर्थ जलबीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न"। अत: हाइकु छंद से अधिक मुक्तक प्रकृति की एक शुद्ध कविता है - सांकेतिक कविता, जिसके कथ्य और शिल्प ही के बीच एक केंद्रीय लय अटूट ढंग से विद्यमान रहती है। यही कारण है कि पत्र-पत्रिकाओं में धड़ल्ले से छप रही और आकर्षक संग्रहों के रूप में प्रकाशित हो रही अधिसंख्य रचनाएँ आकार में हाइकु हैं, गुण और प्रकृति में नहीं, ठीक वैसे ही जैसे आदमी-से दीखने वाले सभी लोग वास्तव में आदमी नहीं होते बल्कि "मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति" को चरितार्थ करते हैं।

प्रसन्नता की बात है कि "साँसों की सरगम" के अधिसंख्य हाइकु कविता के रूप में अपनी मुकम्मल पहचान बनाने में पूर्णत : सफल प्रतीत होते हैं। उनमें सांकेतिक और ध्वन्यात्मक काव्य की मर्यादा का समुचित निर्वाह मिलता है। दैनिक जीवन के अनुभूत सत्य को कवयित्री रमा ने सौंदर्य चेतना जनित सांकेतिक पदावली में बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति दी है, यथा -

* अखियाँ भरीं /चपला जगमग /पत्र बाँचती
* डोली में बैठी / लाल ओढ़नी ओढ़ /धू -धू वो जली
* सुलगती -सी /पड़ी है ऐश-ट्रे में /औरत है वो
* सपने बुने /अलगनी में पड़े /सूखते रहे
* बेचती हूँ मैं /अपना बचपन /खिलौने संग
* किसी मोड़ पे /काश मिल जाएँ वो / करीब हैं जो
* वेदना पाती /वेदना ही मैं गाती / तुम्हें लौटाती, आदि

इन हाइकुओं में अनेक संकेत छुपे हैं जो कवयित्री की प्रांजल काव्य-भाषा में मार्मिक ढंग से ध्वनित और अभिव्यक्त होते हैं। इनमें जिस भी हाइकु पर ध्यान दें, उसकी काव्यात्मक मार्मिकता और महत्ता उजागर हुए बिना नहीं रह सकती। प्रथम हाइकु प्रकृति-बोधक है। यह बादल, बिजली और अँधेरी रात के अंतर्संबंध और प्रकृति-सौंदर्य का सुन्दर चित्र है परन्तु इससे अधिक के संकेत भी इससे ध्वनित होते हैं - गहरे मानवीय संबंध जन्य दुःख-सुखानुभूति भी बिम्बित होती है। वियोगाकुल डबडबाई आँखों में प्रेम पत्र मिलने और बाँचने की सुखानुभूति भी जगमगाती दीख पड़ती है। इस हाइकु के तीनों पद अलग-अलग होकर भी एकार्थ केंद्रित हैं, त्रिदल की भाँति। साथ ही, प्रथम और तृतीय पद ईकरांत होने के कारण अतिरिक्त भाषागत लय का भी सुख देते हैं। इसी तरह दूसरे हाइकु में लाल ओढ़नी ओढ़ कर डोली में बैठी दुल्हन का धू-धू जलना जितनी अर्थ व्याप्ति ध्वनित करता है उतनी पृष्ठ भर के वर्णन में भी सम्भव नहीं। लाल ओढ़नी लाल लपटें बन जाती हैं और धू-धू जलना इसकी वर्त्तमान आतंरिक जलन का बोध कराता है तो भविष्य में शारीरिक जलन का भी। लड़की की इच्छा के विरुद्ध हुई शादी और विवाहोपरांत दहेज़ प्रताड़न दोनों के स्पष्ट संकेत इस इस हाइकु में हैं। इसी प्रकार अन्य उद्धृत हाइकु भी कवयित्री की क्षण की अनुभूति में गहरे और व्यापक सत्य के दर्शन कराते हैं और निर्विवाद रूप से उत्तम हाइकु कविता की कोटि में आते हैं। स्थानाभाव के कारण सबका विश्लेषण यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी उद्धृत तीसरे हाइकु से ध्यान नहीं हटता। भोग्या से परित्यक्ता हुई औरत की अन्तर्जलन और धुआँती धुँधली साँझ को जीवंत अभिव्यक्ति देने के लिए ऐश-ट्रे में फेंक दी गई सिगरेट-बट्स से बेहतर शायद ही कोई बिम्ब हो। इस हाइकु में टी-सी -डी का ध्वनि साम्य इसकी केंद्रीय आतंरिक लय को और भी हृदय द्रावक बना देता है।

लेकिन ऐसा नहीं कि "साँसों की सरगम" के सभी 569 हाइकु हाइकु कविता हैं। कोई हाइकुकार यह दावा नहीं कर सकता कि उसके सभी हाइकु पूर्णत: काव्य हैं, और न ही कोई कवि यह कह सकता है कि उसकी सभी रचनाएँ शत-प्रतिशत कविता हैं। इसलिए कवयित्री रमा को हतोत्साह होने की ज़रूरत नहीं है कि उसके कतिपय हाइकु मध्यम और निम्न श्रेणी के हैं, जिनके कुछ उदाहरण क्रमानुसार निम्नांकित है -

1 - कली का हुस्न /ओस से नहाया यूँ /सद्य: स्नाता ज्यूँ
- छू गया झोंका /मलय अनिल-सा /खुशबू भरा
- दीये-सा जले /मेहनत जो करे /समृद्धि पाये
* * *
2 - जीवन दाता /बन गया राक्षस /सुरक्षा कहाँ?
- मंत्रोच्चारण /विवाह का आधार /है निराधार
- मुबारक हो /जन्म दिन तुम्हारा /गूगल बाबा

रमा जी की भाषा सशक्त और परिमार्जित है। भावों कि तरलता में डूब कर मनभावन रस को आत्मसात कर लेने की उसमें बड़ी क्षमता है। यही कारण है कि उनकी अनेक सप्तदशाक्षरी त्रिदल रचनाएँ हाइकु न होकर भी हाइकु होने का सुखद भ्रम पैदा करती हैं। क्रमांक -1 उद्धृत तीनों रचनाएँ इस दृष्टि से अवलोकनीय हैं। ये तीनों साधारण अभिधात्मक कथन हैं जिनमें उपमा के सहारे काव्याभास की प्रतीति कराई गई है। ध्यातव्य है कि उपमा या ऐसे ही अन्य अलंकार हाइकु के अनिवार्य तत्व नहीं है। डॉ. सत्यभूषण वर्मा के शब्दों में हाइकु का काम है "जो वस्तु जैसी है, उसे वैसा ही चित्रित करना, एक सौन्दर्यजनित दृष्टि के साथ।"

क्रमांक -२ की तीनों रचनाएँ सप्तदशाक्षरी त्रिदल छंद मात्र हैं -संकेतशून्य झनझनाते शब्द समूह मात्र। इनमें काव्य नहीं है, काव्याभास भी नहीं है। ये सपाट कथन हैं। अत: रूपाकार के आधार पर इन्हें हाइकु मानकर निम्न कोटि के अंतर्गत रखा जा सकता है।

परन्तु, परम संतोष की बात यह है कि ऐसे निम्न कोटि के हाइकु इस संग्रह में उसी अनुपात में हैं जिस अनुपात में पूर्ण राका शशि पर काले धब्बे। यदि काले धब्बों से पूर्णचंद्र की, अथवा गोरे गाल पर काले तिल से रमणी की अथवा काँटों से गुलाब की सुंदरता, महत्ता और लोकप्रियता घटने की बजाय बढ़ती ही है तो कोई कारण नहीं है कि "साँसों की सरगम" अपनी सीमाओं के बावजूद पाठकों को सुन्दर, महत्तवपूर्ण, पठनीय और संग्रहणीय नहीं लगे। विविध भंगिमाओं वाले निर्दोष और सुन्दर हाइकुओं के इस सजिल्द और स्तरीय संग्रह के लिए डॉ. रमा को बहुत-बहुत हार्दिक बधाइयाँ।

नीलमेन्दु सागर
(मो.09931948714 /09971456399 )

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