बिना जुगाड़ के छपना

22-09-2007

बिना जुगाड़ के छपना

संजय ग्रोवर

कस्बे में यह खबर अफवाह की तरह फैल गई कि एक नवोदित लेखक एक राष्ट्रीय अखबार में बिना किसी जुगाड़ के छप गया। सभी हैरान थे कि आखिर यह हुआ कैसे। तरह-तरह की अटकलें लगाई जाने लगीं। कोई कहता कि यह चमत्कारों का युग है, इसमें कुछ भी हो सकता है, तो किसी का मानना था कि संयोगवश इस नवोढ़े कस्बाई लेखक और उस छपित राष्ट्रीय लेखक के नाम मिलते-जुलते से हैं। असल में दोनों अलग-अलग व्यक्ति है। बहुत सारे लोगों का अनुमान यह भी था कि यह सब खुद इसी लेखक की स्टंटबाजी है और यह अपनी ’इमेज’ बनाने के लिए झूठ बोल रहा है। वो दिन हवा हुए जब भारत सोने की चिड़िया था और लेखक बिना जुगाड़ के छपा करते थे। खैर! बंद कस्बे की ऊँघती सड़कों पर यह खबर खुले साँड़ की तरह दौड़ने लगी और अनुमानों के कुत्ते-बिल्ली गलियों-गलियों होते हुए घरों कें खिड़की-दरवाजों और यहाँ तक कि रसोइयों-पाखानों तक में जा घुसे।

पत्रकार-नगर के साहित्य मोहल्ले में तो दिन में ही रात्रि-जागरण जैसा मौसम बन चुका था। वरिष्ठ कवि ददुआ शहरी जी के यहाँ एक आपात्‌कालीन गोष्ठी चालू हो चुकी थी। अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए ददुआ शहरी जी की आँखें भर आई। रुआंसे स्वर में वे बोले, "एक वो भी समय था जब साप्ताहिक ’जुगनू का बच्चा’ में छपने के लिए मैं सारी-सारी रात संपादक जी के पैर दबाया करता था। दैनिक ’पैसे का दुश्मन’ को तो मैंने दस-दस रुपए वाले पाँच सौ विज्ञापन ला कर दिए। तब कहीं जाकर उन्होंने मेरी एक रचना छापी। एक यह कल का छोकरा है, जो बिना कोई संघर्ष किए, बिना पैर दबाए, बिना जुगाड़ किए ही राष्ट्रीय अखबार में छपने लगा। अगर ऐसा ही होने लगा तो हम संघर्ष करने वाले लेखकों का क्या होगा, जिन्होंने जुगाड़ लगाने में संघर्ष करते-करते अपनी सारी उम्र गुजार दी ... ...।" कहते-कहते उनका गला रुँध गया। पीड़ा के अतिरेक से उनका चेहरा जो पहले ही खूब लाल था, और लाल हो गया। अपना वक्तव्य यहीं पर समाप्त करके वे नीचे बिछी दरी पर जा बिछे।

उनके गिरने से ठीक पहले श्री अजीबो-गरीब ’प्रौढ़’ उठकर खड़े हो चुके थे। और एक बार खड़े हो जाने का मतलब था, अपना भाषण समाप्त करके ही बैठना। ’प्रौढ़’ जी अपेक्षाकृत सधे हुए स्वर में बोले, "संघर्ष की रवायत के ये कीमती हीरे जो हमारे बुजग… ने बड़ी हिफाजत और नफासत से हमे सौंपे थे, क्या हम उन्हें यूँ ही बिखर जाने देंगे। क्या एकाध मामूली और गैर जिम्मेदार नया लेखक हमारी इस समृद्ध परम्परा को तोड़ डालेगा। नहीं! हम ऐसा नहीं होने देंगे। हम एक प्रतिनिधिमंडल लेकर उस राष्ट्रीय अखबार के संपादक के पास जाएँगे और सामूहिक व सार्वजनिक रूप से उसकी सेवा करके बताएँगे कि एक लेखक और एक संपादक के रिश्ते में संघर्ष का क्या महत्व है। किस तरह से और किस तरह का संघर्ष एक साहित्यकार के जीवन को उपलब्धियों से भर देता है।" इतना कहकर उन्होंने अपनी बात के अनुमोदन की आशा में बाकियों की तरफ देखा तो पाया कि बाकी सब पहले से ही उनको निहार रहे हैं। इस प्रकार कुछ-कुछ खुश, कुछ-कुछ उत्तेजित ’प्रौढ़’ जी कुछ इस अंदाज में नीचे बैठ गए कि कहना मुiश्कल था कि वे ढह गए हैं या बह गए है।

’प्रौढ़’ जी से पहले और बाद में भिन्न-भिन्न प्रकार के कई भाषण हुए मगर जो आखिरी भाषण हुआ वह युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाले श्री हमजवान ’मैं’ जी का था। हमजवान ’मैं’ जी काफी तैश में दिख रहे था। बोले, "काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ती। मेरे पिता अक्सर कहते थे कि साहित्यकार को तो चिकनी मिट्टी का बना होना चाहिए, जिस पर अच्छी-बुरी परिस्थितियों का पानी ठहर ही न सके और वह अपनी चमक भी बरकरार रख सके। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि हम हमेशा की तरह इस संकट से भी उबर आएँगे और संघर्ष की अपनी पुरानी परम्परा को साफ बचा ले जाएँगे। मेरा दावा है और वायदा है कि जब तक हमारे युवा लेखकों के कंधों में दम है, हमारी इस संघर्षपूर्ण साहित्यिक यात्रा को कोई नहीं रोक सकता ... ...।" अभी वे शायद और भी कुछ कहते, मगर जब उन्होंने पचास से ऊपर के चार युवा साहित्यकारों को अपनी ’कंधों’ और ’यात्रा’ वाली बात का समर्थन करते देखा तो भावावेश में भाले की तरह अपनी ही धरती में जा धंसे।

इस सब और चाय-समोसों के मामूली अवरोध के उपरांत वातावरण को हल्का-फुल्का बनाने के लिए एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें तेरह कवि और बारह श्रोता थे।

गणित इस प्रकार था कि जब एक पढ़ता तो बाकी बारह श्रोता बन जाते थे। इन बारह श्रोताओं में से दस स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अखबारों के संवाददाता थे, जिन्हें काफी संघर्ष करके कलके अखबारों में इस गोष्ठी की लगभग तीन, चार या पाँच कालम की खबर छपवानी थी। इस संघर्ष के लिए उन्हें साहस मिलता रहे, इसके लिए वे बीच-बीच में समोसों का सहारा ले लेते थे। समोसा-भोजन और गोष्ठी-समापन अपने ’क्लाइमैक्स’ पर थे कि तभी वे एक खलनायक की तरह वहाँ से गुजरे। वे जिनके कारण यह सारा आयोजन किया गया था। यानी कि बिना जुगाड़ के छपने वाले लेखक महोदय। गोष्ठी में मौजूद तेरहों साहित्यकारों ने स्वाभावानुसार उन्हें घृणा से घूरा और परम्परानुसार प्रेम से अपने पास बिठाया। फिर कुछ शर्माते हुए, कुछ हिमकिचाते हुए, कुछ लड़खड़ाते हुए उनके बीच एक पुल सा बना और आखिरकार तेरह-मंडली ने झिझकते हुए पूछ ही डाला कि बिना जुगाड़ के छपने के इस हैरतअंगेज कारनामे को उन्होंने कैसे अंजाम दिया। इस पर उन्होंने मुस्कराते हुए बताया कि यह बहुत ही आसान है। आप अपनी रचना साफ कागज के एक तरफ हाशिया छोड़कर लिखें या टाइप करवाएँ और फिर उसे अपना पता लिखे टिकट लगे लिफाफे के साथ अखबार के संपादक को भेज दें।

एल्लो! खोदा पहाड़ निकली चुहिया। तेरह-मंडली ने अपना माथा पीटा कि उन्होंने चम्मच खाली होने का चमत्कार तो देखा मगर नाली से निकलते दूध को क्यों नहीं देखा। फिर भी तेरह मंडली यह राज जानकर फूली नहीं समाई। दुश्मन से दोस्त बन चुके लेखक को उन्होंने कई धन्यवाद दिए और दो समोसे भी जबरदस्ती खिलाए। तदुपरांत वे सब योजना बनाने में व्यस्त हो गए कि क्या जुगाड़ लगाई जो जिससे कि रचना बिना जुगाड़ के ही छप जाए।

इधर बिना जुगाड़ छपने वाला लेखक एक बार फिर अकेला रह गया।

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