चुटकुलों के संदर्भ में संस्कृत नाटकों की विदूषक परम्परा

04-04-2016

चुटकुलों के संदर्भ में संस्कृत नाटकों की विदूषक परम्परा

निरंजन ठाकुर

हास्य जीवन का आधार है और इसी संदर्भ में नव रसों में एक रस हास्य रस अभिव्यक्त होता है। वस्तुतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जिसे हम चुटकुला अथवा लतीफ़ा कहते हैं, उसका आरम्भ संस्कृत नाटकों में विदूषक नामक पात्र के अभिनय से माना जा सकता है। तात्पर्य यह है, कि चुटकुलों के बीज संस्कृत नाटकों में विदूषक की अभिव्यक्ति में दृष्टिगत होते हैं। नाटकों की पृष्ठभूमि के आधार पर आचार्य भरत ने विदूषक नामक पात्र की स्थापना, प्रस्तावना के अन्तर्गत की है। वस्तुतः नाटक के नायक प्रायः प्रशासक की भूमिका में दिखाई देते हैं, उन नायकों के जीवन में आने वाली विविध प्रकार की चिन्ताएँ और समस्याएँ जिस पात्र के द्वारा सुलझती हैं, वह पात्र विदूषक है। भाव यह है, कि जब नाटक के नायक को अपने शत्रु की चिन्ता कष्ट दे रही हो, तब तनाव से मुक्ति के लिए उसे मनोरंजन और हास्य की आवश्यकता होती है, विदूषक ही ऐसा पात्र है जो अपने विविध प्रकार के अभिनय से नायक को हास्य की ओर प्रवृत्त करता है। वि उपसर्ग पूर्वक दुष् धातु में ण्वुल प्रत्यय के संयोग से विदूषक शब्द निष्पन्न होता है। विदूषक शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर, "विशिष्ट भावेन यः दोष निवारणम् करोति सः विदूषकः" इस अर्थ की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है, कि जो पात्र विभिन्न प्रकार की हास्यमयी भंगिमाओं के द्वारा तथा वाचिक हास्य से नायक का संदेह निवारण करे वह विदूषक है।

इस संदर्भ में कविता कामिनी को हास्य प्रदान करने वाले महाकवि भास के दो नाटकों में विदूषक की हास्याभिव्यक्ति को उक्त आलेख में, मैं प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।

महाकवि भास के अनुसार विदूषक हास्य रस का पात्र होता है, कभी-कभी नायक से उम्र में छोटा होता है। इसका शरीर विकृत आकार का होने के कारण ये दृश्य-स्तर पर हास्य का जनक होता है। इसका वेश, भाषा और कार्य भी हास्यकर होता है। इसे लड़ाई लगाने में बड़ा आनन्द आता है। सामान्य रूप में कहा जाय तो ये नारद मुनि जैसा कार्य करने वाला होता है। नायक का नर्म सचिव होता है। विपरीत स्थिति में भी ये आनन्दपूर्वक कार्य करने वाला होता है। इसे खाने-पीने की बातों में बड़ा आनन्द आता है और यह भोजन का बड़ा लालची होता है। इस कारण ये कभी-कभी मूर्ख भी बनता है। इसी में विदूषक को विशेषतः महाकवि भास ने "अविमारकम्" नाटक में उल्लेखित किया है। चेटि और विदूषक का प्रसंग वर्णन है, जहाँ चेटि के द्वारा भोजन का लालच देकर विदूषक ठगा जाता है। चेटि कहती है:- "विलोभितो मुग्ध ब्राह्मणः जनसमूहं प्रविश्य चतुष्पदमार्गे वक्षयित्वा गमिष्यामि।"1 (अविमारकम् द्वितीय अंक पृष्ठ संख्या 30-31)

अर्थात:- लोभी और बेवकूफ ब्राह्मण को इस जन-समूह में मिलकर चौराहे पर ठग कर निकल जाऊँगी।

विदूषक कहता है:- चन्द्रिके! चन्द्रिके! कुत्र-कुत्र चन्द्रिका हा वन्चितोऽमि। गण्डभेददस्याः शीलं जानन्नप्यात्मनो भोजनविस्रम्भेण च्छालितोऽमि। हन्तैषा धावति। तिष्ठ-तिष्ठ अधर्मिष्ठदासिः। तिष्ठ किं धावत्येन।2 (अविमारकम् द्वितीय अंक पृष्ठ संख्या 30-31)

अर्थात:- चन्द्रिके! चन्द्रिके! कहाँ है चन्द्रिका, हाय ठगा गया। मैं इस कलमुँही दासी का स्वभाव जानता था। तब भी भोजन के मिलने की आशा में ठगा गया। भोजन का निमन्त्रण भी झूठा हो सकता है। हाय यही तो दौड़ी जा रही है। अरी पापिनी दासी ठहर-ठहर क्यों भागती ही जा रही है।

इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी विदूषक के भोजन का लोभी होने के उल्लेख मिलते हैं। विदूषक का चरित्र नाटक के सौन्दर्य तत्व को प्रकाशित करता है। विदूषक के चरित्र के बिना नाटक खाली-खाली सा लगता है। विदूषक नाटक में हास्य रस की उत्पत्ति करता है जिससे नाटक को रोचकता प्राप्त होती है और आनन्द की वृद्धि होती है। विदूषक का चरित्र सामान्य तौर पर बेवकूफ और बुद्धिहीन समझा जाता है। विदूषक बाह्य प्रकृति एवं स्वरूप से बेवकूफ और बुद्धिहीन लगता ज़रूर है, पर वास्तव में वह बुद्धि से तेज़ और सरलतापूर्वक कार्य करने वाला होता है। नायक का आत्मीय परामर्श दाता होता है जो नायक के सुख एवं दुःख दोनों का साथी होता है। विदूषक स्वयं तो स्त्रियों से मोहित नहीं होता है, किन्तु नायक और नायिका के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कभी-कभी ऐसे प्रसंग में विदूषक स्वयं अपना परिहास कराते हुए हास्य का पात्र भी बनता है। इसी संदर्भ में महाकवि भास ने "अविमारकम्" में प्रसंग वर्णित किया है। नलिनिका विदूषक के विषय में नायक से जिज्ञासा व्यक्त करती है 

"भतृदारकः! कः एष पुरुषः!" राजकुमार, यह कौन पुरुष है!

विदूषक स्वयं अपने लिये कहता है:- अहो राजकुलस्य विशेषः को अऽन्यो जनो मां प्रेक्ष्य पुरुषः इति भणति। स्त्रि खल्वहम्। अहं पुष्करिणी नाम चेटीः।3 

(अविमारकम् पंचम अंक पृष्ठ संख्या 134)

अर्थात:- राजकुल की यही विशेषता है। दूसरा कौन जन है, जो मुझे देखकर पुरुष कह सकता है। मैं तो औरत हूँ। मैं पुष्करणी नाम की दासी हूँ।

इस प्रसंग में विदूषक स्वयं अपना परिहास कराता है। हास्यप्रिय विदूषक स्वाभिमानी और सम्मान प्रिय व्यक्तित्व वाला भी है। विदूषक किसी के द्वारा किया गया अपना अपमान सहन नहीं कर सकता है। "अविमारकम्" में एक स्थान पर नायिका द्वारा "हँसोर" कहे जाने पर विदूषक को गुस्सा आ जाता है, और तुरन्त जवाब देता हुआ कहता है- कौन मेरे बारे में ऐसा बात करती है? मैं नहीं, यही "हँसोर" है। विदूषक कोमल शरीर वाला होता है और उदर पीड़ा से पीड़ित रहता है। क्षणिक सुख के लालच में कहीं भी जा सकता है। "चारुदत्त" नाटक में ऐसा ही उल्लेख है कि नायक जब तक श्री-सम्पन्न रहता है, तब तक विदूषक नायक के गृह में खाता-पीता है और आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है किन्तु जब नायक अपनी उदार प्रवृत्ति के कारण एक दरिद्र (गरीब) का जीवन व्यतीत करने की स्थिति में पहुँच जाता है, तब विदूषक पक्षियों की भाँति इधर-उधर खा-पीकर एकमात्र रात को शयन करने के लिये ही नायक चारुदत्त के घर जाता है और अपने व्यवहार द्वारा कभी भी नायक को मानसिक कष्ट नहीं पहुँचाना चाहता है। विदूषक धर्मनिष्ठ नहीं होता है। उसे देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा विश्वास नहीं है, किन्तु वह नास्तिक प्रकृति का भी नहीं होता। विदूषक अपने कर्म को प्राथमिकता देने वाला होता है। "चारुदत्त" नाटक में नायक द्वारा पूजा करने को कहा जाता है, तो विदूषक द्वारा कार्य टालने की क्रिया की जाती है। विदूषक कहता है:- "एकाक्यहं कथं गमिष्यामि!"4 मैं अकेले कैसे जाऊँगा! और बाद में केवल दिया लेकर "रदनिका" के साथ प्रस्थान करता है। रास्ते में दिया बुझ जाता है, जिस कारण नायक चारुदत्त के द्वारा उसे धिक्कारा भी जाता है किन्तु विदूषक मन को समझा-बुझा कर वापस चौराहे पर पूजा करने चला जाता है।

हास्य रस प्रधान विदूषक का चरित्र संस्कृत साहित्य में महत्वपूर्ण है। विदूषक का चरित्र हृदय के आस्वाद को बढ़ाने वाला होता है, जिसके द्वारा अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है। क्योंकि इसका सीधा संबन्ध वस्तुओं से नहीं, अपितु भावानुभूति से है। भारतीय कवियों ने प्रायः रसों की संख्या नव ही मानी है। किसी - किसी कवि के मत में अन्तर है, किन्तु सभी ने हास्य रस को निर्विवाद रूप से स्वीकारा है। नवीन कवियों की अपेक्षा पाश्चात्य कवियों ने विस्तार पूर्वक इसकी अभिव्यक्ति दी है। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में कहा है:-

विपरीतालङ्कारैविकृताचाराभिधान वेसैश्च।
विकृतैरर्थविशेषैहसतीति रसः स्मृतो हास्य।।5

अन्य कवियों ने भी इसी प्रकार विचार रखे हैं। तात्पर्य यह है, कि हास्य एक प्रीतिपरक भाव है और चित्तविकास का एक रूप है। उसका उद्वेग विकृत आकार, विकृत वेश, विकृत आचार, विकृत अभिधान, विकृत अलंकार, विकृत अर्थ विशेष, विकृत वाणी आदि द्वारा होता है।

इन विकृतियों से युक्त हास्य पात्र चाहे अभिनेता हो, चाहे वक्ता हो, चाहे नाटक का कोई अन्य पात्र हो या अन्य किसी भी प्रकार का हो। विकृति का अर्थ प्रत्याशित से विपरीत अथवा विलक्षण कोई ऐसा बेतुकापन, जो हमें प्रीतिकर जान पड़े, क्लेशकर ना जान पड़े। ऐसा हास्य जब विकसित होकर हमें कविकौशल द्वारा साधारणीकृत रूप में प्राप्त होता है, वह हास्यरस कहलाता है। हास्य के भाव का उद्वेग देश-काल- पात्र सापेक्ष रहता है। वर्तमान काल में भी विदूषक की परम्परा देखी जा सकती है। विदूषक के नाम और चरित्र की उपयोगिता पूर्वोक्त ही है। वर्तमान काल में चलचित्रों में हास्य कलाकार का चरित्र हमें आनन्दित कर देता है। चलचित्रों में हास्य कलाकार का वही स्थान है, जो नाटकों में विदूषक को प्राप्त है।

निष्कर्ष:-

1. उपर्युक्त कथनों के आधार पर इन सब युक्तियों से युक्त विदूषक का चरित्र नाटकों में चुटकुलो के इतिहास को बताता है एवं इसकी उत्पत्ति को भी दर्शाता है।
2. विदूषक के चरित्र को कविवर बहुत ही प्रभावपूर्ण एवं हास्य रस को ध्यान में रख कर चित्रित करते हैं।
3. विदूषक की परम्परा नाटकों में प्राचीन काल से है, और वर्तमान काल में भी यह लक्षित होता है।
4. विदूषक की परम्परा के आधार पर ही पाश्चात्य नाटकों में जोकर नामक पात्र का उदय हुआ है

शोधार्थी
नाम:- निरंजन ठाकुर
संस्कृत विभाग
इन्दिरा कला संगीत विश्वद्यिालय
खैरागढ़, राजनांदगाँव (छ.ग.)
मो.09425577638,09039725388
Email :- niranjanthakur52@yahoo.in

संदर्भ सूची

1. "विलोभितो मुग्ध ब्राह्मणः जनसमूहं प्रविश्य चतुष्पदमार्गे वक्षयित्वा गमिष्यामि।" (अविमारकम् द्वितीय अंक पृष्ठ संख्या 30-31) लेखक-आचार्य श्री रामचन्द्र मिश्र , चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी प्रथम् संस्करण, सन 1962
2. चन्द्रिके ! चन्द्रिके ! कुत्र-कुत्र चन्द्रिका हा वन्चितोऽमि। गण्डभेददस्याः षीलं जानन्नप्यात्मनो भोजनविस्रम्भेण च्छालितोऽमि। हन्तैशा धावति। तिष्ठ-तिष्ठ अधर्मिष्ठदासिः। तिष्ठ किं धावत्येन। (अविमारकम् द्वितीय अंक पृष्ठ संख्या 30-31) लेखक-आचार्य श्री रामचन्द्र मिश्र , चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी प्रथम् संस्करण, सन 1962
3. अहो राजकुलस्य विशेशः को अऽन्यो जनो मां प्रेक्ष्य पुरूशः इति भणति। स्त्रि खल्वहम्। अहं पुश्करिणी नाम चेटीः।
(अविमारकम् पंचम अंक पृष्ठ संख्या 134)
लेखक-आचार्य श्री रामचन्द्र मिश्र , चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी प्रथम् संस्करण, सन 1962
4. "एकाक्यहं कथं गमिश्यामि!" (चारुदत्त प्रथम् अंक पृष्ठ संख्या 33) लेखक श्री कपिलेश्वर गिरि , चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी द्वितीय संस्करण, सन 1966
5. विपरीतालङ्कारैविकृताचाराभिधान वेसैश्च।
विकृतैरर्थविशेशैहसतीति रसः स्मृतो हास्य।।
(नाट्यशास्त्र भरत मुनि)

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