बहुआयामी चेतना के कलाकार: नागार्जुन

05-04-2016

बहुआयामी चेतना के कलाकार: नागार्जुन

डॉ. वंदना बिंदलेश

कोई भी रचनाकार अपने सृजनकर्म के लिए समाज से विषय लेता है इसीलिए कहा भी गया है कि "साहित्य समाज का दर्पण है"। समाज में चलने वाले क्रियाकलाप ही उसे रचना के लिए विषय प्रदान करते हैं। रचनाकार सामान्यतः किसी विशेष संवेदनात्मक स्थिति से तादात्म्य स्थापित करता है। ऐसा होने पर परिस्थिति विशेष के प्रति वह सघन अनुभूति अनुभव कर उससे जुड़ जाता है। परंतु यदि रचनाकार संपूर्ण समाज को विषय बनाता है अर्थात् समाज की छोटी लगने वाली बातों से भी उसी गहराई से जुड़ता है जितना बड़ी लगने वाली बातों से, तो वह समाज की हर सूक्ष्म स्थिति से भी गहरी संवेदना रखता है। तब यही गहराई रचनाकार को प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण बनाती है। नागार्जुन भी ऐसे ही रचनाकार हैं जो जनमानस से गहरा संस्कार रखते हैं। ये जनसाधरण से गहरे जुड़े हैं। आम जन की हर छोटी-बड़ी परेशानियाँ, विचार, अनुभूतियाँ इन्होंने आत्मसात की हैं।

"खून-पसीना किया बाप ने एक, जुटाई फीस
आँख निकल आई पढ़-पढ़के नम्बर पाए तीस
शिक्षा मंत्री ने सिनेट से कहा- "अजी शाबाश!
सोना हो जाता हराम यदि ज्यादा होते पास"
फ़ेल पु़त्र का पिता दुखी है, सिर धुनती है माता
जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता"

(कविता- "भारत भाग्य विधाता" से, 1953 में रचित)

आम आदमी के जीवन से जुड़ी श्रमिक वर्ग के बालक पर आधारित इनकी एक अन्य कविता का अंश देखिए-

"बढ़ा है आगे को बेतरह पेट
धँसी-धँसी आँखें
फूले-फूले गाल
टाँग है कि तीलियाँ, अटपटी चाल
दो छोटी, एक बड़ी
लगी हैं थिगलियाँ पीछे की ओर
मवाद, मिट्टी, पसीना और वक्त--
चार-चार दुश्मनों से खाए हुए मार"

( कविता- "नई पौध", 1948 में रचित)

कहने का तात्पर्य है कि इनके यहाँ व्यापक संवेदना के संदर्भ बहुत गहरे हैं जो इनकी कालजयिता और अनुभव की उदात्तता के भी द्योतक हैं। दरअसल "पिछले पचास सालों में हिंदुस्तान की जो राजनीति रही, समाज की, ग़रीब आदमी की जो हालत रही, जितनी तरह के अपघात आदमी के साथ हुए और दुनिया के नक्शे पर भी जो ऊधम मचाई गई - वे सब या उसमें से अधिकांश नागार्जुन की कविताओं या उपन्यासों में एक चित्रशाला की तरह देखी जा सकती हैं; चित्रों के मुर्दाखाने की तरह नहीं, साक्षात्कार की चेतना से सम्पन्न दस्तावेजों की तरह। इनमें नागार्जुन की तकली, घृणा, क्रोध, उत्तेजना और बदलाव की तीव्र आकांक्षा अग्नि पिंड की तरह दहक रही है।"(कवि परम्पराः तुलसी से त्रिलोचन- प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ 149)

मानव और मानवेतर जीवन के परस्पर जुड़ाव की जैसी अभिव्यक्ति नागार्जुन में है वह इनकी रचनाओं को बार-बार संदर्भवान बनाती है। "नागार्जुन इसीलिए नागार्जुन हैं कि वे जनता के विवेक का ही नहीं, उसके आवेशों का भी; उसकी खूबियों का ही नहीं, कमजोरियों का भी; शाश्वत का ही नहीं, तत्काल का भी; शोषण का ही नहीं, राग और सौंदर्य का भी प्रतिनिधित्व करते हैं।"(कवि परम्पराः तुलसी से त्रिलोचन- प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ 150) यानी ये सही मायने में करुणाद्रवित मनुष्य थे। प्रगतिशील तथा लोक आकांक्षा के सहचर थे। इनका अनुभव संसार व्यापक था। "वह (बाबा) अपने अनुभव से गुज़रते हुए देखते थे कि कहाँ सच है? और कहाँ जनहित है।"(टेलीविजनः साहित्य और सामाजिक चेतना- डॉ. अमरनाथ अमर, पृ 87) इनकी रचनाशीलता के विस्तृत क्षेत्र के विषय में एक साक्षात्कार में डॉ. नित्यानंद तिवारी कहते हैं - "नागार्जुन के संदर्भ में भी मुझे लगता है कि सामग्री बहुत विपुल है। जीवन बहुत बड़ा है और लेखक बहुत छोटा है। और इसमें मुझे एक साहित्यिक तर्क दिखाई देता है कि कम से कम इतनी सामग्री जब आती है तो विविधता एक कला-प्रत्यय के रूप में हमारे सामने आती है। इस रचनावली से उस विविधता का भले ही वह समग्र न हो, पूरा न आ पाया हो, उसका असर पड़ेगा। चार हजार पृष्ठों तक यायावरी वृत्त के नागार्जुन, बौद्ध भिक्षु नागार्जुन, किसान आंदोलन और राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेने वाले नागार्जुन और लगभग सारा जीवन सकर्मक, संघर्षात्मक, लेकिन कहीं भी एक जगह टिक कर न रहने की आदत। न स्वभाव, न सुविधा और फिर भी इतना लेखन, यह एक आश्चर्यजनक चीज़ मुझे लगती है।"(वही, पृ 83) नागार्जुन की एक जगह टिक कर न रहने की आदत के कारण उनके लेखन में भी विविधता के अनेक आयाम उभरते हैं। इस संदर्भ में इनकी कविता का एक उदाहरण देखिए-

"अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ता से बोलाः हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ, नहीं मानती है मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस जुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में"

(कविता- "गुलाबी चूड़ियाँ", 1961 में रचित, "नागार्जुनः चुनी हुई रचनाएँ-2")

यहाँ हमें नागार्जुन की संवेदना का कोमल स्वर सुनाई देता है। एक पिता का पु़त्री से जुड़ाव और वत्सलता दिखाई देती है।

नागार्जुन के घुमक्कड़पन के विषय में डॉ. अजय तिवारी लिखते हैं- "जिस तरह घुमक्कड़ी नागार्जुन को सहजात संस्कार के रूप में मिली, उसी तरह अभाव और आलोचनात्मक विवेक भी उन्हें सहज संस्कार के रूप में प्राप्त हुआ। अंतर इतना था कि घुमक्कड़ी पिता से मिली और आलोचनात्मक विवेक अभावग्रस्त जीवन और पिता की मानवीय कमजोरियों से उत्पन्न विषम पारिवारिक स्थिति के दबाव से।"(नागार्जुन की कविता, अजय तिवारी, पृ 29) इसी संस्कार के कारण "नागार्जुन के काव्य के आस्वाद में विविधता है; उनके काव्य की भाषा में भी विविधता है। नागार्जुन के जीवन के अनुभवों में विविधता है, काव्य के आस्वाद और भाषा की विविधता का अनुभव वैविध्य से घनिष्ठ संबंध है।" (वही, पृ 29) उनके निजी जीवन को प्रकाशित करती एक कविता के कुछ अंश देखिए-

"घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल!
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल!
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज?
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज?
चाहिए किसको नहीं सहयोग?
चाहिए किसको नहीं सहवास?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराए यह उच्छ्वास?
हो गया हूँ मैं नहीं पाषाण..............."

(कविता- "सिंदूर तिलकित भाल" से, 1943 में रचित, "नागार्जुनः चुनी हुई रचनाएँ-2")

उनके घुमक्कड़ स्वभाव और उससे उपजी पीड़ा का परिचय एक अन्य कविता से मिलता है-

"तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज...................
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा सम्पर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जबकि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुस्कान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान"

(कविता- "यह दंतुरित मुस्कान" से, 1943 में रचित, "नागार्जुनः चुनी हुई रचनाएँ-2")

प्रो. निर्मला जैन लिखती हैं - "दंतुरित मुस्कान" की छविमानता कवि को पहले ही संजीवनी-सी लगती रही और "धूलि धूसरगात" तालाब को छोड़कर "झोपड़ी में खिलते जलजात" से। यह झोपड़ी मेरी है। प्रकृति का सौंदर्य प्रकृत ही नहीं सहज और आत्मीय हो गया है। ये जलजात समाज के किस वर्ग से ताल्लुक रखते हैं, स्पष्ट करने की ज़रूरत नहीं।"(लेख- प्रकृति की यायावरी आत्मीयता का कवि-नागार्जुन- प्रो.निर्मला जैन, नागार्जुन और समकालीन विमर्श- संपादक रमा, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ.29) "विषयों के चयन में भी कवि नागार्जुन की दृष्टि का वैशिष्ट्य उन्हें अपने आगे-पीछे के तमाम कवियों से अलग करता है। उनकी दुनिया बहुत व्यापक है। उसमें सागर है, ऋतुएँ हैं, जंगल और नगर-उपनगर हैं, कस्बे हैं, गाँव हैं और इन सबके बीच फैला-पसरा अनंत जीवन है- मानवीय और प्राकृतिक। मानव जीवन के सब रंग हैं उनके काव्य में। सभी स्तरों, पेशों, आयुवर्गों, दलों, आर्थिक वर्गों के लोग ही लोग हैं। उनकी यायावरी प्रवृति एकदम मेल खाती है, इस वैविध्य से। जीवन को उनके नाना रंगों में देखना, उससे लगातार मुठभेड़ करना और फिर उसे कविता में कैद कर लेना- प्रकृति के सहज सृजन व्यापार की तरह। कवि कर्म नागार्जुन के लिए फ़लीभूत होना है।"(वही, पृ.30) इस पूरी प्रक्रिया में नागार्जुन जीवन के सहज, अनगढ़ रूपों में सौंदर्य की खोज करते हैं और स्वयं भी उस सौंदर्य पर चकित और मुग्ध् हो जाते हैं।

इस कविता में नागार्जुन अलग "मूड" के साथ उपस्थित होते हैं-

"तुमसे क्या झगड़ा है
हमने तो रगड़ा है--
इनको भी, उनको भी, उनको भी!
दोस्त है, दुश्मन है
खास है, कॉमन है
छाँटो भी, मीजो भी, धुनको भी!"

(कविता- "हमने तो रगड़ा है", 1978 में रचित, "नागार्जुनः चुनी हुई रचनाएँ-2")

ऐसी दो टूक, खरी, निर्मम और साथ ही आक्रामक भाषा में अपने को व्यक्त करने वाले नागार्जुन की हिम्मत उपरोक्त पंक्तियों की तपिश से ही जानी जा सकती है। "इन पंक्तियों में नागार्जुन ने कवि के भाषाचार और भावाचार की उन तमाम मर्यादाओं को गिना दिया है जिनकी ज़रूरत असाधरण ऐतिहासिक परिस्थितियों में पड़ती है। दोस्त है, दुश्मन है, खास है, कॉमन है कहकर कवि और लेखक से यहाँ तक कह डाला है कि विचारधारा और उसकी राजनीति भी लोकविरोधी और पापाचारपूर्ण हो तो उसे भी मीजने और धुनकने में परहेज नहीं करना चाहिए। यही भारत की कवि परंपरा है।"(लेख- संवेदना के अवतार थे कवि नागार्जुन- प्रो. विजय बहादुर सिंह, नागार्जुन और समकालीन विमर्श- संपादक रमा, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ. 50-51) प्रो. विजय बहादुर सिंह भारत की कवि परंपरा के विषय में आगे लिखते हैं- "जो लोग इस परंपरा से अनभिज्ञ हैं, भारत का जीवन उन्हें अर्थशून्य या अर्थ-निःशेष लगता है, जिनकी मानसिक बनावट कहीं से भी देशी नहीं रह गई है, जिनके काव्य-संस्कार साम्राज्यवादी अथवा अतार्किक ढंग से ग्लोबवादी हैं, जो चुनिंदा विचारों के गमलों में किन्हीं पालतू घरेलू पौधें की तरह पल-पुस कर लहरा रहे हैं, जिन्होंने विशाल भारतीय जीवन के कुम्भीपाकी यथार्थों का साक्षात्कार नहीं किया है, काव्य और कलाएँ जिनके लिए अभिजात सैद्धांतिक निर्मितियाँ हैं, या फिर सांस्कृतिक सत्ता-संस्थान, वैसों को नागार्जुन का यह काव्य-संदेश शायद ही पल्ले पड़े, पल्ले पड़े भी तो बकवास जान पड़े। या फिर ऐसा खतरनाक और असुविधाजनक कि प्रतिभा की रूह तक काँप उठे।" (वही, पृ. 51)

एक कविता यह भी देखिए, इसमें कवि सम्पन्न वर्ग पर व्यंग्य करते हैं। इसी को इंगित करते हुए सुभाष जी लिखते हैं- "नागार्जुन जैसा सार्थक और तीक्ष्ण व्यंग्य बहुत कम कवियों में देखने को मिलता है। सामाजिक प्रश्न हो या आर्थिक समस्या, कवि ने यथास्थितियों का आकलन करते हुए बड़े सजग ढंग से विनोद और व्यंग्य के माध्यम से उसे सुलझाने का प्रयास किया है। आर्थिक स्थिति आज जितनी शोचनीय है उतनी पहले कभी नहीं थी। इसी संदर्भ में देश की आर्थिक स्थिति दिन पर दिन कितनी भयानक होती जा रही है तथा गरीब और गरीब तथा धनिक और धनिक होते जा रहे हैं। इसका अत्यन्त वास्तववादी चित्रण कवि ने अपनी प्रसि( कविता "मन करता है" में किया है।"(नागार्जुन के काव्य में जनचेतना- डॉ. सुभाष क्षीरसागर, शुभम् पब्लिकेशन, कानपुर, प्र. सं. 2011, पृ. 180)

"मन करता हैः
नंगा होकर कुछ घण्टों तक सागर-तट पर मैं खड़ा रहूँ
यों भी क्या कपड़ा मिलता है?
धनपतियों की ऐसी लीला!"

(कविता- "मन करता है", "नागार्जुनः चुनी हुई रचनाएँ-2")

नागार्जुन ने पूँजीपतियों के बीच फँसे आम जन की पीड़ा को पूरी विडम्बना के साथ यहाँ व्यक्त कर दिया है।

"नागार्जुन ने अपने कवि जीवन के लगभग पचास वर्षों में हज़ार के आसपास कविताएँ लिखी हैं। एक-एक कतरे को, एक-एक कविता को जोड़ने से जो नक्शा बनता है, वह इतना विस्तृत, इतना जन-संकुल है कि किसी एक बिंब या सूत्र में उनके काव्य-लोक को व्यक्त नहीं किया जा सकता। ये हज़ार-हज़ार बाँहों वाली कविताएँ हैं, हज़ार दिशाओं को इंगित करती, हज़ार वस्तुओं को अपनी मुट्ठियों में थामे। इसीलिए नागार्जुन को समग्र रूप में पढ़ना ही श्रेयस्कर है। एक कविता या उनका एक संग्रह उनके पूरे संसार को व्यक्त नहीं करता।"(लेख- नागार्जुन की कविता- प्रो. अरुण कमल, नागार्जुन और समकालीन विमर्श- संपादक रमा, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ.37) नागार्जुन की कविता की विस्तृत भूमि के संदर्भ में अरुण कमल आगे लिखते हैं- "मिथिला के रुचिर भू-भाग से लेकर मुलुंड के अति सुदूर प्रदेश तक फैली हुई काव्य-भूमि, बिहार के सामंती उत्पीड़न से लेकर अमरीकी साम्राज्यवाद तक की शोषण-शृंखला, भूमिहीन मजदूरी के दुर्दम संघर्ष से लेकर जूलियन राजनबर्ग की महान् संघर्ष-गाथा और नितांत व्यक्तिगत जीवन-प्रसंगों से प्राप्त सुख-दुख से लेकर बाकी सारे जगत के सुख-दुख- मोतिया नेवले और मधुमती गाय तक के; यह चौहद्दी है नागार्जुन के काव्य-महादेश की।" (लेख- नागार्जुन की कविता- प्रो.अरुण कमल, नागार्जुन और समकालीन विमर्श- संपादक रमा, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ.37-38) इस जीवन संधान में उनके घुमक्कड़पन से और अधिक निखार आता है। दरअसल "उनकी घुमक्कड़ी का जो लाभ उनके कवि को मिला उसे हम उनकी कविता में सहज ही देखते हैं। भारत में पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्खिन सब तरफ़ के जीवन और सब तरफ़ की प्रकृति से नागार्जुन का प्रत्यक्ष परिचय है। जीवन की विपुल अनुभव राशि किसी कवि की चेतना को किस रूप में ढालती है, नागार्जुन की कविताएँ इसका अकाट्य उदाहरण हैं। जीवन के अनुभव और रचनात्मक साहित्य में जितना प्रत्यक्ष संबंध नागार्जुन के यहाँ देखने को मिलता है उतना विभिन्न कारणों से उनके समकालीन या बाद के अधिकांश कवियों में नहीं मिलता।"(नागार्जुन की कविता, अजय तिवारी, पृ 29)

"मैं भी तो पहले देखा करता था सपने
साथी, अब तो रंग-ढंग ही बदल गए हैं
समझ गया हूँ
जीवन में इस धरा-धम का क्या महत्त्व है
कैसे कहलाता कोई धरती का बेटा
आसमान में सतरंगी बादल पर चढ़कर
कैसे जनकवि धान रोपता
समझ गया हूँ
कैसे जनकवि जमींदार के उन अमलों को मार भगाता
हरे बाँस की हरी-हरी लाठी लेकर....
सब समझ गया हूँ!"

(कविता- "जनकवि", 1947 में रचित, "नागार्जुनः चुनी हुई रचनाएँ-2")

इनकी एक अन्य कविता का उदाहरण देखिए-

"सेठ और जमींदारों को नहीं मिलेगा एक छदाम,
खेत-खान-दूकान-मिलें सरकार करेगी दखल तमाम;
खेत-मजदूरों और किसानों में जमीन बँट जाएगी,
नहीं किसी कमकर के सिर पर बेकारी मँडराएगी;
नहीं मिलेगा साजिश करने का मौका गद्दारों को,
वतन-फ़रोशी का न मिलेगा ठेका ठेकेदारों को;
सपने में क्षमा मिलेगी नहीं कभी हत्यारों को,
एक-एक कर कैद करेगी जनता रंगे सियारों को;
नौकरशाही का यह रद्दी ढाँचा होगा चूरम-चूर,
सुजलां-सुफ़लां के गायेंगे गीत प्रसन्न किसान-मजूर;"

(कविता- "लाल भवानी" से, 1948 में रचित, "नागार्जुनः चुनी हुई रचनाएँ-2")

"नागार्जुन सही अर्थ में एक आधुनिक कवि हैं। आधुनिक भारत के निर्माण के लिए देश को साम्राज्यवाद के चंगुल से आज़ाद करना और जनता को पूँजीवादी सामंती शोषण से मुक्त करना अनिवार्य है। यह देश की राजनीतिक आधुनिकता है। नागार्जुन की कविताओं में राजनीति की गूँज व्याप्त है, इसलिए राजनीतिक दृष्टि से देखने पर वे आधुनिक भारत के एक सशक्त कवि के रूप में प्रकट होते हैं। सांस्कृतिक चेतना की दृष्टि से देखने पर भी उनकी आधुनिकता के तत्त्व में किसी भी तरह घुटन या कुंठा नहीं है। उनकी आधुनिकता जीवन-यथार्थ से उत्पन्न हुई है। आज के भारत का सांस्कृतिक संकट मनुष्य के अस्तित्व का संकट नहीं है, वह पूँजीवादी व्यवस्था का संकट है। मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण से उत्पन्न संकट है। समाज के इस अन्तर्विरोध को दूर करना नागार्जुन की आधुनिकता की मुख्य विशेषता है। उनका संपूर्ण काव्य इन निष्कर्षों को प्रमाणित करता है।"(लेख- जनकवि नागार्जुन - प्रो. खगेन्द्र ठाकुर, नागार्जुन और समकालीन विमर्श- संपादक रमा, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ.48)

"झूठ-मूठ सुजलां-सुफ़लां के गीत न हम अब गायेंगे,
भात-दाल-तरकारी जब तक नहीं पेट भर पायेंगे;
सड़ी लाश है जमींदारियाँ, इनको हम दफ़नायेंगे,
गाँव-गाँव पाँतर-पाँतर को हम भू-स्वर्ग बनायेंगे; ................
नाहक ही हम पिटते आए, व्यर्थ लाठियाँ खाई हैं,
पहचाना अब, चोर-चोर सब ये मौसेरे भाई हैं!
होशियार, कुछ देर नहीं है लाल सवेरा आने में,
लाल भवानी प्रकट हुई है सुना कि तैलंगाने में!"

(कविता- "लाल भवानी" से, 1948 में रचित, "नागार्जुनः चुनी हुई रचनाएँ-2")

संवेदनात्मक स्तर पर तो नागार्जुन के संस्कार गहन हैं ही किंतु साथ ही भाषायी स्तर पर भी विशिष्टता दिखाई देती है। नागार्जुन ने मार्क्सवादियों के समान ही कुछ प्रतीकों को परंपरागत रूप में अपनाया है जैसे "लाल सवेरा" आदि। लक्ष्मण श्रीरंग राऊत लिखते हैं- "नागार्जुन जी ने निराला जी जैसे ही विविध प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग करके समसामयिक नेताओं, अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तियों आदि पर करारे व्यंग्य किए हैं। इन प्रतीकों में अर्थ-वहन करने की अपूर्व क्षमता है, भाव-प्रेषणीयता का विलक्षण गुण है। जैसे क्रांति के रूप में "लाल-सवेरा" अन्य कवियों की भांति नागार्जुन ने भी अपनाया है। वस्तुतः यह प्रतीक मार्क्सवादियों द्वारा बिलकुल रूढ़ बना दिया गया है।"(लेख- जनकवि बाबा नागार्जुन की काव्यभाषा- लक्ष्मण श्रीरंग राऊत, नागार्जुन और प्रगतिशील साहित्य, संपादक- प्रो. डॉ. माधव सोनटक्के और डॉ. भारती गोरे, स्वराज प्रकाशन, प्र. सं. 2011, नई दिल्ली, पृ. 221) इनकी अनेक रचनाओं में ऐसे रूढ़ प्रतीकों के दर्शन होते हैं। "होशियार, कुछ देर नहीं है लाल सवेरा आने में, लाल भवानी प्रकट हुई है सुना कि तैलंगाने में!" कविता में भी इसी प्रकार की प्रतीक पद्धति दिखाई देती है। "कवि नागार्जुन ने भिन्न-भिन्न प्रतीकों का प्रयोग करके अपनी भाषा को अधिक सम्पन्न बनाया है। कवि ने जितने भी और जहाँ भी प्रतीकों का प्रयोग किया है, उन प्रतीकों में अर्थवहन करने की अद्भुत क्षमता है।"(नागार्जुन के काव्य में जनचेतना- डॉ. सुभाष क्षीरसागर, शुभम् पब्लिकेशन, कानपुर, प्र. सं. 2011, पृ.282-283) इसी संदर्भ को प्रेम प्रकाश गौतम इन शब्दों के माध्यम से व्यक्त करते हैं- "प्रतीक अनुभूति के संप्रेषण का साधन है, प्रतीक योजना करते हुए कवि का उद्देश्य अपने अर्थ की अभिव्यक्ति अपने अनुभव का प्रेषण करना है। अर्थ प्रेषण ही कवि को अभिप्रेत होता है।"(प्रेम प्रकाश गौतम, साहित्य संदेश, जु॰-अगस्त 1967, पृ.67, नागार्जुन के काव्य में जनचेतना, पृ.283 से उद्धृत)

नागार्जुन की इस रचनात्मकता में उनके संवेदनात्मक अनुभव जितने गहन हैं भाषा एवं शिल्प की दृष्टि से भी उतनी ही विविधता दिखाई देती है। "नागार्जुन के हजार ढंग हैं बात करने के। जितने-मुँह, उतनी बोली। कभी तो वे निपट पारंपरिक छंद कहेंगे, तो कभी शुद्ध "गद्य कविता" लिखेंगे। छंदों के अनेक प्रकार हैं। एक ही छंद की कई लयें हैं। एक ही कविता में रह-रह कर छंद बदल सकता है। लय बदल सकती है। वे खालिस गद्य पर उतर सकते हैं। वह सब कुछ हो सकता है, जिसका अनुमान भी आपने न किया था"(लेख- नागार्जुन की कविता- प्रो. अरुण कमल, नागार्जुन और समकालीन विमर्श- संपादक रमा, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ.38) असल में "भाषा पर उनका जबर्दस्त अधिकार है और वे एक नहीं अपितु अनेक भाषाओं के जानकार हैं। और अनेक भाषाओं में उन्होंने काव्य सृजन किया है।"(नागार्जुन के काव्य में जनचेतना- डॉ. सुभाष क्षीरसागर, शुभम् पब्लिकेशन, कानपुर, प्र. सं. 2011, पृ 258) डॉ. सुभाष आगे लिखते हैं- "नागार्जुन संस्कृत भाषा के पंडित थे। आरंभ में उन्होंने संस्कृत एवं मैथिली भाषा में ही काव्य सृजन किया था। इसीलिए उनके काव्य में कई स्थलों पर उनका संस्कृत ज्ञान तत्सम शब्दों की शब्दावली में दिखाई देता है। यह सच है कि तत्सम शब्दावली का प्रयोग कवि ने बहुत कम कविताओं में किया है। पर जहाँ भी किया गया है, वह कविता को सार्थक बनाने के लिए ही। उनकी "जनवंदना", "काली सप्तमती का चाँद", "शरद पूर्णिमा", "कालीदास के प्रति", "बादलों को घिरते देखा" आदि कविताओं में तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।" (वही, पृ. 258-259) उनकी कविता "जनवंदना" में तत्सम शब्दों का प्रयोग विपुल मात्र में हुआ है। एक उदाहरण देखिए-

"तुम मानवता के दूषित-गलित अवयवों पर/ प्रलयांत विघ्न बन बरस रहे/ हो रहा तुम्हारे लोहित नील स्पुलिंगों से/ त्रिभुवन का तम तोम हरण/ हे कोटि शीर्ष? हे कोटि बाहु, हे कोटि चरण।"

(आलोचना, 6, जन/जून 1981, पृ. 27)

नागार्जुन के रचनाकर्म के विषय में डॉ. नित्यानंद तिवारी कहते हैं - "नागार्जुन जी ने बंगला में, संस्कृत में, हिंदी में, मैथिली में लिखा। और इससे फिर मैं रिड्यूस करना चाहता हूँ एक चीज़ कि भाषा और बोली का गहरा संबंध समाज और जीवन, किसी समाज में रहने वाले लोगों की जीवन शैली और संस्कृति से होता है तो इतनी भाषाओं में लिखने के कारण एक अंतरसांस्कृतिक, अंतर्सामाजिक बोध और अनुभव उत्पन्न हो सकता है और इस दृष्टि से नागार्जुन जी की बंगला, मैथिली, हिंदी और संस्कृत की कविताओं का अध्ययन नए सिरे से अगर किया जाए तो एक ऐसा मिला-जुला अनुभव हमें दिखाई पड़ेगा जो भाषाओं के माध्यम से मिले-जुले समाज का अनुभव हो और साहित्य का।" (टेलीविजनः साहित्य और सामाजिक चेतना- डॉ. अमरनाथ अमर, पृ 83)

नागार्जुन की संस्कृत भाषा की एक कविता देखिए--

"स्वर्णानां दाडिमानीव
डालरारः सुन्मनोहराः।
किं चित्रमभ्रगमने
यूकालिक्षापि योगिनी।।"

(कविता- "डालराः", "नागार्जुनः चुनी हुई रचनाएँ-2")

इनकी मैथिली भाषा की एक कविता देखिए--

"क्षार-अम्ल
विगलनकारी, दाहक
रेचक,उर्वरक........
रिक्शाबलाक पीठ दिशुका फाटल तार-तार बनियाइन
पसेनाक अधिकांश गुण-धर्मकेँ
कए रहल अछि प्रमाणित
मोन होइए हमरा
विज्ञान क कोनो छात्रसँ जा कँए पुछिअइन-
बेशी सँ बेशी की सभ होइत छइक
पसेनाक गुण-धर्म?
रिक्शाबलाक पीठक चाम
आओर कते शुष्क-श्याम हेतइ?
स्नायुतंतुक ऊर्जा आओर बरकतइ?
आओर कते........
क्षार-अम्ल, दाहक विगलनकारी......"

(कविता- "पसेनाक गुण-धर्म", "पधहीन नग्न गाछ" संग्रह से)

इस भाषायी वैविध्य के कारण ही नागार्जुन में मिली-जुली संस्कृति और एकमेक हुए समाज के दर्शन होते हैं। डॉ. नित्यानंद तिवारी भी नागार्जुन में इसी भाषायी वैविध्य को देखते हैं। गिरिधर राठी बाबा नागार्जुन की कविताओं के संदर्भ में कहते हैं - "कविता में तो खासतौर से आप देखेंगे कि यही प्रयोगशाला उनमें है कि पुरातन छंदों से लेकर संस्कृत के, बांग्ला के, मैथिली के छंद और दूसरे तमाम तरह के उपकरण हो सकते हैं। काव्यों में उनका उपयोग करते हुए उन्होंने कविता की है और छंद मुक्त और सब तरह के बंधनों से मुक्त कविता भी की। यह एक अनोखी प्रयोगशीलता है जो हमको निराला में मिलती है और फिर नागार्जुन में।"(टेलीविजनः साहित्य और सामाजिक चेतना- डॉ. अमरनाथ अमर, पृ 87)

एक उदाहरण देखिए--

"फैल गयी हिंसा की लीला
गंगा दूषित, जल है पीला
काँप रहा मजनू का टीला
घोंट-घाँट है, घटा-घटक है
घटकवाद है, उठा-पटक है.......
घाव घाव है, दवा नहीं है
घुटन घुटन है, हवा नहीं है
चूल्हा है, पर तवा नहीं है
राशन सीताराम सटक है
घटकवाद है, उठा-पटक है"

(कविता- "घटकवाद की उठा-पटक है" से, "तुमने कहा था" कविता-संग्रह से, पृ.70-71)

 "नागार्जुन को पढ़ने का अर्थ है हिंदी भाषा के वास्तविक जगत में लौटना, हिंदी के निजी स्वरूप और संस्कारों से परिचित होना। भाषा के इतने रूप, बोलियों के इतने "मिक्स्चर" उनकी कविताओं में मिलते हैं कि यदि उनके काव्य के अन्य प्रसगों को छोड़ भी दें, तो सिर्फ़ अपनी भाषा के लिए वे हमेशा-हमेशा के लिए महत्त्वपूर्ण बने रहेंगे। शब्दों को वे इस तरह फेंटते हैं, जैसे ताश के पत्ते। फेंटकर कहीं से काट लिया। उनकी अत्यन्त समसामयिक, क्षणभंगुर सी लगने वाली कविताओं में भी शब्दों का अपना मजा है, रस है।"(लेख- नागार्जुन की कविता- प्रो.अरुण कमल, नागार्जुन और समकालीन विमर्श- संपादक रमा, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ.38)

नागार्जुन की भाषागत वैशिष्ट्य की कविता का एक अंश देखिए--

"युग की अनुगुंजित पीड़ा ही घोर घन-घटा सी गहराई
प्रिय भाई शैलेन्द्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई
तिकड़म अलग रही मुस्काती, ओह, तुम्हारे पास न आई
फ़िल्म-जगत की जटिल विषमता आखिर तुमको रास न आई
ओ जन-जन के सजग चितेरे, जब-जब याद तुम्हारी आती
आँखें हो उठती हैं गीली, फटने-सी लगती है छाती"

(कविता- "शैलेन्द्र के प्रति" से, "तुमने कहा था" कविता-संग्रह से, पृ.33)

दरअसल इन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतने काव्यरूप, इतनी शैलियों (प्रमुख रूप से स्वगत में मुक्त बातचीत की शैली) का इस्तेमाल किया है कि पाठक या श्रोता आश्चर्यचकित रह जाता है। देसी बोली के ठेठ शब्दों के साथ-साथ संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली का प्रयोग भी हैरान करने वाला है। एक उदाहरण देखिए--

"यहीं करें आप यथारुचि यथाशक्ति शव-साधन
कुत्ते और गीध करेंगे आपका आराधन
मिलेंगे यहाँ आपको शुद्ध निर्दोष मुर्दे
ताज़ा है कलेजा, अविकृत हैं गुर्दे
आएँ आप महामहिम, आएँ
इसी दग्ध भूमि पर अपना आसन जमाएँ।"

(कविता- "महाप्रभु जान्सन (ख)" से, "तुमने कहा था" कविता-संग्रह से, पृ.37)

छंदों का सधा हुआ चमत्कारपूर्ण प्रयोग और गीतिकाव्य के प्रति विशेष आग्रह भी इनमें दिखाई देता है। "गीतिकाव्य के प्रति नागार्जुन के मन में कैसी तीव्र ललक थी, इसका पता एक तथ्य से चलता है। यह सुपरिचित बात है कि वे मैथिली के कवि होने के साथ-साथ संस्कृत के भी जानकार थे, बल्कि इस भाषा में भी उन्होंने कुछ कविताएँ लिखी हैं। इस नाते उन्होंने कोशिश की कि इन दोनों भाषाओं का जो सर्वोत्तम ललित काव्य है, वह उनकी लेखनी के माध्यम से हिंदी में भी आ जाए। उनकी लेखनी के माध्यम से, यानी उनकी नवीन काव्य-संवेदना के साथ। इसके लिए उन्होंने संस्कृत से जिन दो काव्यों का चुनाव किया, वे हैं, कालिदास का मेघदूत और जयदेव का गीत गोविंद। ये दोनों गीतिकाव्य तो हैं ही, घोर शृंगारिक काव्य भी हैं। उन्होंने इन दोनों ही सरस काव्यों का क्रमशः मुक्तछंद और ललित गद्य में अनुवाद किया और इस तरह अपने प्रगतिशील पाठकों को प्रकारान्तर से बतलाया कि क्रांति और प्रेम अथवा शृंगार में कोई विरोध नहीं है, बल्कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। .............मेघदूत और गीत गोविंद के बाद नागार्जुन ने मिथिला जनपद के ही नहीं, पूर्वी भारत के सर्वश्रेष्ठ कवि विद्यापति के सवा सौ से भी अधिक चुने हुए शृंगारिक पदों का अत्यन्त ही रमणीय हिंदी रूपांतर प्रस्तुत किया। यह तथ्य कविरूप में उनकी मनोभूमि की रचना का अच्छी तरह से पता देता है। उल्लेखनीय यह भी है कि उन्होंने विद्यापति के पदों को सीधे-सीधे गीत कहा है।"(शताब्दी की कविता- नंदकिशोर नवल, पृ 133)

"कई बार वे उन व्यक्तित्वों और कृतियों की प्रशंसा और आदर करते हैं जो प्रगतिशीलता की सूची से खारिज हैं, लेकिन जिन्होंने जीवन के ऊँचे मानक कायम किए हैं और कला, सौंदर्य, अध्यात्म तथा विचारों को समृद्धि दी है। वरना मेघदूत, गीत-गोविंद, विद्यापति, गाँधी, महावीर, गौतम बुद्ध आदि उनके काव्य की सकारात्मक विषयवस्तु क्यों होते?"(कवि परम्पराः तुलसी से त्रिलोचन- प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ 150) इसका तात्पर्य यही है कि नागार्जुन की कविता ने जहाँ छंदबद्धता व गीत की परम्परा को आगे बढ़ाया वहीं वह जनसाधरण से सीधे जुड़कर अभिव्यक्त हुई। 19 मई 1983 को अजयसिंह के साथ बातचीत में नागार्जुन जनसंघर्षों से अपनी कविता को जोड़ते हुए कहते हैं--"मैं इन जनसंघर्षों व संगठनों से जुड़ना व उन्हें जानना चाहता हूँ, क्योंकि मेरी कविता के लिए- बेहतर कविता के लिए, यह बहुत जरूरी है। मेरी जितनी भी अच्छी व चर्चित कविताएँ हैं--जिनकी वजह से मैं आज कुछ हूँ- वे सब जनसंघर्षों से जुड़ी कविताएँ हैं।"(मेरे साक्षात्कार- नागार्जुन, किताबघर प्रकाशन, प्र. सं. 1994, पृ 132) युवालेखन के बारे में नागार्जुन की व्यक्तिगत धरणा क्या है? पूछे जाने पर वह कहते हैं- "आज का वही प्रतिभाशाली युवक मुझे आकर्षित करता है, जिसकी रचना में मौजूदा संघर्ष मुखर रहता है। नितांत व्यक्तिगत स्तर पर अपनी परिसीमित वेदनाओं की गिट्टियाँ फोड़ने वाले मेरी निगाहों में बड़े ही दयनीय जीव जँचते हैं। अपनी ही घुटन को, कुंठा को, सन्त्रास को लेकर कुढ़ने-बिसुढ़ने वाले मुझे कभी नहीं अच्छे लगे। व्यथा और उल्लास का साधारणीकरण मेरी दृष्टि में बहुत बड़ा गुण है रचनाधर्मिता का।"(मेरे साक्षात्कार- नागार्जुन, किताबघर प्रकाशन, प्र. सं. 1994, पृ 21)

जगन्नाथ पंडित नागार्जुन की रचनाओं के बारे में लिखते हैं कि "उनकी कविताओं को पढ़ने के बाद उनके उपन्यासों को न पढ़ने पर बहुत कुछ छूट जाता हो, ऐसा नहीं लगता क्योंकि दृष्टिकोण में उनका उपन्यासकार रूप उनके कवि रूप से पृथक नहीं है। दोनों विधाओं में वे व्यवस्थाविरोधी रचनाकार हैं। इसके बावजूद उनके उपन्यास और कविता की अन्तर्वस्तु में एक बुनियादी फ़र्क है। व्यंग्य और साम्राज्यवाद-विरोध का जितना प्रखर स्वर उनकी कविताओं में है, उतना उपन्यासों में नहीं और वर्ग संघर्ष तथा जनान्दोलनों का जो प्रत्यक्ष और मुखर रूप उनके उपन्यासों में है, वह कविताओं में नहीं, यद्यपि दोनों स्वर दोनों में मौजूद हैं।"(कथाकार नागार्जुन- डॉ. जगन्नाथ पंडित, प्राक्कथन से उद्धृत)

नागार्जुन की रचनाधर्मिता का संबंध, वह चाहे उनकी कविता हो अथवा उनके उपन्यास, प्रमुख रूप से आजा़द भारत से रहा है। उनके सर्वप्रथम उपन्यास "रतिनाथ की चाची" का प्रकाशन 1948 ई. में हुआ था। इसके बाद उनका "बलचनमा" 1952 में, "बाबा बटेसरनाथ" 1954 में, "बरुण के बेटे" 1957 में, "कुम्भीपाक" 1960 में, "जमनिया का बाबा" 1968 में और "गरीबदास" 1991 में प्रकाशित हुए। इस प्रकार आजा़दी के बाद के चार दशकों से भी अधिक समय का सामाजिक राजनैतिक यथार्थ अपने पूरे अन्तर्विरोधों व जटिलताओं के साथ इनकी रचनाओं में उपस्थित रहा है। आजादी के बाद का यथार्थ भारतीय जनता के समक्ष सुफल के रूप में नहीं अपितु त्रास के रूप में ही उभरा है। शिवकुमार मिश्र लिखते हैं कि, "नागार्जुन स्वयं स्वाधीनता आंदोलन के भी दृष्टा और भोक्ता रहे हैं और आजादी के बाद के उसके इस त्रासद यथार्थ के भी दृष्टा और भोक्ता। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अर्जित आदर्श और मूल्य, औपनिवेशिक गुलामी में जीती हुई देश की जनता की आँखों में टंके एक बेहतर जिंदगी और बेहतर भविष्य के वे सपने कैसे आजादी मिलने के चन्द सालों के बाद से ही टूटने-बिखरने लगे, स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उसकी अगुवाई करने वाले राजनेताओं के जनता से किए गए लुभावने वायदे कैसे उन राजनेताओं की अपनी महत्त्वाकांक्षाओं, सत्ता की हवस, उनके अपने वर्गीय स्वार्थों और ऐश-आराम की जिंदगी के चलते झूठ और फ़रेब, छल और छद्म, पाखण्ड और बेईमानी में बदल गए, पैनी दृष्टि वाले, परिपक्व राजनीतिक समझ और गहरी और अटूट जनपक्षधरता वाले नागार्जुन के सजग रचनाकार ने इस सारे अधःपतन, विसंगति और उसकी विडम्बनाओं को नजदीक से जाना परखा और समझा है।"(कथाकार नागार्जुन- डॉ. जगन्नाथ पंडित, भूमिका- शिवकुमार मिश्र, पृ. 2 से उद्धृत) मिश्र जी आगे लिखते हैं- "औरत की अस्मिता और शोषण का सवाल हो, अथवा दलितों-किसानों-मजदूरों के अधिकारों का हनन और उनकी बदहाली, राजनेताओं का स्वेच्छाचार हो अथवा सामंतों-बाहुबलियों और धनपतियों का स्वैराचार और आतंक, नैतिक मूल्यों की गिरावट हो अथवा उससे उपजी विलासचर्या, नगर जीवन हो अथवा गंवई गाँव का जीवन, आजादी के बाद के सामाजिक जीवन के यथार्थ के यही और दीगर वे पहलू हैं जो नागार्जुन के उपन्यासों का कथ्य बनकर उनकी सर्जनात्मक प्रक्रिया से छनते हुए उनके उपन्यासों में अपने रोमांचक निहितार्थों और विक्षोयक फलितार्थों के साथ सामने आए हैं। एक तरह से देखा जाए तो नागार्जुन के उपन्यास भाष्य हैं, प्रेमचंद के उस कहे और लिखे का, जो उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन की, अपने परवर्ती रचनाकाल की गतिविधियों के तहत देखा और कहा था।"(वही, पृ. 2 से उद्धृत) बाल कवि वैरागी बाबा नागार्जुन के संदर्भ में कहते हैं, "मैं बहुत स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि जब तक भारत ही नहीं संसार में शोषण और गरीबी है तब तक बाबा प्रासंगिक रहेंगे।"(टेलीविजनः साहित्य और सामाजिक चेतना- डॉ. अमरनाथ अमर, पृ 86-87)

डॉ. वंदना बिंदलेश
1266, Sector 23A, Gurgaon, Haryana 122017
E-mail -bkv_70@yahoo.com

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