दशरथ माँझी और यथार्थवादी संघर्ष

02-06-2016

दशरथ माँझी और यथार्थवादी संघर्ष

आनंद दास

दशरथ माँझी एक बेहद पिछड़े इलाक़े से आते थे और दलित जाति से थे। शुरुआती जीवन में उन्हें अपना छोटे से छोटा हक़ माँगने के लिए संघर्ष करना पड़ा। वे जिस गाँव में रहते थे वहाँ से पास के क़स्बे जाने के लिए एक पूरा पहाड़ (गहलोर पर्वत) पार करना पड़ता था। उनके गाँव में उन दिनों न बिजली थी, न पानी। ऐसे में छोटी से छोटी ज़रूरत के लिए उस पूरे पहाड़ को या तो पार करना पड़ता था या उसका चक्कर लगाकर जाना पड़ता था। दशरथ माँझी ने फाल्गुनी देवी से शादी की। दशरथ माँझी को गहलौर पहाड़ काटकर रास्ता बनाने का जूनून तब सवार हुया जब पहाड़ के दूसरे छोर पर लकड़ी काट रहे अपने पति के लिए खाना ले जाने के क्रम में उनकी पत्नी फगुनी पहाड़ के दर्रे में गिर गयी और उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी की मौत दवाइयों के अभाव में हो गई, क्योंकि बाज़ार दूर था। समय पर दवा नहीं मिल सकी। यह बात उनके मन में घर कर गई। इसके बाद दशरथ माँझी ने संकल्प लिया कि वह अकेले दम पर पहाड़ के बीचों बीच से रास्ता निकलेगा और अतरी व वजीरगंज की दूरी को कम करेगा।

दलितों के जीवन का केंद्रीय विषय हमेशा जातिगत उत्पीड़न ही रहा है जो उनके जीवन की सच्चाई भी है। "गहलौर गाँव की ज़रूरत की हर छोटी बड़ी चीज़, अस्पताल, स्कूल सब वजीरपुर के बाज़ार में मिला करते थे लेकिन इस पहाड़ ने वजीरपुर और गहलौर के बीच का रास्ता रोक रखा था। इस गाँव के लोगों को 80 किलोमीटर लंबा रास्ता तय करके वजीरपुर तक पहुँचना पड़ता था। ना बड़ी-बड़ी मशीनें थीं और ना ही लोगों का साथ – दशरथ माँझी अकेले थे और उनके साथ थे बस ये छेनी, ये हथौड़ा और 22 बरस तक सीने में पलता हुआ एक जुनून। उन्होंने छेनी व हथौड़े की मदद से दो दशक में गहलौर की पहाड़ियों को काटकर 20 फीट चौड़ा व 360 फीट लंबा रास्ता बना दिया। इस रास्ते के बन जाने से अतरी ब्लॉक से वजीरगंज की दूरी मात्र 15 किलोमीटर रह गई। जबकि वजीरपुर और गहलौर के बीच की दूरी मात्र 2 किलोमीटर रह गयी।"1 "माँझी द माउंटेन मैन" में दलितों के जीवन का यथार्थवादी संघर्ष है। हम जितने साल अंग्रेज़ों के ग़ुलाम नहीं रहे उससे कहीं ज़्यादा उस समाज के ग़ुलाम रहे जो जाति और धर्म की आड़ में कमज़ोर लोगों को खरपतार की तरह कुचलता रहा है। कमज़ोर आज भी इस समाज के ग़ुलाम हैं। "दशरथ माँझी के बेटे भागीरथ माँझी आज भी बकरी चराने को मजबूर हैं। उनका परिवार झोपड़ी में रहता है और पैसे के लिए मुर्गी और बकरी पालता है।"2 "माँझी द माउंटेन मैन" दलित, आदिवासी या वंचित तबकों के वास्तविक जीवन में नायक-नायिका पर बनने वाली अमुख्यधारा की घटना है। दलितों के जीवन का केंद्रीय विषय हमेशा जातिगत उत्पीड़न ही रहा है जो उनके जीवन की सच्चाई भी है। दशरथ माँझी सामन्ती व्यवस्था से संघर्ष करते हैं। एक सबसे ग़रीब और अत्यंत ही वंचित तबके के व्यक्ति का प्रेम। दलितों के जीवन में व्यक्तिगत प्रेम जैसी कोई वस्तु ही नहीं होती। सामाजिक दंश को झेलते हुए भी कोई व्यक्ति अपने प्रेम के लिए कुछ भी कर सकता है। हर तरह की स्थितियाँ चाहे वो सामाजिक हो या आर्थिक दशरथ माँझी के विपरीत थीं। फिर भी वो अपनी पत्नी फगुनिया से अथाह प्रेम करता है। जब तक फगुनिया जीवित रहती है, माँझी कहता है कि "कैसे बताएँ कि हम तुमसे कितना प्रेम करते हैं?" वह अपने प्रेम की भावना को प्रकट करने के लिए उपहार का प्रतिरूप फगुनिया को भेंट करता है। लेकिन उपहार एक शक्तिशाली और सम्पन्न शासक के प्रेम की अभिव्यक्ति है। "पाँच फुट का इंसान बहुत ही मजाकिया था, जब वो हँसता था तो दिल खोल कर हँसता था। बीबी से बहुत प्यार करता था।"3 उसमें एक ग़रीब और दलित के प्रेम को अभिव्यक्ति कैसे मिल सकती है? वह उपहार की कल्पना कर सकता है पर हक़ीक़त में बना तो नहीं सकता। यहाँ कहने का अभिप्राय यह है कि वो सौन्दर्य के परम्परागत प्रतिमानों पर तो कहीं से भी खरी नहीं उतरती होगी। फिर भी दशरथ माँझी को उससे असीम प्रेम था जिसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार था। दशरथ माँझी जिस जाति (मुशहर) से आते हैं वहाँ आज भी बाल विवाह और दूसरे विवाह का प्रचलन आम है। इसके बावजूद दशरथ माँझी दूसरा विवाह नहीं करते हैं। वास्तव में फगुनिया उनके लिए मरी ही नहीं थी। दशरथ माँझी में प्रेम की पराकाष्ठा को बहुत ही गहराई से दिखता है। दशरथ माँझी की पहाड़ तोड़ने की ज़िद, हर तरह की कठिनाइयों को सामना करने साहस; इन सबके पीछे की एक मात्र प्रेरणा उनका प्रेम था। वे पहाड़ से बदला लेते हैं पर शत्रु बनाकर नहीं मित्र बनाकर। उनका उद्देश्य सिर्फ उसकी अकड़ को तोड़ना था। वास्तव में दलित और बेहद ग़रीब दशरथ माँझी के पास ऐसा कुछ नहीं था जिससे वो फगुनिया के प्रति अपने प्रेम को बयान कर पाते इसलिए उन्होंने उस पहाड़ को ही तोड़ने की ज़िद ठानी जिसने उनसे उनकी फगुनिया को छीना था। प्रेम के लिए पहाड़ से टकराने का मुहावरा तो बहुत आम है लेकिन दशरथ माँझी ने इस मुहावरे को सचाई में बदल दिया। एक बहुत ही प्रसिद्ध शे’अर है कि ‘एक बादशाह ने ताजमहल बनाकर हम ग़रीबों की मुहब्बत का मज़ाक उड़ाया है’। दशरथ माँझी के कहानी को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि "एक ग़रीब ने पहाड़ तोड़कर ताजमहल का मुँह चिढ़ाया है"। अकेले पहाड़ तोड़कर 22 वर्षों में बनाया गया वह रास्ता ताजमहल की तुलना में कहीं अधिक बड़ा प्रेम का प्रतीक है। शाहजहाँ को अगर अकेले ताजमहल बनाना होता तो शायद ही वह न बना पाता लेकिन दशरथ माँझी ने अकेले ही पहाड़ को तोड़ दिया। एक दलित और ग़रीब का प्रेम जीवन की कठिनाइयों से जूझकर विकसित होता है इसीलिए उसका सार्थक परिणाम सामाजिक होता है। ताजमहल की भव्यता किसी ग़रीब को राहत नहीं दे सकती पर गहलोर गाँव की उस सड़क ने कई लोगों की कठिनाइयों को दूर किया है।

अभी भी मजबूरियों से पार पाने की कोशिश में लगा है। "दशरथ माँझी के परिजनों को आज तक इंदिरा आवास का लाभ नहीं मिला। सरकार के वादों को सिर्फ याद करके संतोष करते हैं कि एक दिन मेरा भी घर बन जाएगा।"4 हो सकता है इसमें मगध का पूरा परिवेश उभर नहीं पाया हो या जातिगत-सामन्ती उत्पीड़न का बहुत ही सतही चित्रण हो। हर तरह के उत्पीड़न के बीच भी कोई दलित उसी तीव्रता और गहराई के साथ प्रेम कर सकता है और किया है, जिस तीव्रता के साथ अन्य वर्ग या जातियों के ऐतिहासिक प्रेमियों ने किया है। संभवतः इस प्रेमियों से महान प्रेम था दशरथ माँझी इस बात को सिद्ध करने में सफल रही है। दशरथ माँझी हमेशा कहते – "शानदार, जबर्दस्त, जिंदाबाद"।

संदर्भ-सूची

1--https://hi.wikipedia.org/wiki/
2--http://www.bhaskar.com/news/c-268-469098-pt0171-NOR.html
3--http://pforpooja.blogspot.in/2015/08/blog-post_29.html
4--http://www.bhaskar.com/news/c-268-469098-pt0171-NOR.html

शोधार्थी
आनंद दास
कलकत्‍ता विश्‍वविद्यालय
4 मुरारी पुकुर लेन, कोलकाता-67
मो. नं. – 9804551685
ईमेल- anandpcdas@gmail.com 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें