दलित अस्मिता पर अम्बेडकरवादी चिंतन का प्रभाव: विश्लेषणात्मक अध्ययन

03-04-2009

दलित अस्मिता पर अम्बेडकरवादी चिंतन का प्रभाव: विश्लेषणात्मक अध्ययन

कीर्ति भारद्वाज

शोध संक्षेप

अम्बेडकरवाद का दर्शन मात्र दलित मुक्ति का दर्शन नहीं था। वह इस व्यवस्था को पूरी तरह हस्तांतरित करनेका दर्शन था। अधिकांश गैर-दलित आलोचक दलित समाज को एक स्वतंत्र समाज अर्थात हिन्दू समाज से अलग मानते हैं। अगर दलित समाज एक स्वतंत्र समाज है तो उसका एक अपना स्वतंत्र साहित्य भी होगा। साहित्य ही नहीं बल्कि एक धर्म भी होगा, एक राजनीति भी होगी। इस तरह उनकी अपनी एक संस्कृति भी होगी। दलित समाज, हिन्दू समाज से बाहर का समाज है। वह सबसे अधिक शोषित एवं पीड़ित वर्ग की विचारधारा में वह सर्वहारा है। उसमें जो बदलाव की क्रांति है, उस प्रक्रिया में उसका एक ऐतिहासिक महत्त्व है।

यूँ तो कहा जाता है कि सभी मनुष्य समान हैं। मनुष्य अपने कर्मों से महान बनता है, जाति से नहीं। लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। मनुष्य को उसकी जाति से ही बड़ा या छोटा माना जाता है। यदि ऐसा नहीं है तो दलितों को अलग जाति क्यों माना जाता है? क्या यह जान कर आपको हैरानी नहीं होगी कि दलितों को अलग-थलग जाति माना गया है, हिन्दू हैं फिर भी हिन्दू से अलग। क्या अन्य धर्मों में भी दलित नाम की जाति है? महाराज मनु के द्वारा बनाई गई न्यायिक प्रणाली आज के आधुनिक दौर में भी खूब चली आ रही है। जहाँ तक दलित अस्मिता की बात की जाती है तो इसका तात्पर्य दलितों की अस्मिता से है जिसका सीधा सा अर्थ है दलित समाज का एक स्वतंत्र समाज के रूप में होना। इसको यह भी कहा जा सकता है कि दलित समाज, ईसाई, मुस्लिम, पारसी, जैन की तरह स्वतंत्र समाज है। अब प्रश्न यह उठता है कि इसमें स्वतंत्र समाज की ऐसी कौन सी विशेषतायें हैं जो उसे स्वतंत्र समाज नाम की मान्यता प्रदान करती हैं। इस संदर्भ में प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे जातीयता की चर्चा करते हुए एक जगह लिखते हैं - "जातीयता की पृष्ठभूमि में अनेक तथ्य हो सकते हैं, यदि हम समसामयिक जातीयता की भावना का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो उसमें इसी मानसिकता की स्पष्ट प्रेरणा दिखाई देगी"1 अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि सांस्कृतिक स्वायत्ता ही दलित अस्मिता की रीढ़ है इस तरह किसी भी स्वतंत्र समाज के लिए आवश्यक है कि उसका भी एक धर्म हो, उस समाज का एक इतिहास हो, उसकी परम्परा हो आदि। अगर दलित समाज एक स्वतंत्र समाज है तो इसका भी अपना एक धर्म, संस्कृति इतिहास और परम्परा होनी चाहिए।

डॉ. अम्बेडकर की भी यह धारणा थी कि हिन्दू धर्म में सुधार किया जाये। जिससे कि दलित समाज को अलग समाज नहीं माना जाए परन्तु १९३६ तक आते-आते सारा भ्रम टूट गया कि एक हिन्दू दूसरे हिन्दू को इतना अलग क्यों मानता है? उनका मानना था कि हिन्दू धर्म मानवता का धर्म हो ही नहीं सकता। यह लोगों को मानसिक विकलांग तो बनाता ही है, साथ ही असुरक्षा भी प्रदान करता है। इसलिए डॉ. अम्बेडकर को यह कहना पड़ा कि "हिन्दू धर्म तेरा नाम असमानता।"2 इसलिए उन्होंने १९३५ में हिन्दू धर्म का त्याग कर दिया।

चूँकि दलित अस्मिता वर्णाश्रम व्यवस्था के अधीन बनी है, उन संस्कृतियों के अस्तित्व और उनके आपसी द्वंद्व को भवदेव पाण्डेय ने अपने एक लेख में लिखा है – "संस्कृति का व्यवहार तो पूरे देश के सामूहिक जीवन की आंतरिक शैली के रूप में होना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य यह रहा कि ऋग्वेद के बाद पुरोहितों ने वर्ण-व्यवस्था के तहत अपनी जनता को द्विज संस्कृति और शूद्र संस्कृति के रूप में विभाजित कर दिया।"3 इसलिए वर्णाश्रम व्यवस्था के संदर्भ में दलित चिंतकों का कहना है कि महात्मा बुद्ध ने वर्णाश्रम व्यवस्था के सिद्धांत का विरोध न कर केवल इतना किया कि उसके उच्चानुक्रम को परिवर्तित कर दिया। ब्राह्मणों के स्थान पर वहाँ क्षत्रियों को बैठा दिया अर्थात जहाँ सबसे पहले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का क्रम था। वहाँ उन्होंने उसे बदलकर क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र कर दिया। यदि यह बात सही है तो फिर दलित आंदोलन के लिए बौद्ध धर्म की क्या आवश्यकता? क्योंकि यही वे दो चीज़ें हैं जिससे दलितों का शोषण होता है।

अब दूसरा प्रश्न यह है कि अगर बौद्ध धर्म दलितों की चिंताओं और समस्याओं को सम्बोधित नहीं करता तो फिर दलितों का धर्म कौन सा है? अगर दलितों के पास धर्म ही नहीं है तो क्या वे जीवित रहेंगे? क्या धर्म के बिना जीया नहीं जा सकता? अथवा जबसे महाराज मनु ने वर्णाश्रम की व्यवस्था की, तब क्या दलितों के पास धर्म था? अगर शुरू से ही धर्म नहीं था तो क्या नए धर्म की स्थापना की जाए?

डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि अगर समाज को व्यवस्थित करना है तो धर्म की आवश्यकता भी पड़ेगी अब फिर से ये प्रश्न उठता है कि डॉ. अम्बेडकर से पहले का दलित समाज क्या व्यवस्थित नहीं था? अगर था तो उसका अस्तित्व क्या था? यह प्रश्न इसलिए भी आवश्यक है कि क्योंकि दलित समाज एक स्वतंत्र ऐतिहासिक समाज है, दलितों के पास भी कोई न कोई धर्म अवश्य होना चाहिए। बिना इसके दलित अस्मिता के अस्तित्व को कैसे स्थापित किया जा सकता है? इसलिए धर्मवीर भारती यह निष्कर्ष निकालते है कि "यह सच है कि कबीर न तो हिन्दू थे, न ही मुसलमान थे लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि उन्होंने इन धर्मो की बुराइयों का खण्ड़न करके इनकी अच्छाइयों को इकट्ठा किया हो।"4 इसलिए कबीर का धर्म हिन्दू और मुस्लिम धर्म से अलग धर्म दलित धर्म था। कहने का अभिप्राय यह है कि दलित धर्म की पृथकता के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि दूसरे धर्म को बुरा धर्म कहा जाए अर्थात अब तक जितनी दलितों के विषय में संकल्पनाएँ की गईं, उससे यह तो निश्चित है कि ऐतिहासिक दलित समाज धर्म से विहीन नहीं था।

धर्म की उपयोगिता को समझते हुए डॉ. अम्बेडकर ने १९५६ में अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया। बौद्ध धर्म को अपनाने के पीछे मुख्य कारण यह था कि बौद्ध धर्म आत्मवादी और शब्द को प्रमाण मानने वाले थे। इसलिए डॉ. अम्बेडकर ने बुद्ध के मार्ग को कल्याणकारी माना और उसे अपनाया।5 इससे दलित समाज का धर्मांतरण ही नहीं हुआ बल्कि पूरे दलित समाज का भी अपना धर्म बना तथा एक स्वतंत्र समाज के रूप में उदय हुआ। अब इनके सामने यह समस्या नहीं थी कि अनावश्यक रूप से अन्य धर्म की शरण में जाया जाये।

भारत जिस भौगोलिक क्षेत्र में है, उस क्षेत्र में मानव की ३ या ४ प्रजातियाँ ही पाई जाती थीं। उनके विकास की प्रक्रिया में कोई भी अंतर नहीं है। डॉ. आबिद हुसैन लिखते हैं "भारत के विभिन्न भाषा भाषी तथा धार्मिक सम्प्रदायों में, जिनमें मुसलमान भी शामिल है, बड़ी मात्रा में वास्तविक सांस्कृतिक एकता तथा संस्कृति के निर्माण करने के लिए संभावनाएँ हैं अर्थात समन्वयात्मक पूर्णता प्रदान करने के लिए वैदिक हिन्दू संस्कृति परम्पराओं बौद्ध, पौराणिक हिन्दू तथा मुगल हिंदुस्तानी संस्कृतियों को सम्मिलित करना होगा।"6 इसलिए वर्णाश्रम संस्कृति के अधीन दलित संस्कृति की विशिष्टता संस्कृति के सीमित अर्थों अर्थात दार्शनिक चिंतन और वैचारिक उत्कर्ष के द्वारा ही बनती है जैसा कि बताया गया है कि दलित संस्कृति के इतिहास वर्णाश्रम संस्कृति के अधीन बन रही संस्कृति का इतिहास है। इसलिए दलित संस्कृति का निर्माण, सृजन और संघर्ष की प्रक्रिया के साथ-साथ हुआ है।

धर्म, संस्कृति, वर्णाश्रम दलित अस्मिता को निर्धारित करने वाले तत्व है। दलित अस्मिता की राजनीति भी वर्णाश्रम दलित समाज की अपनी कोई राजनीति होने का आशय इनके स्वतंत्र राजनैतिक विचार अथवा संगठन से है। हालाँकि उस समय लोकतंत्र, स्वतंत्रता आदि जैसे चीज़ें नहीं थीं। इसलिए उस समय किसी तरह के आंदोलन की कल्पना व्यर्थ ही होगी अर्थात दलितों के द्वारा चलाये गए वर्णाश्रम संस्कृति के विरुद्ध जितने भी आंदोलन होंगे। सभी के धार्मिक एवं सांस्कृतिक आवरण होंगे। ये आंदोलन राजनीतिक आंदोलन के बिना चलाये गए होंगे। इसलिए सफल नहीं हुए। संदर्भ में मायावती ने लिखा है - "राजनैतिक सुधार तथा सामाजिक सुधार एक ही गाड़ी के दो पहियों के समान है, जिनमें से एक के बिना दूसरे पहिये पर गाड़ी नहीं चल सकती दोनों की समान आवश्यकता है"7 इसलिए डॉ. अम्बेडकर ने दलितों के सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं को साकार बनाने के लिए कई हितकारिणी सभाओं और महत्वपूर्ण संगठनों का निर्माण किया जैसे बहिष्कारिणी हितकारिणी सभा, इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी, शेड्यूल कास्ट फेडरेशन आदि। दलितों ने अपनी स्वतंत्र पार्टियाँ तथा संगठन बनाये और उन पार्टियों का नेतृत्व अपने हाथों में सँभाल कर अपनी दलित अस्मिता को सुरक्षित किया।

दलित आंदोलनों से डॉ. अम्बेडकर का जो प्रभाव दलित समाज पर पड़ा, वह सर्वविदित है क्योंकि गैर दलितों की मनःस्थिति और उनकी वैचारिक दृष्टि इन्हीं आंदोलनों से निर्मित हुई थी। यहाँ तक कि दलित साहित्यकारों पर भी डॉ. अम्बेडकर का प्रभाव पड़ा। आधुनिक भारत में अम्बेडकरवादी आंदोलन का आरम्भ १९२० के आस-पास माना जाता है। यह वही समय है जब डॉ. अम्बेडकर ने मूकनायक एवं बहिष्कृत भारत नामक पत्र निकाला। जिसके माध्यम से दलितों एवं देश की स्थिति के विषय में अपने महत्वपूर्ण विचार प्रकट किए। सन १९२७ में लंदन में आयोजित पहली राउंड टेबल कांफ्रेंस में अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। दूसरे राउंड में गाँधी जी के साथ भाग लिया। डॉ. अम्बेडकर के प्रयासों से ही ब्रिटिश सरकार ने अल्पसंख्यक समुदायों के विशेषाधिकारों से संबंधित एक बिल पास किया, जिसमे ब्रिटिश सरकार ने अछूतों को भी अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा प्रदान किया। जिसे सेपरेट सेटेलमेंट के नाम से जाना गया। जिसका महात्मा गाँधी ने कड़ा विरोध किया तथा आमरण अनशन पर भी चले गए। इसी कारण से डॉ. अम्बेडकर को यह अधिकार भी छोड़ना पड़ा।

आरंभ में डॉ. अम्बेडकर के यह विचार थे कि छुआछूत की समस्या हिन्दू धर्म की समस्या है परन्तु बाद में उनका मानना था हिन्दू लोग समाज के कुछ लोगों के साथ छुआछूत का व्यवहार इसलिए नहीं करते कि वे लोग साफ़-सुथरा नहीं रहते, बल्कि ऐसा इसलिए करते हुए वे अपने धर्म का पालन करते हैं। सन् १९३१ में डॉ. अम्बेडकर ने एक पृथक प्रतिनिधित्व की माँग की। उनके अनुसार अछूतों लिए बहुसंख्यक हिन्दुओं की गुलामी अंग्रेज़ों की गुलामी से अधिक घातक थी। इसलिए डॉ. अम्बेडकर का विचार था कि सम्राज्यवादी गुलामी के साथ-साथ सामाजिक गुलामी के विरुद्ध भी लड़ाई लड़ी जानी चाहिए। डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि दलित वर्ग को कम से कम निम्न अधिकार मिलने चाहिएँ -

  1. अछूतों के भी कुछ मानवाधिकार हैं, जो उनको मिलने चाहिए।

  2. हिन्दू धर्म से अलग उनकी अपनी एक अलग पहचान हो।

  3. उन्हें समाज में उचित नेतृत्व करने का अवसर दिया जाना चाहिए।

जब इन अधिकारों के विषय में डॉ. अम्बेडकर ने जो प्रयास किए उसके निम्न परिणाम सामने आए-

  1. डॉ. अम्बेडकर का संविधान सभा में जाना।

  2. राज्य और अल्पसंख्यक नाम से एक स्वतंत्र वैकल्पिक संविधान प्रस्तुत करना, जिसमें दलितों को अल्पसंख्यक समुदाय मानना और राज्य समाजवाद की वकालत करना।

  3. डॉ. अम्बेडकर का कानून मंत्री बनना।

  4. १९५६ में मराठी दलित साहित्य का निर्माण।

  5. १९६० में रिपब्लिक पार्टी की स्थापना।

  6. १९७८ में काशीराम द्वारा बामसेफ की स्थापना।

  7. १९८४ में उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना।

अतः जो स्वतंत्रता के बाद के दलित आंदोलन से संबंधित घटनाएँ हैं, जिनके माध्यम से दलित आंदोलन का स्वरूप और उनकी विचारधारा मुखरित हुई। डॉ. अम्बेडकर द्वारा एक अछूत होते हुए संविधान का निर्माण करना एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना थी। यद्यपि डॉ. अम्बेडकर को यह संविधान उनके सपनों का संविधान न लगा और न ही वे ऐसे अपने सपनों का संविधान बना सके। परिणामस्वरूप उन्होंने अनुसूचित जाति के लिए एक वैकल्पिक संविधान का निर्माण किया। जिसमें समाजवादी मूल्यों की स्थापना की गई और विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों को सामाजिक सुरक्षा की गारंटी दी गई। डॉ. अम्बेडकर ने संसद में हिन्दू कोड बिल प्रस्तुत करके इतिहास की पहली आश्चर्यजनक घटना बना दिया। जिसमे हिन्दू समाज व्यवस्था को आधुनिक न्याय परक मूल्यों के आधार पर संगठित करने की कोशिश की गई। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर का दलित आंदोलन स्वतंत्रता, समता और भातृत्व के सिद्धांत पर आधारित था। उन्होंने दलितों की अस्मिता के लिए शिक्षा, संगठन और संघर्ष के सूत्र दिए वे। चिरस्मरणीय एवं अनुकरणीय हैं।

संदर्भ ग्रन्थ सूची:

१. समय और संस्कृति, श्यामाचरण दुबे, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-०२, संस्करण १९९६, पृ० १५०,
२. विश्व धर्म और अम्बेडकर, डॉ. डी.आर जाटव, सब्लाइम पब्लिकेशन, जयपुर -०६, संस्करण २००१, पृ०१४४
३. कथाक्रम, नवंबर २०००, पृ०-९
४. कबीर के कुछ और आलोचक, धर्मवीर भारती, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण १९९२ , पृ०५४
५. डॉ. अम्बेडकर की संघर्ष यात्रा एवं संदेश, डॉ. म .ला. सहारे,डॉ. नलिनी, अनिल, सेगमेंट बुक्स, नई दिल्ली -४८ संस्करण १९९२, पृ० ३०६
६. समय और संस्कृति, श्यामाचरण दुबे, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-०२, संस्करण १९९६, पृ० ६१
7 बहुजन समाज और राजनीति,मायावती, बहुजन समाज पार्टी, १२ गुरुद्वारा, रकाबगंज रोड, नई दिल्ली -०१ संस्करण२०००, पृ० ८.

कीर्ति भारद्वाज (शोध छात्रा)
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय
ग्रेटर नॉएडॉ. (उत्तर-प्रदेश)

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