भाईजी की मूर्ति

08-01-2019

भाईजी की मूर्ति

प्रमोद यादव

बरसों पहले की बात है, मेरे शहर में एक ठिगने गोल-मटोल सज्जन हुआ करते और दुर्भाग्य से वे आज भी हुआ करते हैं। "दुर्भाग्य" इसलिए कि इन सज्जन को अपने मरने के बाद की कुछ ज़्यादा ही चिंता थी लेकिन आज तलक वे "तड़क’ नहीं पाए। मरने के बाद का सारा इंतज़ाम किये बैठे हैं पर मौत है कि पास ही नहीं फटकती। मजाल है कि भाईजी कभी बीमार पड़े हों। पिछले पन्द्रह सालों से देख रहा हूँ- क्या होली, क्या दिवाली, क्या क्रिसमस, क्या मुहर्रम, क्या गरमी-सर्दी और क्या पतझर क्या बरसात। सब गुज़र जाते हैं। पर मजाल है कि उन्हें एक छींक भी आये। पूरा शहर जब पीलिया की चपेट में था तब भी उनके चहरे पर लाली थी। जब भी उन्हें पाया, तंदुरुस्त पाया, अपने लॉज के मुहाने पर पालथी मारे हँसते-मुस्कुराते पाया।

तो क़िस्सा ये है कि एक दिन भाईजी ने पूरे शहर में एकाएक खलबली मचा दी। उनका लॉज और वे, दोनों चर्चा के विषय बने थे। हुआ यूँ था कि लॉज के प्रवेश-द्वार पर उन्होंने ख़ुद की एक भव्य विशालकाय संगमरमर की मूर्ति लगवा रखी थी। मूर्ति आधी थी (पासपोर्ट साइज़ वाली) पर बात पूरी कहती थी। हू-ब-हू भाईजी लगते। वही भारी-भारी घनी मूँछें, बड़ी-बड़ी उल्लू जैसी पनीली आँखें, गोल-मटोल फ़ुटबाल-सा सिर और उस पर गाँधी टोपी। मूर्ति देखने वालों की भीड़ उमड़े पड़ रही थी। उत्सुकतावश मैं भी लॉज पहुँचा। हँगामे-सा माहौल था वहाँ। लोग चार-चार, पाँच-पाँच की टोली में आसपास बिखरे, कहकहे लगाते, लुत्फ़ उठाते बार-बार कभी भाईजी को तो कभी उनकी मूर्ति को निहार रहे थे और भाईजी थे कि हमेशा की तरह गेट पर पालथी मारे भीड़ देख मंद-मंद मुस्कुराते, मोटी-मोटी मूँछों को ऐंठ रहे थे, मानो कह रहे हों- "लो बादशाहो, इस ग़रीब शहर के लिए मैंने एक अदद मूर्ति तो बनवा दी अब सही जगह पर लगवाना तुम्हारा काम!"

उन दिनों पूरे शहर में केवल एक अदद मूर्ति खड़ी थी- गाँधी जी की मूर्ति। उसे भी न मालूम कैसे शहर के एक नामी डाक्टर ने अपने स्वर्गीय बाप की स्मृति में बनवाया था। मैं आज तक समझ नहीं पाया कि डाक्टर ने बाप की याद में गाँधी की मूर्ति क्यों बनवायी? बाप की ही बनवा लेता, ख़र्च तो उतना ही बैठता। भाईजी की मूर्ति देखने के बाद वे ज़रूर अपनी ग़लती और मूर्खता पर पछताए होंगे।

भाईजी की मूर्ति और भाईजी को देखने वालों की भीड़ दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। लॉज में ठहरने वालों को इस मूर्ति ने काफ़ी तकलीफ़ में डाल दिया था। गेट से आना-जाना मुश्किल हो गया था। भाईजी के बेटों की हालत तो सबसे ज़्यादा ख़राब थी। यार-दोस्त उन्हें चिढ़ाते, बाप की नासमझी, बेवकूफ़ी पर ताना मारते, मज़ाक करते, कहकहे लगाते। पर बेटे बेचारे तो बेटे ही थे, बाप से काफ़ी डरते, कुछ भी कहने से हिचकते। तनिक भी विरोध न कर पाते। पहले ही दिन जब बड़े बेटे ने विरोध दर्ज कर बाप को (भाईजी को) समझाया कि जीते जी अपनी मूर्ति लगाना अच्छी बात नहीं तो भाईजी तमक गए थे- "मूर्ति तेरी है क्या?"

"नहीं…"

"तुमने बनवाई क्या?"

"नहीं…"
"ये लॉज जहाँ लगी है, तेरा है क्या?"

"नहीं…"

"जब कुछ भी तेरा नहीं तो तुझे कुछ बोलने का भी हक़ नहीं। समझे?"

उनके दोनों बेटों ने उन्हें काफ़ी समझाया कि मूर्ति बनवा ली, अच्छा किया लेकिन इसे अभी न लगवायें, गेट से हटवा दें, पर भाईजी टस से मस न हुए। बेटों ने यहाँ तक कहा कि इस तरह अपनी मूर्ति बनवाकर आप हम दोनों पर अविश्वास जता रहें। लोग हमें क्या-क्या नहीं सुना रहे। सब हम पर हँसते और कहते हैं कि देखो… भाईजी को अपने बेटों पर विश्वास नहीं, इसलिए मूर्ति एडवांस में बनवा ली।

बेटों के विरोध का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। उलटे वे तर्क देते कि जब एक आदमी जीते जी अपनी फ़ोटो घर, दुकान, दफ़्तर में टाँग सकता है, उन्हें कोई कुछ नहीं कहता। मैंने जीते जी अपनी मूर्ति बनवा कर लगा ली तो क्या ग़ुनाह कर दिया? मैंने तो एक तरह से तुम लोगों का और शहरवासियों का एक काम हल्का कर दिया - अपनी मूर्ति बनवाकर। अब तुम्हारा काम रह गया है- सटीक जगह पर इसे लगाना।

बड़े बेटे ने तर्क दिया- "वो तो ठीक है बापजी। पर आपका काम अभी अधूरा है। क्या आपको यह भी बताना पड़ेगा कि मूर्ति लगवाने के लिए आदमी का स्वर्गीय होना पहली अनिवार्यता है।"

भाईजी चिढ गए, गुस्से से बोले- "अपने बाप के विषय में ऐसी बातें कहते तुम्हे शर्म नहीं आती?"

छोटे बेटे ने जवाब दिया- "शर्म की क्या बात है बापजी। आपको अपनी मूर्ति बनवाते शर्म आयी क्या? हम लोगों को तो अब लॉज में घुसते शर्म आती है। किसी तरह घुस भी जाते हैं तो निकलते शर्म आती है। लोग अजीब-अजीब नज़रों से घूरते हैं, तरह-तरह के सवाल करते हैं। हम पर हँसते और कहते हैं- देखो। ये हैं भाईजी की औलाद। जो जीते-जी बाप की मूर्ति लॉज में लगा रखी है। कोई-कोई ये भी कहते हैं- च्च..च्च..च्च.. आज के बाप भी कितने स्वार्थी होते हैं। अपनी अकेले की बनवा ले आये। बच्चों ने क्या बिगाड़ा था? उनकी भी बनवा लाते। थोक में थोड़ा सस्ता भी पड़ जाता।"
भाईजी की तनी भृकुटियाँ एकाएक सामान्य हो गयीं। मुस्कुराते हुए बोले- "तो बच्चू, यूँ कहो न कि तुम्हारी मूर्ति नहीं बनवाई इसलिए जल-भुन रहे हो। ठीक है। अगली बार कलकत्ता गया तो देखूँगा।"

बेटे सिर थामकर बैठ गए। उन्हें समझाने में सारी ऊर्जा चूक गयी। दोनों बेटे अब लॉज का काम छोड़ दिन-रात यही मीटिंग करते कि गेट से मूर्ति किस तरह हटाई जाए ताकि हंगामा थमे। पर, भीड़ थी कि कम होने का नाम नहीं ले रही थी। अख़बार वालों ने भी काफ़ी छापा। भाईजी की फ़ोटो, मूर्ति की फ़ोटो, लॉज की फ़ोटो, भीड़ की फ़ोटो। और भाईजी रोज़ कटिंग काट-काट कर इकट्ठी करते रहे- मानों सर्टिफ़िकेट्स हों। इधर बेटे झल्लाते और उधर अख़बार में फ़ोटो देख वे गदगद होते।

शहरवासियों का यह मनोरंजक कार्यक्रम अपनी चरम सीमा पर था कि एकाएक फिर एक बार खलबली मची। पूरे शहरवासियों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। सब उदास-निराश से थे। ख़बर थी कि भाईजी की मूर्ति चोरी हो गयी। उन्हें "अटैक" आ गया। वे तुरंत समझ गए कि यह नालायक़ बेटों की ही करतूत होगी। बहुत ही नाज़ुक हालत में उन्हें अस्पताल लाया गया। बेटे क़रीब थे और भाईजी मरणासन्न। फिर भी हकला-हकला कर बोल रहे थे- "कमीनो। आख़िर तुम लोगों ने मुझे मार ही डाला। अब तो ख़ुश हो ना? मेरे पास वक़्त बहुत कम है। काम की बात कहूँ… बताओ मरने के बाद मेरी मूर्ति कहाँ लगवाओगे? वैसे गाँधी चौंक के पहले बोथरा जी की दुकान वाला चौंक थोड़ा गुलजार चौंक है, वहीँ किसी मंत्री को बुलाकर भव्य समारोह कर लगवा लेना।"

"बापजी, चुप भी रहिये। डाक्टरों ने बोलने से मना किया है। आपकी हालत अच्छी नहीं। यूँ ही बोलते रहे तो सचमुच…।"

"हाँ, सचमुच। अब जीकर भी क्या करूँगा। हाय… मेरी मूर्ति! उसी में तो मेरी जान थी। कितने प्यार से बनवाया था। आह! आह!" भाई जी कराहते हुए लुढ़क गए।

"डाक्टर… डाक्टर," बेटों ने चिल्लाया। डाक्टर दौड़े। नब्ज़ देखी। तभी पुलिस के तीन जवान धड़ध्ड़ाते घुस आये, बोले- "भाईजी… भाईजी…आपकी मूर्ति मिल गयी। हमने चोरों को गिरफ्तार कर लिया है।"

सुनना भर था कि भाईजी ऐसे उठ खड़े हुए जैसे उन्हें कुछ हुआ ही ना था- "कहाँ है मेरी मूर्ति? मेरी जान।" इधर भाईजी का उठना हुआ और उधर बेटों का गिरना। दोनों बेटे माथे पर हाथ धर धम्म से बैठ गए।

आज भी भाईजी जीवित हैं। मूर्ति भी सलामत है। लेकिन अब लॉज के गेट पर नहीं, घर के भीतर कहीं सेट है। भाईजी को इंतज़ार है मौत का। मूर्ति को इंतज़ार है चौंक का और बेटों को इंतज़ार है इस पागलपन के चक्कर से उबरने का। और तीनों पन्द्रह साल से जहाँ के तहाँ हैं। कुछ भी नहीं बदल रहा।

कुल मिलाकर ये प्यारा शहर एक अदद मूर्ति से वंचित रह गया है।

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