जो मरा होकर भी ज़िंदा है
और ज़िंदा होकर भी मरा हुआ
एक नन्हा सा जीवितमृत विषाणु
जिसकी इतनी भी हैसियत नहीं
कि नंगी आँख से देखा जा सके
उसने अशरफुल मख़लूक़ात की डींगें
हाँकने वाली नस्ल को. . .
ब्रह्माण्ड में उसकी औक़ात दिखा दी
अशरफुल मख़लूक़ात = प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ
आधुनिकता के सारे दावे घरों में बंद है
बंद हो चुके हैं आस्थाओं के कपाट
चिंता की लकीरें ढोते ललाट
हलकी सी पीड़ा में बेचैन हो जाते हैं
तरुणाई की उमंग में फूटी प्रेम की कोंपलें
भय की भट्टी पे भुन रही हैं सींक में
एक ही छींक में –
दिल बाहर निकल पड़ता है नाक के रस्ते
ज्ञानेन्द्रियाँ पहचान चुकी हैं अपनी सीमायें
डरे हुए चेहरों पर पहरा है मास्क का
उत्सवजीवी मानव
अपनी गति से ब्रह्माण्ड को नापने वाला मानव
अपनी क्रूर आकांक्षाओं की उदर तृप्ति की ख़ातिर
घोड़ों की टापों से धरती की –
कोमल भावनाओं को रौंदने वाला मानव
क़ुदरत के निज़ाम में फेरबदल करने वाला मानव
अपनी ज़िन्दगी बचाने को सबसे दूर है
एकांत ओढ़ने पर मजबूर है
सहमी बंदूकें घर के कोनों में दुबकी हैं
तलवारें माँग रही हैं म्यान में पनाह
लाठियाँ अपनी कठोरता पर शर्मिंदा हैं
वे बाँसुरी बनकर सप्तसुरों में प्रेम सुनाना चाहती हैं
मानव की जिजीविषा को गुनगुनाना चाहती हैं
शायद उनके प्रायश्चित से शांत हो सके
नफ़रत की कोख से उपजा वायरस
निर्दयी आँखों में उमड़ने लगे जीवन का रस