भांडे में ही भेद है, पानी सबमें एक

15-10-2020

भांडे में ही भेद है, पानी सबमें एक

कल्पित हरित (अंक: 167, अक्टूबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

बस आकर रुकती तो जितने उसके अंदर चढ़ते उससे कई ज़्यादा लड़के लपक के बस की छत पर चढ़ जाया करते थे। शॉपिंग सेंटर बस का एक स्टोपेज था। यहाँ बस के इंतज़ार मेंं खड़े अधिकतर, अभियांत्रिकी महाविद्यालय के विद्यार्थी हुआ करते थे जो वहाँ से लगभग 3-4 किलोमीटर पर था।

बस की छत पर बैठना आनंद था या अपने ’कूल’ होने का प्रतीक पर जो भी हो, जिसने चार साल की इंजीनियरींग में उस बकैती के मज़े नहीं लिए जो बस की छत के ऊपर हुआ करती थी तो उसने बहुत कुछ अधूरा ही छोड़ दिया।

महाविद्यालय शहर की भीड़-भाड़ से दूर होते हैं इस छोटे से सफ़र में दोनों तरफ़ पहाड़ ही पहाड़ और ज़्यादातर गोदाम ही गोदाम ही थे जिनेमें लोहा भरा होता था।

अनगिनत बातें और क़िस्से हैं इस छोटे से रास्ते के, चाहे वह दो पहिये की गाड़ी पर चार जनों का बैठ कर आना हो या गाड़ी से गिरने की दुर्घटना हो। देर रात्रि में इसी रास्ते से चाय पीने जाना हो या फिर रात में कॉलेज के वार्षिक कार्यक्रम से बस की छत पर चढ़कर सैंकड़ों का एक साथ धमाचौकड़ी मचाते हुए आना और जाना हो। परीक्षा के समय हाथ में किताब लिए इसी रास्ते से जाना हो। ये ऐसी यादें है जो मस्तिष्क के किसी कोने में सदा के लिए स्थित रहेंगी।

हाँ, इसी रास्ते में एक छोटा सा खेत पड़ता था जिसके पास से एक गली जाती थी। वहाँ एक भगवा ध्वज लहराता दिखता था। अवश्य ही कोई मंदिर होगा, बस की छत से दिखता तो नहीं था पर क्योंकि मंदिर है तो दूर से सर झुका दिया करते थे और इस चार वर्ष की यात्रा में कितनी ही मन्नतें की होंगी।

अलबत्ता परीक्षा देने जाते वक़्त जैसे कि ’भगवान बस ये वाला पेपर निकलवा देना इसमें कुछ नहीं आता’। ’बस इस बार शॉर्ट अटेंडेंस से बचा लेना’। ’इसमें सिलेक्शन हो जाये’, ऐसा हो जाये वैसा हो जाये और न जाने क्या क्या!

जो कभी कुछ मन का हो जाता तो लौटते वक़्त वही बस के ऊपर से ही सर झुका कर असीम कृपा के लिए धन्यवाद कर दिया करते थे।

बस अब चार सालों का सफ़र अंतिम पड़ाव पर ही था। अंतिम वर्ष की परीक्षाएँ समाप्त हो चुकी थीं बस कुछ प्रायोगिक परीक्षाएँ होनी बाक़ी थीं। आज कॉलेज जल्दी भी जाना था।

इतने में सहपाठी जलज अपनी स्कूटी लेकर आ गया। जाते-जाते रास्ते में न जाने क्या सूझी कि अब कुछ ही दिन बचे हैं फिर न जाने इन रास्तों पर कब आना होगा। 

"अरे जलज गाड़ी इस खेत के पास वाली गली में लेना ज़रा।"

मन में था कि एक बार इस मंदिर में हो ही आते हैं वरन्‌ चार सालों में एक बार भी नहीं गये। हमेशा दूर से ही राम-राम की है, कहीं प्रभु रुष्ट न हो जायें।

हमेशा से जहाँ वह भगवा पताका लहराती थी, वहीं स्कूटी रोकी तो सामने एक बड़ा सा लोहे का गेट था। बाहर तीन-चार टायर और खुले इंजन पड़े थे। जब गेट से भीतर झाँक के देखा तो पुरानी लेथ मशीन, रेल की पटरियाँ, टूटे-फूटे ट्रकों के कलपुर्ज़े पड़े थे। मंदिर नहीं वह लोहा संग्रहण के लिए बड़ा सा गोदाम था।

क्या हुआ अगर ये मंदिर नहीं है तो? हमारी श्रद्धा तो पूर्णत: शुद्ध थी और वैसे भी भगवान तो कण-कण में मौजूद है।

इससे एक बात और सिद्ध हो गयी कि अगर निष्ठा से सर कहीं भी झुका लिया जाये तो संतुष्टि एक सी ही प्राप्त होती है। फिर चाहे वो मंदिर हो या गोदाम; महत्व केवल झुकने का है। कहाँ झुक रहे हैं उसका नहीं।

गेट के सामने नमस्कार किया, धरती को छुआ और चलते बने। जलज यह सब स्कूटी पे बैठा ये सब देख रहा था। 

"ये क्या कर रहा था तू? दिमाग़ सही है?" हैरानी के साथ जलज ने कहा।

"अरे यार कुछ नहीं एक लंबी कहानी है बाद में सुनाऊँगा कभी, अभी जल्दी चल वरना लेट हो जाएँगे।"

पर जलज की उत्सुकता बरकरार थी, "फिर भी बता तो ऐसा क्यों किया?"

मैंने वहाँ ऐसा इसलिए किया क्योंकि कबीर दास जी ने कहा है:

"कबीरा कुआँ एक है, पानी भरे अनेक
भांडे में ही भेद है, पानी सबमें एक।"

ये कहते हुए मैं हँस दिया हालाँकि जलज अभी भी कंफ़्यूज़्ड था।

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