चिर इच्छा को समर्पित कविताएँ

12-10-2014

चिर इच्छा को समर्पित कविताएँ

डॉ. सारिका कालरा

पुस्तक :: ‘लौट आने के लिए’ (काव्य संग्रह)
कवि : रमेशचंद्र घिल्डियाल,
प्रकाशक : शिखरदीप प्रकाशन,
34 डी, पॉकेट - ए, मयूर विहार,
फेस - 2, दिल्ली – 110091
संस्करण : 2011
पृष्ठ संख् या: 64 ,
मूल्य: रुपये एक सौ पचीस

रमेश चंद्र घिल्डियाल का ‘लौट आने के लिए’ उनका पहला काव्य संग्रह है। उनके द्वारा युवावस्था में लिखी गई कुछ कविताएँ भी इसमें संकलित हैं। इस संग्रह की उनकी कविताएँ गंभीर अनुभव की आँच में पगी हुई बेलौस कविताएँ हैं। साथ ही इसमें एक पहाड़ी मन है जो शहर में रहते हुए रह-रह कर पहाड़ की ओर झाँकता है। पहाड़ का व्यक्ति किन्हीं कारणों से पहाड़ से चाहे कितनी ही दूर चला जाए पर उसकी चेतना में वह पहाड़ हमेशा स्थित रहता है, वैसा ही स्थिर और सबल। इन पहाड़ों की ऊँचाइयों और जीवन की ऊँचाइयों (सफलताओं) दोनों में एक समानता है। यहाँ पहुँचकर हम एक पूर्णता, एक प्राप्ति का अनुभव करते हैं। इस उपलब्घि का हम जश्न मनाते हैं - चाहे जीवन में ऊँचा उठने या पहाड़ की चोटी पर चढ़ने पर, कवि की कविताएँ कहीं-कहीं इसी उपलब्धि को सेलिब्रेट करती हैं।

अज्ञेय जहाँ अपनी कविता में ‘मौन भी अभिव्यंजना है’ कहकर मौन की प्रबल शक्ति को अभिव्यक्त करते हैं, वहीं रमेश चंद्र अपनी पहली कविता ‘तोड़ डालो मौन’ में मौन को व्यक्तिगत अपराध के साथ सामाजिक अपराध की श्रेणी में ला खड़ा कर देते हैं - हृदय का ज्वालामुखी यदि फूटता है/फूटने दो/मत करो परवाह जग की/नफरतों की आँधियाँ यदि लीलती हैं/लीलने दो/अब बचा क्या शेष?/जब कुछ भी नहीं तो/अब न साधो मौन’

पहाड़ी गाँव और उसकी सुंदरता बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। अपनी जन्मस्थली, अपने गाँव से कवि का यह अटूट प्रेम सहज स्वाभाविक है। पगडंडियों पर बीता कवि का यह अबोध बचपन किसी के भी बचपन की कहानी हो सकता है - ‘इन्हीं पगडंडियों पर/उछलते कूदते/हँसते खेलते/मन बहलाते/ बीता था/मेरा अबोध सा, प्यारा बचपन।’ और फिर वक्त का आगे बढ़ना और महानगर में रहने की नियति भी किसी के भी जीवन का सच हो सकती है, पर कितने हृदय इस नौस्टेलजिया से उबरना चाहते हैं, शायद कोई नहीं। वर्तमान और उसकी सच्चाइयाँ हमें घेरे रहती हैं पर कवि तो कवि है। कवि का मन आज भी इतने अंतराल बाद उसी गाँव में उछलना, कूदना, मचलना, नाचना और गाना चाहता है - ‘क्यों होता है मन/लौट जाने को/फिर से/अपने उसी गाँव में/जहाँ मेरा बचपन/आज भी खुशी से/उछलता, कूदता, मचलता,/नाचता और गाता है। उनकी ‘काश’ शीर्षक कविता भी इसी संवेदना के रंग में रंगी हुई कविता है।

‘नयार नदी’ को उनके इस काव्य संग्रह की सबसे सशक्त कविता कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह कविता उत्तराखंड में रहने वाले लोगों की व्यथा कथा को बयान करती है। यहाँ हँसता, गाता, मोद मनाता जीवन ही नहीं है बल्कि आजीवन श्रम करता, समस्याओं से जूझता, अग्निसात होता जीवन है। यहाँ बहने वाली नयार नदी साक्षी है - समय के साथ होने वाले बदलावों की। कवि ने इन परिवर्तनों को नदी के आसपास ही नहीं अपितु स्वयं नदी में भी लक्षित किया है। मानो नदी ने भी इन परिवर्तनों को अपने भीतर आत्मसात कर लिया है। इसकी गोद में पले-बढ़े लाडले इससे दूर चले गए हैं, उनका कद इतना ऊँचा हो गया है कि उन्हें पहचानना भी अब मुश्किल लगता है। उत्तराखंड के गाँवों में होने वाले बदलावों को बड़े सशक्त रूप में यह कविता नयार नदी के माध्यम से व्यक्त करती है - ‘अब तो हर तरफ/बदलाव ही बदलाव/नज़र आता है/खुशहाल भरे पूरे गाँव/अब उजाड़ से नज़र आते हैं/हरी-भरी फसलों से लहलहाते खेत/आज बंजर सी धरती का/आभास-सा देते हैं/और उन्हीं के पास आज भी/बहा करती है/कुछ थकी-थकी सी, कुछ उदास-उदास सी/नयार नदी’’।

उत्तराखंड के गाँवों की सबसे बड़ी समस्या - ‘पलायन’ को दर्शाती यह कविता है। सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं, बड़े-बड़े मंचों, गंभीर लेखों के द्वारा जिस समस्या की ओर बड़े ज़ोर-शोर से ध्यान दिलाया जा रहा है। उसी बात को, उसी समस्या को कवि ने बड़े ही सरल, बिना भारी-भरकम शब्दों, वाक्याशों का प्रयोग किए बिना ही प्रस्तुत कर दिया है। ऐसी अभिव्यक्ति निश्चय ही सराहनीय है।

इस संग्रह की कुछ कविताएँ ऐसी हैं जिनमें कवि ने जीवन के संघर्षों, प्रश्नों के बीच एक नया दर्शन खोज निकाला है। यह कवि का अपना जीवन दर्शन है - ‘मंजिल की खोज’, त्रिबंध’, तुम्हें क्या नाम दूँ?’, ‘एकान्त पथिक’, पर्यटक मन’, ‘जीवन क्या है?’, पलकों के पार सागर’, प्रीत की है यही रीत’ आदि ऐसी ही कविताएँ है। उनकी ‘एकांत पथिक’ कविता बरबस ही जयशंकर प्रसाद की ‘प्रेम पथिक’ की याद दिला देती है। प्रसाद का पथिक कहता है - ‘‘इस पथ का उद्देश्य नहीं है, श्रांत भवन में टिक रहना। किंतु पहुँचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं।’’ रमेशचंद्र जी की यह कविता और मुख्य रूप से ये पंक्तियाँ प्रेम-पथिक की ही प्रतिध्वनि प्रतीत होती हैं - ‘‘पर नहीं मुझे इस नंदन वन की माया में/निज लक्ष्य भूल, निज, पथ छोड़ रम जाना है।’’

कुछ कविताओं को पढ़ने पर एक और भाव उभरता है, और वह है- कवि का किसी अपने से बिछोह। कवि का वह अपना जो उसकी निराशाओं, असफलताओं में उसके साथ रहा, उसे अपना दृढ़ विश्वास देकर सदा के लिए चला गया। उनकी कविता ‘लौट आने के लिए’ में यही भाव व्याप्त है - ‘लेकिन तुम/एक सपने की तरह आए मेरे जीवन में/और देकर मुझे जीवन की सफलता का मूलमंत्र/फिर जाने कहाँ चले गए’। उसी अपने की वापसी के लिए कवि इस कविता में ईश्वर से प्रार्थना करता है।

पच्चीस कविताओं का यह संकलन वास्तव में कवि के अनुभवों की विविधता से संपन्न है। एक पहाड़ी मन, उसका उल्लास, उसका दुख, अजनबी, कृत्रिम याँत्रिक जीवन जीने की विवशत को बयान करती ये कविताएँ अपने शिल्प में भी अनूठी हैं। कवि का सम्पूर्ण जीवन इन कविताओं में बिखरा पड़ा है। अपनी धरती से अलग होने का दुःख और दुःख में भी गज़ब धैर्य के साथ जीवन के संघर्षों पर विजय पाने की कवि की अदम्य इच्छा शक्ति से सराबोर ये कविताएँ किसी के लिए भी आशा की किरण हो सकती है।

डॉ. सारिका कालरा
सहायक प्रोफेसर
लेडी श्रीराम कॉलेज,
दिल्ली विश्वविद्यालय

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