दर्द जब हद से गुज़र जाए

15-09-2020

दर्द जब हद से गुज़र जाए

डॉ. अनीता शर्मा (अंक: 164, सितम्बर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

फाल्गुनी अपने पति मेहर महाजन के साथ यूरोप के टूअर पर निकली है। एक महीने का टूअर– रोम, वेनिस जैसे सुंदर-सुंदर शहरों के नज़ारे लेते हुए पेरिस पहुँचे हैं। पेरिस की छटा है बहुत सुहानी! आज का दिन ख़ूब मज़े किए, तीन और दिन का यहाँ पर प्रोग्राम है; वही लिस्ट बना रही है कि कल कौन-कौन सी जगह पर घूमने जाना है। मेहर का बीयर पीने का मन हो रहा था, वह नीचे बार तक गया है। तभी उसकी सहेली दीपिका का फोन आ गया। दीपिका उसकी दूर की रिश्तेदार होने के साथ-साथ उसकी परम मित्र भी है। उसीने फाल्गुनी को घूमने के लिए भेजा है क्योंकि शादी के बाद डेढ़ साल तक वे कहीं घूमने नहीं निकल पाए थे। फोन उठाते ही उधर से दीपिका की आवाज़ आयी।

“फुगु, अच्छा बताओ तुम्हारी सास कैसी है?”

‘क्यों, क्या हुआ?”

“बस यूँ ही पूछ रही हूँ, उनका बिहेवियर वग़ैरह।“

“अरे भई दीपी, माना कि तुम साइकोलोजी में डॉक्टरेट कर रही हो पर इसका यह मतलब नहीं कि मेरी सास को ही केस बना पढ़ना शुरू कर दो। और हाँ, तुम्हें याद दिला दूँ, हम यहाँ घूमने के लिए निकले हैं। दीपी ये बातें बाद में भी कर सकते हैं, बताओ ये कोई टाइम है ऐसी बातें करने का? मैं अपने अच्छे-भले मूड में थी और तुमने ये क्या शुरू कर दिया है यार?”

“हाँ यार, यह तो मैं भूल ही गई आप घूमने निकले हो और वो भी शादी के बाद पहली बार, तुम्हें ख़ुद के लिए कुछ समय तो मिलना ही चाहिए, अच्छा मैं रखती हूँ।“ कहकर दीपिका ने फोन रख दिया लेकिन उसके मन की उथल-पुथल कम नहीं हो रही थी।

फाल्गुनी और दीपिका की दूर की कज़िन लेकिन दोनों सगी बहनों की तरह हैं। दोनों एक-दूसरे के साथ हर बात साझा करती हैं। फाल्गुनी की शादी अपनी मर्ज़ी से डेढ़ साल पहले मेहर से हुई और बहुत ख़ुश थी फाल्गुनी अपने घर में। उसने कभी भी ऐसा कुछ बताया नहीं अपनी सास के बारे में जो अटपटा हो। दीपिका भी फाल्गुनी से मिलने तीन-चार बार तो आयी है लेकिन वह यहाँ ज़्यादा देर नहीं ठहरी, एकाध दिन ठहरकर वापस चली गई। आंटी से यानी फाल्गुनी की सास से मिलकर वो ऊपर फाल्गुनी के पास चली जाती थी। उसे कोई अंदाज़ा नहीं है कि आंटी कैसी हैं। लेकिन अब इस बार दीपिका ने फाल्गुनी को ख़ुद ही कहा कि वह मेहर के साथ कहीं घूम आए, उसकी सास की देखभाल करने के लिए एक महीना उनके पास रुक जाएगी। सो वो एक हफ़्ते से दीपिका-फाल्गुनी के घर में है और इस बीच उसकी सास की बहुत अजीब-अजीब हरकतें नज़र आने लगी हैं।

पहले वह जब भी फाल्गुनी से मिलने आयी तो आंटी को उसने एक गरिमामय स्त्री के रूप में ही देखा है, आंटी की टाँगे नहीं चलती, सीढ़ियों से गिर जाने के कारण उनके स्पाइनल कॉर्ड में चोट लगी, उसके बाद वो उठकर चल नहीं पायीं, व्हील चेयर से घर में ही थोड़ा घूम लेती हैं। ऊपर का हिस्सा ठीक है लेकिन टाँगें नहीं चलतीं। ऐसी अवस्था के बावजूद भी उनको हमेशा संतुष्ट और ख़ुश देखा है। फाल्गुनी भी हमेशा अपनी सास की तारीफ़ ही करती है। आंटी ने फाल्गुनी को कभी माँ की कमी महसूस नहीं होने दी, ना कोई रोक-टोक और ना ही कभी उन्होंने उस पर कभी किसी तरह रीति रिवाज़ या मान्यताएँ थोपने की कोशिश की। इसीलिए दीपिका ने उनके साथ एक महीना रहने की हामी भर दी थी। हालाँकि उन्होंने उसे कभी कुछ नहीं कहा। वह अपनी मर्ज़ी से, जैसे मर्ज़ी रहे, जो चाहे करे उन्होंने टोकना तो छोड़, एक बार सर उठाकर देखा तक नहीं। फाल्गुनी के ससुर तो उसे मिलते ही रात को हैं। दस, साढ़े दस घर आते हैं, खाना खाकर आंटी के पास बैठ आधा-पौन घंटा बात करके ऊपर चले जाते हैं सोने के लिए।

पहले ही दिन दीपिका को बेहद अजीब लगा जब वह आंटी के कमरे में बैठी उनसे बात करते हुए अपनी किताब उनके मेज़ पर भूल आयी और याद आते ही लेने गई तो दरवाज़े की कुंडी लग चुकी थी। उसने दरवाज़ा खटखटाया तो आंटी ने बेड के पास लगे स्विच से दरवाज़ा खोल दिया लेकिन उसे यह बात अजीब लगी कि मेज़ आंटी से दूर दूसरी दीवार के साथ रखा है और उसने किताब मेज़ पर रखी थी, वही किताब आंटी के बेड पर पड़ी थी आंटी ने कुछ खिसिआते हुए उसे किताब दे दी और बोली, ”’ऑटोबायआग्रफ़ी ऑफ़ अ योगी’ मेरी फ़ेवरेट बुक्स में से एक है, मैंने बहुत साल पहले पढ़ी थी। अच्छा, तुम ख़त्म कर लो, उसके बाद मुझे भी देना पढ़ने के लिए।”

दीपिका ’जी आंटी’, कह गेस्ट रूम में आ गयी। लेकिन यह बात उसे काफ़ी देर तक परेशान करती रही कि इतनी जल्दी किताब मेज़ से आंटी के बेड पर कैसे आ गयी? कुछ देर बाद वह फिर अपने काम में मसरूफ़ हो गयी। लेकिन अगले ही दिन एक बार फिर से शक की वज़ह मिल गयी उसे। खाना बनाने वाली महाराजिन आंटी को चाय पकड़ाने आयी तो दरवाज़ा खुलने पर उसने आंटी को मेज़ के साथ वाली चेयर पर बैठे देखा, महाराजिन ने ट्रे मेज़ पर रखी, यह उसने अपनी आँखों से देखा। महाराजिन उसे भी चाय दे गई तो उसने सोचा वह भी आंटी के पास बैठकर चाय पीले। उसने दरवाज़ा खटखटाया, जैसे ही दरवाज़ा खुला, वह फिर से हैरान रह गयी। आंटी बेड पर बैठी थी और ट्रे भी बेड पर ही रखी थी। उसे एक झटका सा लगा। उसे लगा कुछ न कुछ गड़बड़ ज़रूर है पर उसे इस समय कुछ भी बोलना ठीक नहीं लगा।

इसके बाद उसने घर में हो रही हर गतिविधि पर ध्यान देना शुरू कर दिया। सबसे पहले उसे यही बात अजीब लगी कि आंटी के कमरे की कुंडी हरदम अंदर से बंद क्यों रहती है। आंटी तो चल भी नहीं सकती, उन्हें अपने हर छोटे-बड़े काम के लिए किसी की मदद की ज़रूरत रहती है। उसने महाराजिन से पूछा, “क्या आंटी हमेशा ऐसे ही दरवाज़े की कुंडी लगाकर रखती हैं?”

“हाँ, उन्हें हर समय दरवाज़ा खुला रखना पसंद नहीं।”

“लेकिन अगर उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ जाए तो?“

“तो वह बेल बजा देती हैं ना, दीदी आप क्यों पूछ रही हैं यह सब, आजतक छोटी बहु ने तो कभी कुछ नहीं पूछा।”

“अरे मैं तो यूँ ही पूछ रही हूँ, आंटी चल नहीं सकती, कभी गिर-विर जायें तो कैसे कोई अंदर जाएगा।”

“उसकी चिंता आप न करो, मेरे पास हमेशा दरवाज़े के लॉक की चाबी रहती है,” कहकर वह दीपिका को ऐसी नज़रों से घूरकर गयी जैसे दीपिका ने उसके घर में सेंध लगा दी हो।

दीपिका अब हरदम काफ़ी चौकन्नी रहने लगी, उसे चैन नहीं आ रहा था। तीन दिन बाद जब वह गेस्ट रूम में सो रही थी, उसे साथ वाले कमरे में से किसी के पैरों के थिरकने की आवाज़ें आ रही थीं। उसने कान लगा कर सुनने की कोशिश की तो उसे समझ में आया कि ये आवाज़ें उसके साथ वाले कमरे में से यानी जिसमें महाराजिन रहती है, उसमें से आ रही थी। अरे! तो ये क्या महाराजिन नाचती भी है! फिर उसे किसी क्लासिकल सौंग की धीमी-धीमी आवाज़ सुनाई दी और उसकी लय ताल के साथ थिरकते हुए पैरों की आवाज़ भी आ रही थी। यह उसे बहुत अजीब लगा, उसे देखने की जिज्ञासा हुई। वह सर दर्द बहाने से बाम माँगने उसके कमरे में गई तो उसका दरवाज़ा भी अंदर से बंद था।

क्या अजीब घर है! हर कोई कमरे की कुंडी मारकर बैठता है। क्या सोना गढ़ा है सब जगह? उसने दरवाज़ा खटखटाया, दरवाज़ा जल्दी नहीं खुला, उसे और भी इरिटेशन होने लगी। उसने दरवाज़ा थोड़ी ज़ोर से खटकाया तो महाराजिन ने दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही आवाज़ें बंद, फिर उसका माथा ठनका। उस कमरे में आंटी बैठी हुई थी, उनकी व्हीलचेयर एक तरफ़ पड़ी थी। चारपाई पर बिस्तर भी नहीं बिछा था, ऐसे लग रहा था अभी चारपायी सीधी कर आंटी अभी-अभी जल्दी में बैठी हैं, उनकी साँस फूल रही थी। उसने देखा आंटी ने साड़ी भी कमर में खोस रखी थी। उसे देखकर दोनों में आँखों ही आँखों में कुछ इशारा हुआ, महाराजिन ने थोड़ा तुनक कर दीपिका से पूछा, ”क्या हुआ दीदी? कुछ चाहिए क्या?”

दीपिका ने कहा, ”मेरा सिर दर्द के मारे बुरा हाल है कुछ बाम वग़ैरह हो तो दे दीजिए।”

“चलिए आप, मैं वहीं दे दूँगी आपको।”

दीपिका वापिस आ गई लेकिन अब उसने सोचना शुरू कर दिया था कि कोई बात तो है। फुगु से बात करके भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ लेकिन वह पता लगाकर ही रहेगी। ऐसे ही सर खुजाते-खुजाते दो दिन और निकल गए। अब वह उन दोनों की तरफ़ ध्यान देना छोड़ बस अपना लैपटॉप में कुछ ढूँढ़ने बैठी रहती। तीसरे दिन भी कुछ नहीं ढूँढ़ पायी, वह वहाँ से उठकर ऊपर छत पर खुली हवा लेने चली गई। तभी फोन की घंटी बजी, लैंडलाइन फोन फ़ुगु के ससुर के कमरे में बज रहा था। दीपिका ने फोन उठा लिया।

उधर से किसी की आवाज आ रही थी, ”अरे सल्लू मोबाइल फोन पर कितने कॉल किये। तुम उठा क्यों नहीं रही?”

“ओह! दीदी फोन मेरे कमरे में रखा रह गया। घर में नीचे कोई नहीं था तो मैं इधर ज़रा किचन में आ गयी थी।”

“सल्लू तुमने यह क्या कर रखा है अपने साथ। अब बस कर,उठ और अपनी ज़िंदगी जी। देख, माँ ठीक नहीं रहती। वह एक बार तुम्हें मिलना चाहती हैं। वह तुम्हें मिलने की रट लगाकर बैठी हैं। अब ऐसे में जब तुम घर से बाहर तक नहीं निकलती, अमेरिका आने की बात तो छोड़ ही दो। तुम अच्छी भली को जाने क्या हो गया है मेरी बहना। मेरी तो समझ से ही बाहर है तेरा यह नाटक।” 

“दीदी आप कैसे समझोगी, आपने सब भोगा होता, तो ही तो आप को समझ आता न।”

“मैं सब समझती हूँ, पापा को भी तेरे दुःख ने असमय ही ख़त्म कर दिया। माँ तुम्हारे लिए घुली जा रही है। हम सब तुम्हें प्यार करते हैं सल्लू, फिर भी जीवन को ऐसे नहीं जिया जाता। तुम यहाँ आ जाओ हमारे पास।”

“अपना घर छोड़ कर?” 

“कौन सा घर, वह जिसमें तुम्हें कभी इंसान का दर्जा तक नहीं मिला।” 

“मैं अपने बच्चों को नहीं छोड़ सकती। बेटा और बेटी जैसी बहु। अब तो मोहन भी बहुत ख़याल रखते हैं मेरा।”

“ओके। लेकिन माँ से मिलने तो आजा।”

“हाँ बात करूँगी मोहन से।”

“अच्छा मैं रखती हूँ । माँ बुला रही हैं।”

यह सब सुनकर दीपिका की उत्सुकता और बढ़ गई। वह यह तो जान गई कि उसका शक सही था। आंटी चल-फिर सकती हैं। लेकिन फिर यह नाटक?

वह बड़ी देर टहलती रही। नीचे आयी तो देखा आंटी के कमरे का दरवाज़ा बंद था। महाराजिन अपने कमरे में बाल बना रही थी उसे लगा मौक़ा बढ़िया है उससे बात करने का, वह उसी के कमरे में चली गयी। जाकर उसने धीरे-धीरे, महाराजिन से प्यार से बात करनी शुरू की, ”देखो मैं तुमसे कुछ पूछना चाहती हूँ। मुझे अपना समझ ठीक से बताना।”

लेकिन महाराजिन तुनक गई, ”मैं कौन होती हूँ कुछ बताने वाली आप घर वालों से बात करो ना।”

“यह मत समझना कि तुम नहीं बताओगी या झूठ बोलकर बच जाओगी। मुझे सब सच पता चल गया है आप दोनों के नाटक के बारे में।”

अब महाराजन घबरा गई और आकर उसके पास बैठ गई, ”मैंने कुछ नहीं किया, भाभी ने भी कुछ नहीं किया।”

“हाँ मुझे पता है आप दोनों ने कुछ नहीं किया। लेकिन मैं जो भी पूछूँ, सब सही और सच-सच बताना, नहीं तो यह बात घर में सभी को बता दूँगी।”

“नहीं दीदी, ऐसा ज़ुल्म मत करना। भाभी ने बहुत साल नरक की ज़िंदगी जी है, आप फिर से उनकी ज़िंदगी नरक मत बनाना।” कहते हुए महाराजिन उसके पैरों के पास हाथ जोड़कर बैठ गयी।

“अच्छा, तुम बताओ आंटी को चोट यह कब लगी थी।”

“लगभग पाँच साल हो गए, रीढ़ की हड्डी में चोट के कारण चलना-फिरना से बंद हो गया था, सचमुच में दीदी। तीन महीने अस्पताल में रही थी भाभी।”

“फिर ठीक कब हुई?”

“दीदी, यूँ कहो दो साल ढाई साल पहले, शुरू में पाँच-छः महीने तो बहुत मुश्किल थोड़ा सा ही चल पाती थी, धीरे-धीरे सही से चलने लगी। लेकिन इस नाटक में भाभी का कोई क़सूर नहीं। यह सब उल्टा-पुल्टा मंथरा बनके मैंने ही उनको सिखाया था,” कहते हुए महाराजिन रोने को हो आयी।

“लेकिन तुमने ऐसा क्यों किया? और फिर.... आंटी ने क्यों मान लिया? इस तरह से अपने ही घर में अपाहिज बनके रहना। ऐसा नाटक क्यों कर रही हो आप लोग?”

“दीदी क्या बताएँ आपको, भाभी ने कैसे-कैसे ज़ुल्म सहे, वह तो चलती-फिरती एक लाश की तरह हो गयी थी। उन्होंने जीना ही तभी शुरू किया जब बीमार हो खाट पर पड़ गयी।“

“क्या? खाट पर पड़ के कोई कैसे जीना शुरू कर सकता है? सही बात बताओ, इधर-उधर की बातें मत करो।“

“यही बता रही हूँ दीदी, इतने साल हो गए मुझे उनको देखते हुए। पंद्रह साल से इनके घर में काम कर रही हूँ। पहले मेरी सास यहाँ खाना बनाती थी। वो भी घर आकर भाभी की बुराई करती थी। बताती थी कि भाभी ऐसे घर की है, उनको घर में कोई पसंद नहीं करता। सास के बाद जब मैं आयी तो मुझे भी यही लगा कि जैसे ये लोग व्यवहार कर रहे हैं वैसे ही मैं भी इनके साथ करूँ। और मैंने भी वैसा ही किया। ब्राह्मण जाति के अहंकार ने मुझे भी अंधा कर दिया। इन सब लोगों की तरह मैं भी भाभी को रसोई में घुसने नहीं देती, भेदभाव करती, उनसे ढंंग से बात तक न करती। कभी नहीं सोचा कि नौकरानी रसोई के अंदर हो और घर की बहू रसोई के बाहर खड़ी रहे तो उसे कैसा लगता होगा? लेकिन आँखें तभी खुली जब एक बार मेरा बेटा छत से गिरा गया। उसे सर में भारी चोट आयी। डॉक्टर ने कहा उसका ऑपरेशन करना पड़ेगा और पचास हज़ार लगेंगे। मैं कहाँ से लाती, सभी रिश्तेदारों से मदद माँगी लेकिन नंगे का भाई नंगा, कौन मदद करे। रोते गिड़गिड़ाते यहाँ पहुँची। सभी को रोते-रोते अपनी तक़लीफ़ बतायी लेकिन ये लोग बहाने बनाने लगे। चार हज़ार मेरे हाथ में थमा दिए और कहने लगे चार महीने की तनख़्वाह एडवांस दे रहे हैं। इससे ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते। किसी अपने से माँग लूँ। कोई अपना इस लायक़ होता तो मैं इनके घर काम क्यों करती भला। उस घड़ी भाभी ने साक्षात भगवान बनकर मेरे बच्चे को बचाया। भाभी ने चुपके से पाँच हज़ार रुपये और दो सोने की चूड़ियाँ मेरे हाथ में धर दीं और आँखों के इशारे से ही मुझे चुप रहने को कहा। मैं आपको क्या बताऊँ उस वक़्त मेरे मन में क्या बीती। दिल कड़ा भाभी के पाँव छू लूँ। बाद में जब मैंने भाभी को कहा कि मैं उनके पैसे धीरे-धीरे दे दूँगी तो तो भाभी ने कहा कि उनके पास पैसे की कमी नहीं है, प्यार की कमी है। उनके पैसे ससुराल वालों को चाहिए नहीं, ख़ुद वे क्या करेंगी? कहीं आती-जाती नहीं। कहाँ ख़र्च करेंगी? किसी के काम आ गये, इससे बढ़िया क्या हो सकता है! उस समय भाभी के लिए मन से इतनी दुआएँ निकली, किंतु मन ग्लानि से भर गया कि इस देवी के साथ मैंने कैसा बरताव किया। साथ ही उनसे घिनौना बरताव करने वालों के लिए नफ़रत सी हो गई।

पर मैं एक नौकरानी, बेबस क्या कर सकती थी? पेट भरने के लिए काम भी तो चाहिए था। लेकिन जब भाभी सीढ़ियों से गिरी, उनकी टाँगे ख़राब हो गईं तो जैसे भगवान ने उनको नया जीवन दिया। मरे हुए को कहना तो नहीं चाहिए लेकिन उन दोनों चुड़ैलों के ज़ुल्मों से भाभी का पीछा छूट गया, टाँगे न चलने के कारण। आपको पता है, इनकी सास और ददिया सास इनको पूरा दिन भगातीं थीं, एक पल चैन नहीं लेने देती थी बेचारी को। छोटी जात का होना जैसे जुर्म हो गया उनका। कोई नहीं मानेगा अच्छे लोग भी ऐसा कर सकते हैं अपनी बहू के साथ। मैंने अपनी आँखों से देखा है सब। खाट पर पड़ने के बाद ही भाभी की जून सुधरी, जानवर की योनि से मानुष योनि में जनम लिया हो जैसे।”

“अंकल भी आंटी के साथ ग़लत व्यवहार करते थे क्या?”

“नहीं। उनके पास टाइम ही नहीं है। अपने व्यापार में उलझे सुबह आठ-साढ़े आठ बजे निकल जाते हैं और रात को दस-ग्यारह बजे घर लौटते हैं।”

“और.... बेटा और बहू?“

“बेटा-बहू तो बहुत अच्छे हैं लेकिन उनके पास भी समय कहाँ है? वो भी सुबह नौ बजे घर से निकलते हैं, दोपहर को दो बजे आते हैं, खाना खा के फिर भाग जाते हैं। फिर वो भी रात को नौ बजे लौटते हैं। भैया जी तो शादी से पहले बाहर ही रहे हैं पढ़ाई की ख़ातिर। इतने साल तक उनको तो कुछ ख़बर ही नहीं, घर में क्या हो रहा है। पहले स्कूल फिर कॉलेज, वह तो ज़्यादातर बाहर ही रहे हैं।”

“अब तो कोई तंग करने वाला नहीं आंटी को।”

“अभी तीन महीने पहले ही तो गुज़री है माँ जी, उस से छह महीने पहले दादीजी गुज़री है। भाभी चलती-फिरती तो उनको फिर से वही नरक जीना पड़ता। आप नहीं जानती नरक क्या होता है। जानती होती तो भाभी को ज़रूर समझती।”

इतने में घंटी बजी तो महाराजिन उठकर जाने लगी।

“अच्छा। अब तुम मेरा एक काम करना, आंटी को कुछ नहीं बताना हम दोनों में क्या बात हुई है। मैं कुछ सोचूँगी उनके लिए।”

यह कहकर दीपिका वापस गेस्ट रूम में आ गई उसके मन में जो उथल-पुथल थी वह तो शांत हो गई। लेकिन आंटी के साथ जो हुआ उसके बारे में सोच-सोच कर उसका दिमाग़ फटने लगा। उसके उसके मन में कई तरह के प्रश्न उठने लगे। क्या हम आधुनिक हो गए हैं? क्या इंसान को इंसान का हक़ मिल रहा है? हम अभी भी किस भारत में जी रहे हैं, आज़ाद भारत में क्या सच में सभी आज़ाद हैं। एक पढ़ी-लिखी, गरिममय स्त्री इतनी मजबूर हो सकती है? क्या अभी भी बहुत सी ऐसी बातें हैं जो हमें मालूम नहीं होतीं? यह सोचते-सोचते उसे झपकी आ गई और जब नींद खुली तो उसने महाराजिन को चाय बनाने के लिए कहा। महाराजिन उसे चाय देने आयी तो उसकी आँखें कुछ कह रहीं थी।

दीपिका ने पूछा, ”क्या हुआ?”

महाराजिन रोने लगी और रोते-रोते उसने कहा, ”दीदी, मुझे माफ़ करना । मैं अपने-आपको रोक नहीं पाई, मैंने भाभी को सब बता दिया।”

दीपिका सर पकड़कर बैठ गई। वह इस समस्या को किसी और तरह से सुलझाना चाहती थी लेकिन अब क्या हो सकता था? उसने कुछ सोचा और चाय का कप उठाकर आंटी के कमरे की तरफ़ बढ़ गई।

कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था, वह अंदर गई, देखा, आंटी की आँखें सूजी हुई थी और चेहरा बहुत उतरा हुआ था। उसने कुछ नहीं कहा, चुपचाप उनके पास जाकर बैठ गई। दस-पंद्रह मिनट कोई कुछ नहीं बोला। फिर दीपिका ने हौले से उनके कंधे पर अपना हाथ रखा तो आंटी फफक-फफक कर रोने लगी और कहने लगी, "बस अब यही बचा देखने को, भोगना तो बहुत कुछ पड़ा है। लेकिन अपने किये पर घोर शर्मिंदगी पहली बार हुई।"

दीपिका ने अपना उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया, ”नहीं ऐसा मत कहिए।”

“अब तुम जो चाहो समझ लो। कायर समझो या पापी। मानती हूँ, पाप तो मैंने किया है। पर मुझे पाप करना पड़ा, फिर से जीने के लिए। बहुत साल हो गए थे अपनी लाश को ढोते हुए। घृणा, अपमान, यातना और द्वेष से आहत होते हुए भी अपनी लाश को दौड़ाती, भगाती, थकाती मेरी आत्मा चूर-चूर हो चुकी थी। मुझे सुख की नींद तक नसीब नहीं थी। सुबह साढ़े चार बजे हाँक दिया जाता, रात के ग्यारह-बारह बज जाते। किसी को मेरा ख़याल नहीं आया। जब अस्पताल में रात-दिन बेड पर पड़ी सोती रही तो मुझे लगा यहाँ तो जन्नत है।

"तीन महीने रही अस्पताल में रही। सच बताऊँ, जब मुझे होश आया अस्पताल में, जब डॉक्टर ने बताया कि मैं हमेशा के लिए बेड-रिडेन हो सकती हूँ। पता नहीं कभी चल पाऊँगी या नहीं तो मैं बहुत दुखी हुई थी। लेकिन धीरे-धीरे लेटकर आराम करना, और बेड पर लेटकर अपनी पसंद की किताबें पढ़ना मुझे भाने लगा। मेरे पति मोहन ने अस्पताल में शादी के बाद पहली बार मुझे कोई किताब लाकर दी थी। उनको पता था मुझे किताबें पढ़ना बहुत पसंद है।” फिर आंटी थोड़ा हँस कर बोलीं, ”इन किताबों के कारण ही तो हम दोनों मिले थे। और फिर एक ऊँची जात के लड़के को नीची जात की लड़की से प्यार हो गया।”

“नहीं आंटी! अब कौन मानता है इन बातों को?”

“हाँ, मैं भी यही सोचती थी कि अब कौन मानता है इन बातों को! इसी लिए अपने पापा के समझाने पर भी मैं नहीं मानी थी। मुझे लगा था जाति-पाति क्या होती है? क्योंकि एक ऐसे ही घर में जन्मी और पली थी मैं।"

“मतलब?”

“मतलब मेरी माँ क्षत्रिय थी। मेरे नानाजी ने क्षत्रिय होते हुए भी माँ की शादी नीची जाति के लड़के, मेरे पापा से ही कर दी क्योंकि उन्होंने मेरे पढ़े-लिखे और चरित्रवान पापा को माँ के लिए योग्य वर समझा। मेरे नाना जी स्वामी श्रद्धानंद जी के भक्त थे। वह स्वामी श्रद्धानंद जी के विचारों से अभिभूत थे और मेरी माँ को भी नानाजी के फ़ैसले पर कभी कोई मलाल नहीं था। माँ हमेशा गर्दन उठाकर चलने वाली औरत थी। और उन्होंने हमें भी यही सिखाया था। पापा दिल्ली में कॉलेज के प्रिंसिपल थे। कॉलेज कैंपस में ही हमारा घर था। आस-पास सभी पापा के जानने वाले थे। शायद इसी लिए हमें अपनी नीची जाति का एहसास नहीं हुआ। हम दोनों बहनें पढ़ने में बहुत तेज़ थीं। मेरी दीदी स्कॉलरशिप पर अमेरिका पढ़ने गई थी। लेकिन इससे क्या होता है, जाति तो जाति है। शायद यहाँ इंसान की हैसियत, पढ़ाई-लिखाई या चरित्र कुछ नहीं देखा जाता, सिर्फ़ जाति ही देखी जाती है।” 

“आंटी, पर आप दोनों ने तो लव मैरिज की थी ना! प्यार में जाति या धर्म कहाँ देखा जाता है?”

“हाँ, सही कहा। प्यार में नहीं किंतु शादी के लिए यह सब ज़रूर देखा जाता है। जब मैंने मोहन से शादी करने की बात घर में रखी तो पापा ने मुझे बहुत समझाया और कहा कि यह फ़ैसला मेरे लिए ज़िंदगी भर पछतावे का कारण बन सकता है। पापा ने तब मुझे पहली बार बताया कि पढ़े-लिखे होने, प्रिंसिपल की कुर्सी पर बैठने के बावजूद भी उन्हें क़दम-क़दम पर जाति के कारण काफ़ी कुछ सहना पड़ता था और फिर ये तो ज़िंदगी भर के बंधन की बात थी। पर मैं नहीं मानी। प्यार में अंधी थी और फिर माँ भी मेरे साथ थी। हमारी शादी हो गई लेकिन इसे मोहन के घर वालों ने हमें स्वीकार नहीं किया।

तीन साल हम दिल्ली में किराये का घर लेकर वहीं रहे। मोहन ने नौकरी कर ली। साल भर बाद मेहर का जन्म भी हो गया। साल के बाद घर के लोग मोहन को मुझे छोड़ने के लिए और घर वापिस आने के लिए ज़ोर डालने लगे। धीरे-धीरे मोहन भी पिघलने लगे थे। यह घर वापिस आना चाहते थे लेकिन इनकी एक ही शर्त थी कि मैं अपनी पत्नी को साथ लेकर ही घर आऊँगा। अंत में घर वालों को मोहन की शर्त माननी पड़ी। मोहन हम दोनों को लेकर घर आ गये। मोहन बहुत ख़ुश थे। इनको लगा इन्होंने अपनी जंग जीत ली है। लेकिन इस जंग में प्यादा मैं थी। इस जंग में इस प्यादे को कितनी चोटें आई हैं और कहाँ-कहाँ ज़ख्म हुए हैं, इसकी ख़बर लेने की सुध किसी को नहीं थी।”

यह कहते हुए आंटी फिर से रो पड़ी। साथ में खड़ी महाराजिन भी सुबकने लगी। दीपिका को महसूस हुआ उसकी अपनी आँखों के कोर भी भीग चुके हैं। कपों में पड़ी हुई चाय ठंडी हो चुकी थी। दीपिका ने महाराजिन को चाय बनाने भेज दिया और आंटी को गले से लगाकर दुलारती हुई बोली, ”आंटी मैं आपको बिलकुल भी दोषी नहीं मानती हूँ। दोषी वे सब हैं जिन्होंने आपको ये सब करने पर मजबूर कर दिया। वह इंसान जिसने आपको प्यार कर शादी करी, उसके बाद पति का फ़र्ज़ निभाने में नाकाम रहा, वह दोषी है। जिन्होंने आपसे बेटे के फ़ैसले के विरोध में आपको प्रताड़ित किया वे दोषी हैं। वह हर एक इंसान दोषी है जिसने आपको नहीं स्वीकारा,” कहते हुए दीपिका भी अपनी रुलाई को रोक नहीं पाई।

थोड़ी देर तक यूँ ही नमकीन पानी बहता रहा। दोनों के आँसू एक धारा में बहे तो दोनों मन भी एक-दूसरे से दोस्ती कर चुके थे।

दीपिका को लगा अब वह आंटी से खुलकर बात कर सकती है उसने पूछा, ”लेकिन आंटी इतने लम्बे समय तक आप अपने-आपको एक कमरे में बंद रखकर क्या स्वयं को पीड़ा नहीं दे रहीं? यह अपाहिज होने का त्रास आप क्यों झेल रही है?”

“ताकि मैं ठीक से सो सकूँ, ताकि एक अच्छी नींद के बाद अच्छी सुबह का आनंद ले सकूँ। ताकि मैं कुछ पढ़ सकूँ जिसके लिए मैं इन सालों में तरस गई। मैं उस नरक से दूर होकर अपने बसाये जहान में बस कर ख़ुश हूँ। एक दोज़ख से आज़ाद हो चुकी हूँ। मैं चैन से साँस ले सकती हूँ। क्या बताऊँ बेटा, सोसाइटी में या रिश्तेदारी में कहीं जाना पड़ता तो सब लोगों की नज़रों में मेरे लिए कितना रोष और तंज़ होता था। उनकी खा जाने वाली तंज़भरी नज़रें मेरे मन को अंदर तक ज़ख़्मी कर देती थीं। उस कठोर और भद्दे समाज से जिसमें मेरे लिए ज़िल्लत और तंज़ के सिवा कुछ न था, जिसमें रहते हुए मैं अपने आप से भी डरने लगी थी, उस समाज से दूर रहने का बहाना है अब मेरे पास। रोज़ ज़हर पीते-पीते, अपना उत्पीड़न करवा कर मर रही थी। आख़िर उससे छुटकारा मिल गया मुझे।

"अगर यह एक्सीडेंट न होता तो शायद मैं इस तरह से कभी सोचती ही नहीं अपने लिए। लेकिन यह सब हुआ और फिर...। जिस पति ने सालों से मेरा चेहरा भी कभी ढंग से नहीं देखा था वो अब मेरे पास बैठने लगा है। जिस से सालों पहले मेरा प्यार हुआ करता था, मुझे प्यार करता था वह मुझे फिर से प्यार करने लगा है और मेरा बेटा वह भी मुझ पर ध्यान देने लगा है। ये सब खोने के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं हूँ। 

"अब मैं फिर से पीड़ा का एक टुकड़ा भी लेने को राज़ी नहीं हूँ। पहले मैं यही सोचती थी कि मेरी आत्मा और मन दोनों मर चुके हैं सिर्फ शरीर ही ज़िंदा है इन सबके लिए। जिसे ये लोग जिस तरह से भी काम में लेकर उसे रोज़ अपनी सारी कड़वाहटों से नहला सकते हैं। लेकिन मैं ग़लत थी, आत्मा का एक फटा हुआ टुकड़ा कहीं अटका हुआ था। मैंने देखा मेरा मन अभी भी प्यार और संवेदना को पाकर ख़ुशी महसूस कर सकता है। मुझे अपने पति और बेटे से केयर और एटेनशन मिल रही है। जिसके लिए इतने साल तरसती रही, बस। मैने मन ही मन फ़ैसला कर लिया फिर से न चलने का।”

“आंटी, लेकिन अब हालात बिलकुल बदल चुके हैं। आपको त्रास देने वाले लोग अब इस जहान में नहीं है, वो सब ऊपर स्वर्ग में बैठे होंगे तो आप भी यहाँ अपना स्वर्ग बनाओ। मैं अपनी बहन जैसी मित्र को ख़ूब अच्छे से जानती हूँ। फाल्गुनी आपको कभी भी किसी काम से नहीं रोकेगी। आप उठो अपनी रसोई सँभालो।”

उसने एक बार फिर से आंटी से लिपटते हुए धीरे से मुस्कुराते हुए कहा, ”आगे से डान्स करने के लिए भी आप को दरवाज़ा लॉक नहीं करना पड़ेगा। मुझे भी आपसे डान्स सीखना है।”

महाराजिन चाय लेकर आ चुकी थी। उसने हँसते हुए कहा, ”हाँ भाभी, अब आप किचन के अंदर रहना और मैं किचन के बाहर खड़ी रहूँगी, क्यों ठीक है न?”

“नहीं, मैं ऐसा बिलकुल नहीं करूँगी। चाहे मैं हूँ या कोई और रसोई के बाहर या कमरे के बाहर कोई नहीं रहेगा।” 

उसी समय घबराते हुए बोली, ”पर बेटा ये सब कैसे होगा? क्या सब लोग मेरी सच्चाई जान कर मुझसे प्यार कर पाएँगे? क्या…”

दीपिका बात बीच में काटते हुए बोली, ”लेकिन! कोई बताएगा नहीं आंटी, तो सच्चाई जानेगा कौन?“ हँसते हुए बोली, ”क्या इस कमरे में किसी को कुछ पता है? भई मुझे तो कुछ नहीं पता। मैं तो बस अपने एक मित्र न्यूरोलॉजिस्ट की सलाह लेकर आपको चलने में सहायता कर सकती हूँ। इसके इलावा मुझे कुछ नहीं पता।”

“फिर भी कभी तुम्हारे मुँह से किसी के सामने कुछ बात निकल जाए तो मेरा क्या होगा?”

“मैं एक सायकॉलिजस्ट हूँ और इस नाते मुझे अपने मरीज़ की हर बात गोपनीय रखनी होती है। और फिर आपने मुझे इतनी बार बेटा भी तो कहा है। आंटी आपको बिलकुल भी चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। आप कब और कैसे चलेंगी, यह सब मुझ पर छोड़ दो।”

दीपिका ने उठकर फिर से आंटी को अंक में भर लिया और बोली, ”अपनी बेटी पर भरोसा रखो आंटी और अपने आप पर भी।”

दीपिका को गए हुए चार महीने हो चुके है। आज सुलोचना यानी कि सल्लू ने अपनी बहन को फोन लगाया। वह ख़ुशी से उसे बता रही है कि वह जल्दी ही माँ से मिलने अमेरिका आना चाहती है। पास खड़े मोहन ने उसके हाथ से फोन लेकर ख़ुशी से भीगी आवाज़ में कहा, ”दीदी, माँ से मिलने सल्लू अकेली नहीं आएगी, मैं भी आऊँगा साथ। पता नहीं कब से नहीं निकले घर से हम दोनों इकट्ठे।” 

मालूम नहीं क्यों आज सल्लू का दर्द मोहन की आँखों से बह निकला।

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