चलते चलते जब थक जाऊँगा

15-07-2007

चलते चलते जब थक जाऊँगा

दीप कुमार

चलते चलते जब थक जाऊँगा
यहीं कहीं बस दो गज ज़मीं में सो जाऊँगा
खोजता रहा जो सरोवर मैं जीवन भर
डूबकर उसमें तृप्त मैं हो जाऊँगा
  
चलते चलते जब थक जाऊँगा
यहीं कहीं बस दो गज जमीं में सो जाऊँगा
 
खोजता रहा जो सरोवर मैं जीवन भर
डूब कर उसमें तृप्त मैं हो जाऊँगा
यहीं कहीं बस दो गज जमीं में सो जाऊँगा
 
उड़ा ऊँचा बहुत बहुत छूने को आकाश मैं
पूरी ये इच्छा भी हुई, धुआँ बन उस में ही मिल जाऊँगा
चलते चलते जब थक जाऊँगा
यहीं कहीं बस दो गज जमीं में सो जाऊँगा

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