बीते शहर से फिर गुज़रना

31-05-2008

बीते शहर से फिर गुज़रना

तरुण भटनागर

सपने में मौत का मतलब

 

उसका ख़ाली कमरा, वार्ड रोब में लटके उसके कपड़े स्कर्ट, पजामा, सलवार, जींस......, बिस्तर के नीचे रखे उसके सैंडिल, दीवार पर टँगी उसकी खिलखिलाती फोटो, खिड़की में लटके हल्के नीले रंग के वर्टिकल ब्लांइड्‌ज़ जो उसने कुछ दिनों पहले अपनी पसंद से ख़रीदे थे, फ्लावर पाट में लगे उसके पसंदीदा कारनेशन के पीले फूल...। बुक शैल्फ़ में उसके फ़ेवरेट ऑथर्स की किताबें ऑर्थर हैले, एमिली ब्रोंट्‌स,.........मेरे से बहस और फिर मान जाने के बाद भी उसने कभी हेमिंग्वगे या काफ़्का नहीं पढ़ा, जब भी उससे कहता उसका एक सा ही जवाब होता- दीज़ ओल्डी बूर्जुआ, हाऊ यू टॉलरेट दीज़ ड्राइ राइटिंग्स.........और मैं थोड़ा खिन्न हो जाता। कमरे के दरवाज़े पर लटकती चाइनीज़ बैल्स जो हर महीने वह बदल देती थी। कमरे के किनारे रखा टैराकोटा का पॉट जो उसने ख़ुद पेण्ट किया था और मुझे उसने कई बार यह बात बताई थी कि यह उसने पेण्ट किया है, मानो हर बार कोई नई बात बता रही हो- थोड़ा सा इस सलेटी कलर से गड़बड़ हो गई, है ना...। अगर सिर्फ़ ब्लैक और व्हाइट होता तो अच्छा कोंट्रास्ट हो जाता... मैं क्षण भर को उस पॉट की तरफ़ देखकर फिर से उसे ही देखने लगता और वह मेरी ओर देखती कि शायद मैं उसकी इस पेण्टिग पर कुछ कहूँगा। उसकी स्टडी टेबल पर रखा लैंप जो क्यूपिड की कांच की नंगी मूर्ति है और क्यूपिड के हाथ में कुछ है जिसमें बल्ब जलता है। पता नहीं क्या है? मैंने अक्सर जानना चाहा। कमरे में फैली मस्क की हल्की ख़ुशबू वाला रूम फ़्रैशनर जो उस कमरे की पहचान सा बन गया है। कहीं और इस ख़ुशबू को सूँघने पर भी इस कमरे में होने का भ्रम होता है। दीवार पर बिस्तर के ठीक सामने लटकी एक तस्वीर जैसी अक्सर पुराने इटैलियन चैपलों पर रेनेसां के समय वाली माइकेलेंजलो वग़ैरा की पेंण्टिग होती थी। पर वह ना तो माइकेलैंजलो था और ना लियोनार्दो दा विंसी, वह किसी और की थी, जिसके बारे में मैंने नहीं सुना। जितनों को मैं जानता था, उनमें से वह नहीं थी। उस तस्वीर में बोरियत थी और मैंने उसको कई बार कहा था कि वह इस तस्वीर को वहाँ से हटा दे, पर वह नहीं हटी और अक्सर उसे देखकर मुझे कोफ़्त सी होती थी......... मैंने इस कमरे को कभी इतनी ग़ौर से नहीं देखा जैसा कि आज देख रहा हूँ। अब इस बेजान से कमरे में उसे टटोल रहा हूँ। लगता है इस कमरे की हर चीज़ के पीछे एक कहानी है। हर चीज़ बोल सकती है। बता सकती है, ख़ुद के बारे में। किसी भी चीज़ को देखता हूँ, तो कुछ बातें और कुछ दृश्य याद आ जाते हैं और फिर मैं देर तक उसे देखता रहता हूँ। उन चीज़ों के पीछे जो कुछ है, वह मुझे बेचैन कर रहा है। उन चीज़ों को देखकर और उनके पीछे को महसूस करके मुझे कुछ मिल नहीं जाता, बल्कि मैं पहले से और ज़्यादा ख़ाली हो जाता हूँ। उन चीज़ों को टटोलकर मैं पहले से ज़्यादा भिखारी हो जाता हूँ। पर भीतर कुछ उमड़ता है, जो मुझे मजबूर करता है, उन चीज़ों को देखने के लिए।

और भी बहुत कुछ है जो बाहर नहीं है, पर जिसे महसूस करता रहा हूँ...। उसकी डायरी जिसे उसके जीते जी नहीं पढ़ा था। उसमें जगह-जगह मेरा ज़िक्र था। इसमें उसने अपने बारे में नहीं लिखा था, सिर्फ़ मेरे बारे में लिखा था। उसकी पसंदीदा मैग्ज़ीन्स रीडर्स डाइजेस्ट और सोसाइटी जिसके पन्ने, पन्नों के हिस्से कैंची से काटकर अलग किये गये थे। वह उन्हें अपनी डायरी में चिपका लेती थी। जिनमें कोई कोटेशन, कोई चित्र सामान्यत: रीडर्स डाइजेस्ट के लास्ट पेज पर छपने वाली पेंटिंग, कोई फ़िटनेस या स्किन केयर की टिप्स, कोई मेंहदी का डिज़ाइन... वग़ैरा होते थे। मैं अक्सर उसकी इन बेवकूफ़ियों पर हँसता था और तब वह मुझसे अपनी डायरी छीनकर मुझे चिढ़ाती। कभी इरिटेट भी हो जाती। उसकी मृत्यु के बाद अब मैं अक्सर उसकी चीज़ेंं टटोलता रहता हूँ। उन चीज़ों में वह नहीं है, बस उसके होने का झूठ है। वह नहीं आ सकती और ये चीज़ेंं उसके साथ नहीं जा पाई हैं। वे यहीं रहेंगी इस दुनिया में, बार-बार इस मजबूरी को पैदा करने कि अब कुछ नहीं हो सकता। कितना टटोलो वह नहीं मिलेगी। जो ख़ाली हो गया है, हमेशा ख़ाली ही रहेगा। उस रिक्तता का कोई उपाय नहीं। उस बेचारगी का कुछ नहीं किया जा सकता है। रुँधा गला और आँसू बेजान हैं। उनसे कुछ नहीं होता। वे अर्थहीन हैं। पर एक कमज़ोरी आ गई है, जो दिनों दिन बढ़ती जा रही है। जब उन चीज़ों को टटोलता हूँ, तो यह कमज़ोरी और बढ़ जाती है। उन चीज़ों को टटोलकर मैं कहीं नहीं पहुँचता हूँ... सिवाय इसके कि बहुत सा समय अचानक बीत जाता है।

जब वह ज़िंदा थी तो मुझसे उलझ पड़ती थी, कि मैं उसकी बातों पर ध्यान नहीं देता हूँ। अक्सर पार्लर से लौटने के बाद वह मेरे सामने खड़ी हो जाती और पूछती-उसका नया हेयर स्टाइल उसको सूट करता है कि नहीं। वह कुछ बदली-बदली नहीं लग रही है?... वह अपने हिसाब से फ़ैशन करती थी। उसे इस बात का ख़्याल नहीं होता था, कि मुझे या देखने वालों को क्या अच्छा लगेगा। वह अपने तरह से ख़ुद को रखती और इस बात पर मेरी सहमति चाहती। जब वह सहमति के लिए मुझे देखती तो, वह बड़ी आतुरता से देखती। मेरा मन उसके नये हेयर स्टाइल या बदले-बदले चेहरे के विपरीत होता। मुझे उसकी ये हरकतें किसी फ़ितूर सी लगतीं। पर उसकी आतुरता जो उसकी आँखों से झाँकती जैसे अफ़्रीकन सफ़ारी में कोई पेंथर अपने शिकार के लिए चट्टान पर रेंगता हुआ दबे पाँव बिना आवाज़ किये, चेहरे पर अनंत शांति का भाव लिये रेंगता है। उसमें कोई हैवानियत नहीं होती, बस जीवन और भूख का विनम्र अनुरोध होता है, ठीक वैसी ही आतुरता उसके चेहरे पर होती और मैं उसके नये चेहरे और हेयर स्टाइल को नकार नहीं पाता। मुझे सहमत होते हुए अच्छा लगता। कभी वह कहती- वह मेरे साथ ही तो गई थी जब उसने यह नया वाला पैंडल ख़रीदा था...हुंह तुम्हें तो कुछ याद ही नहीं रहता, सब भूल जाते हो, कम से कम मेरी बातें तो याद रखा करो ...। उसने एक नया कैसेट ख़रीदा है मुझे उसे सुनना चाहिए...... फिर कहती- तुम्हें तो बस मेरी ही बात याद नहीं रहती है...। यू रिमेंमबर आल, एक्सेप्ट माइन ...। पर आज उसकी चीज़ेंं टटोलकर लगता है, अगर वह ज़िंदा होती तो मैं उसे उसकी चीज़ों के बारे में वह भी बताता जो शायद उसे पता नहीं था। कितना कुछ उसे बताना था। अब मन करता है उसे बताने का। उसे बताने का कि, उस पैंडल को ख़रीदते समय मैंने क्या सोचा था। उसी पैंडल को ख़रीदने को मैंने क्यों कहा था। मैंने उससे झूठ क्यों बोला था, कि मुझे याद नहीं कि वह चीज़ कब ली थी, जबकी मुझे सब याद है। कि, जब हम दोनों विभास की ट्रीट में गये थे तब वह बहुत सुंदर लग रही थी, पर चूँकि हमारे बीच किसी बात पर लड़ाई सी हुई थी इसलिए मैंने चिढ़कर जानबूझकर यह बात नहीं कही थी...... मैंने सोचा था कि उससे किसी दिन कहूँगा, कि उस दिन तुम सबसे सुंदर लगी थीं। वह एक ओपन रेस्टोरेण्ट था और उसकी रेलिंग को पकड़कर वह खड़ी थी। पूरी तरह अँधेरा नहीं हुआ था। शाम की बची-खुची रोशनी उसके शरीर पर पड़ रही थी। वह कुछ सोच रही थी और मैं उसे अपने तरह से देख रहा था। काश मैंने उसे बताया होता। काश मैं बता पाता। एक बात जिसको दफ़न करने के अलावा अब और कुछ नहीं किया जा सकता है।            

तभी मेरी नींद टूट गई। वह अपनी बालकनी में खड़ी थी। मुझे हड़बड़ाकर जागता देख वह बिस्तर पर मेरे पास आ गई। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा और पूछने लगी-

"क्यों क्या हुआ?"

“हूँ..."

"तुम्हें तो पसीना भी आ रहा है। "

"ख़राब सपना था......... "

"क्या था?" 

वह उत्सुकता से मेरे और पास सरक आई। मेरे सामने सिर्फ़ उसकी आँखें रह गईं...।

"लगा तुम मर गई हो...... और मैं अकेला रह गया हूँ......"

वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।                              

"इसमें हँसने जैसा क्या है?"

"ग़ौरव, डू यू नो वन हू डाइज़ इन मार्निंग ड्रीम...... लिव्स ए लांग लाइफ़। माई आण्टी सेज़। और ये ड्रीम तुमने देखा.......लवली।"

मुझमें एक साथ अलग-अलग जड़ों वाली कई बातें उग आईं। और उनमें से एक बात कूदकर बाहर आ गई जैसे भाड़ में भुनते पॉपकॉर्न में से कोई एक उछल जाता है।

"यू काण्ट डाय एनीवेयर एल्स, एक्सेप्ट ड्रीम्स.....। मेरा मतलब अगर तुम मर भी जाओ तो जैसे तुम सिर्फ़ सपनों में मरी हो......।"

वह उलझी सी मुझे देखने लगी। फिर मुझसे पूछने लगी कि इस बात का मतलब क्या है? मुझे बहुत पहले से लगता रहा है, जैसे वह इस बात का मतलब जानती है।

कल रात मैं और वह बालकनी में देर रात तक बैठे रहे थे। हम दोनों चुप थे। फिर हम चुप्पियों से आगे बढ़ गये। वहाँ जहाँ ख़ुद के होने का भान नहीं होता है। आदमी और औरत को पता नहीं चलता कि वे हैं। वे कुछ देर एक दूसरे में घुसने की पूरी मशक़्क़त करते हैं। फिर थककर एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। पहले यह सब एक हिच के साथ होता था। मुझे बीच में अपने होने का अहसास हो जाता, क्षण भर को उस दुनिया का कुछ दिखता जहाँ मैं हूँ। यह अपने आप होता। मैं उसकी तरह ख़ुद को भूल नहीं पाता था, कि एक बार ख़ुद को इस तरह भूल जाओ जैसे ख़ुद को कभी महसूस ही नहीं करने के लिए भूले हों। मानो ख़ुद को ख़ुद से काटकर गटर में फेंक रहे हों। जब मुझे ख़ुद का अहसास होता, वह मुझे अपनी ओर खींचती और......। फिर उसने मुझे बख़ूबी सिखाया कि कैसे भूलते हैं ख़ुद को। कि कितना आसान है यूँ भूलना। यूँ भूलकर प्यार करना। कि, ख़ुद के होने में कैसा प्यार? ख़ुद को खोना कितना अहम है, प्यार की ख़ुशी और आनंद के लिए। पर अब सब कुछ सामान्य सा लगता है। हम अक्सर रात एक साथ होते हैं। एक साथ सोते हैं। और फिर जब मैं उससे कहता हूँ कि- तुम सपनों के अलावा और कहीं नहीं मर सकती हो, तो वह उलझी सी मुझे देखने लगती है। मुझे अजीब लगता है, कि वह इतना भी नहीं समझती।

घड़ी में सुबह के सात बजे हैं। मैं हड़बड़ाकर बिस्तर से उतर गया। जल्दी-जल्दी तैय्यार हुआ। वह मुझे हड़बड़ाकर तैय्यार होता देखकर मुस्कुरा रही है। मानो कह रही हो- पुअर मैन। मुझे कुछ झुंझलाहट सी हुई। मैं एक साथ कई चीज़ों पर झुंझला गया, पर फिर मेरी झुँझलाहट ख़ुद पर आकर रुक गई। अंत में मैं ख़ुद पर झुँझला रहा था। मैंने सोचा है, आज मैं घर में झूठ नहीं बोलूँगा। कोई पूछेगा तो साफ़-साफ़ बता दूँगा कि रात को मैं कहाँ था। बता दूँगा कि रात को उसके घर रुका था। हाँ मैं पूरी रात उसके साथ रहा था। उसके घर में, उसके कमरे में, उसके बिस्तर पर,...... मैं उससे प्यार करता हूँ।

 

रात वाली ट्रेन और भागती छायायें

 

रात के एक बजे हैं। अँधेरे में एक ट्रेन जा रही है।

ट्रेन की खिड़की के कांच पर सिर टिकाये, मैं बाहर देख रहा हूँ। बाहर भिन्न-भिन्न प्रकार की छायायें हैं।

मैं अगर वे काली छायायें नहीं देखता तो शायद बोर हो जाता। क्योंकि मेरे पास करने को कुछ नहीं था, सो मैंने अँधेरे में भागती छाया को पकड़ने और छोड़ने का खेल ढूँढ लिया था।

मेरे केबिन में पहले लोगों की आवाज़ें थीं। पर अब बस ट्रेन की आवाज़ है। बीच-बीच में सोते यात्रियों में से कोई जाग जाता है। पर उसकी आवाज़ ट्रेन की आवाज़ को पछाड़ नहीं पाती है।

छाया को पकड़ने और छोड़ने का खेल अपने-आप चालू नहीं हुआ था। मुझे नींद आ रही है। मैं सोना चाहता हूँ। पर मैंने सोचा है कि मैं जागूँगा। उस समय तक जागूँगा जब तक वह शहर नहीं आ जाता। वह मेरे सपनों का शहर है। पंद्रह साल पहले मैं उसी शहर में रहता था। उस शहर में मैं था और वह थी। तब हम दो थे। आज भी दो हैं। एक यह शहर है और दूसरी उसकी स्मृतियाँ हैं। और यूँ वह आज भी है। कुकुरमुत्ते या आर्किड की तरह...यादों के कचरे पर, एक पराजीवी वह शहर आज भी है। वह शहर आज भी वहीं है, जहाँ मैं पंद्रह साल पहले उसे छोड़ आया था। कोई और शहर होता तो अब तक मर चुका होता। कई दूसरे शहर भी हैं, जहाँ मैं रहा हूँ और जिन्हें मैं छोड़ चुका हूँ। वे सारे शहर मर चुके हैं। बीते शहरों में से बस यही एक शहर अभी तक ज़िन्दा है। मुझे उस शहर में उतरना नहीं है। बस उसके लिए जागना है। उसे देखने की इच्छा है। मै उसे ट्रेन में बैठे-बैठे देखना चाहता हूँ। और यूँ उस शहर को गुज़रता हुआ देखना चाहता हूँ। उसे फिर से एक बार आता हुआ और फिर से गुज़रता हुआ देखना चाहता हूँ। पहले जब वह शहर आया था, तब मैं इसी शहर में रुक गया था। मैं इस शहर में रुक गया था। जीवन की ज़रूरत थी इस शहर में रुकना। जीवन में हम ज़रूरत के मुताबिक़ ही शहरों को चुनते हैं। उन्हें चुनने में चाहत नहीं होती है। फिर ज़रूरत के मुताबिक़ ही उसे छोड़ भी देते हैं। अगर उसे छोड़ते समय भीतर कुछ कुलबुलाता है तो हम ख़ुद को समझा लेते हैं। हमारी ज़रूरत हमारे मन को समझा देती है।

तभी लगा बाहर भागती छायाओं में से कोई छाया रुक सकती है। कोई छाया रुककर ट्रेन की खिड़की से चिपककर, ट्रेन के साथ-साथ, मेरे साथ-साथ चल सकती है। वह चिपक सकती है, कंपार्टमेण्ट की उसी खिड़की से जिस पर मैं अपना सिर टिकाये ऊँघ रहा हूँ। खिड़की के कांच के एक तरफ़ मेरा चेहरा चिपका है और दूसरी तरफ़ वह छाया चिपक सकती है। एक अनजान छाया। छाया जिसे मैं नहीं जानता। शायद उस छाया को मैं अपने साथ रख लूँ और फिर एकांत में उस छाया के पाज़िटिव बनाऊँ। किसी फोटोग्राफ़र की तरह जो डार्क रूम के अँधेरे में घण्टों नेगेटिव के पाज़िटिव बनाता रहता है। कई पाज़िटिव चित्र......

वे अकेलेपन के चित्र हैं। वे पाज़िटिव चित्र हैं। अकेलेपन के चित्र जो पुराने होकर भी अपना रंग बनाये रखते हैं, जो काग़ज़ पर डिफ़्यूज़ होकर नहीं मिटते हैं और जिन्हें रसायनों से मिटाया नहीं जा सकता है। वे अपनी मर्ज़ी के मालिक होते हैं। उन्हें मिटाने के लिए ख़ुद को गोली मारनी पड़ती है। पर उस रात उस ट्रेन में ऐसा कुछ भी नहीं था। भागती ट्रेन के बाहर की अँधेरी छाया, एक "टाइम पास" थी। जिसके रुकने का कारण नहीं बनता। अगर अटककर रुक भी जाती, तो वह यादों का हिस्सा नहीं बन पाती। मैं उन छायाओं में से किसी को भी आज याद नहीं कर सकता।

हमें क्या याद रहता है? और क्यों? बहुत महसूस करने के बाद लगा, इसका कोई कार नहीं है। जिन यादों के कारण थे, वे ज़्यादा टिक नहीं पाईं।

"आई विल रिमैंमबर यू "

"कुछ दिन और...। "

"मुझे जाना ही है। जाना है। "

उस रात भी अँधियारे वाला हंसियानुमा चाँद था। उस रात मैंने उसे आख़री बार टटोलती नज़रों से देखा था। निकली हुई कॉलर बोन, छोटा लंबा चेहरा, उठी हुई नाक, उभरी चीक बोन, सपाट सी छाती जिसके बीचों-बीच एक गड्‌ढे के होने का भ्रम मुझे होता यद्यपि ऐसा नहीं था, रूखे बाल, गंडेरी की तरह पतले हाथ, थूथन की तरह बाहर निकली कोहनी ...... मैं आज तक नहीं जान पाया कि वह मुझे अच्छी क्यों लगती थी? बाद में लगा मैं बिना बात ही अपने को परेशान करता रहा यह जानने में। इस बात का जवाब किसी के पास नहीं होता है। संसार के सबसे अच्छे प्रश्नों की तरह जो किसी जवाब पर पहुँचकर ख़त्म नहीं होते हैं।

मैं उससे बच्चे की तरह ज़िद करता रहा-कुछ दिन और। कुछ और दिनों में कुछ नहीं होता। कुछ और गुंजाइश निकल सकती है।

"अभी नये सैशन के लिए टाइम है। तुम चाहो तो रुक सकती हो। "

"तुम जानते हो.........मेरी प्रॉबलम, आई हैव टू गो......... "

"ठीक है। बट आई एम सेइंग फॉर...... "

"नॉट एट ऑल आई हैव टू गो...। "

उसने मुझे पूरी तरह नकारते हुए कहा। मानो कह रही हो अब और कुछ नहीं, हाँ कुछ भी नहीं।

"यू आर स्टबबॉर्न। "

मैं थोड़ा झुँझला गया।

वह मुझसे थोड़ा दूर होकर बैठ गई। उसने अपने कानों में वॉकमैन लगा लिया। वह गाना सुनने लगी। वह इतना तेज़ गाना सुनने लगी, कि मुझे भी वह सुनाई देने लगा। उसने एकदम से वाल्यूम बढ़ा दिया था। वाकमैन के इयरफोन से गाने की भुनभुनाती आवाज़ सुनाई दे रही थी। उस आवाज़ पर ज़रा सा ध्यान देने पर समझ आता था, कि वह कौन सा गाना है। वह उसका गाना नहीं था। वह मेरा गाना था। उस गाने से वह हमेशा चिढ़ती थी- हुंह ट्रेसी चैपमैन। हाउ यू बी सो अनरोमैंटिक...। व्हाट ए नॉनसेंस। और मैं उससे वह इयरफोन छीन लेता था। पर आज...। वह नहीं सुन रही थी। उसके कान में वह गाना भाँय-भाँय कर रहा था। वह गाना उसके कान के बाहर ही ख़त्म हो रहा था। वह गाना उसके भीतर नहीं जा पा रहा था।

मुझे पता था, वह नहीं सुन रही है। जैसे मैं ट्रेन में टाइम पास कर रहा हूँ, ठीक वैसे ही उस दिन वह वाकमैन सुन रही थी। वह टाइम पास नहीं था, बस उसमें मन नहीं था। उसका मन कहीं और था और वह सारे संसार से एक मौन अनुरोध कर रही थी- मुझे अकेला छोड़ दो... प्लीज़ लीव मी एलोन...... धीरे-धीरे अँधेरे में उसकी आँखें चमकने लगी थीं। रात में चाँद की रोशनी में जिस तरह पहाड़ी नाले का पानी और उसके नीचे के पत्थर चमक जाते हैं। अचानक। ठीक उसी तरह उसकी आँख चमकने लगी थी। मुझे पता था, उन आँखों में वह पानी भी उसी तरह से आया था, जिस तरह पहाड़ी नाले में दूर पहाड़ से उतरकर, लंबे जंगलों को पार कर पानी आता है। फिर उसके नाक सुड़कने की आवाज़ मुझे सुनाई दी। फिर वह मेरे पास सरक आई और मेरे कंधे पर उसने अपना सिर टिका दिया। ...एक गीला सा अहसास मेरी गर्दन पर जम गया। लगता है वह अहसास आज भी बाईं गर्दन की खाल पर जमा है। गीलेपन में गर्दन में हल्के चुभते उसके घुँघराले बाल, मानो आज भी मेरी गर्दन पर जमे हैं। वे अक्सर मुझे महसूस होते हैं।

उस समय वह बात अब भी मेरे भीतर थी- कुछ दिन और। ...। यू कैन डू इट......यू कैन डू इट फ़ॉर मी...। मैं उससे ज़िद करना चाहता था- यू कैन स्टे, फ़ॉर मी... यू कैन। लगता था वह मान जायेगी। वह समय हमारे अनुकूल नहीं था। ना मेरे अनुकूल और ना उसके। और जब समय विपरीत होता है, तब सिर्फ़ एक कोरी ज़िद रह जाती है। मैं उस समय को, उस ज़रा से समय को भी जीना चाहता था। मैं उसे छोड़ नहीं सकता था। मैं भूलना चाहता था, क बस आज का ही दिन है। कल हम एक दूसरे से अलग हो जायेंगे। मैं मानना चाहता था कि कुछ भी नहीं हुआ है। हम अभी साथ रहेंगे। उस समय तक साथ रहेंगे, जब तक मन चाहेगा। पर ऐसा नहीं होने वाला था। मैं एक बेजान सी कोशिश कर रहा था, कि ऐसा हो जाये। जैसे मैं आज उससे ज़िद कर रहा था। मैं समय को नहीं बदल सकता था। पर जो चल रहा है, उसे वैसा ही चलने देना चाह रहा था। मुझे लगता था, ज़िद कुछ समय के लिए समय के बदले होने का झूठा अहसास देती रहेगी। मैं उस अहसास को खोना नहीं चाहता था। पर मैं उससे और ज़िद नहीं कर पाया। भीतर की वह बात बाहर नहीं आ पाई। मैं हार गया था। मैंने उससे बस यही कहा था- आई विल रिमैंमबर यू। और मेरी बात का उसने कोई जवाब नहीं दिया था। वह वाकमैन सुनने का ढोंग करती रही।

उस रात मैं उसके फ़्लैट तक गया था। रास्ते भर हमने कोई बात नहीं की थी। हमने एक दूसरे को गुड नाइट भी नहीं कहा। मैं उसे सीढ़ियाँ चढ़ते देखता रहा। उसने देखा था, कि मैं देख रहा हूँ। पर वह चुपचाप रही। जब जाने लगा तो लगा एक बार और उससे मिल आएँ। एक अजीब सी इच्छा थी। एक फड़फड़ाती इच्छा। पर मैं रुका रहा। मुझे भ्रम था, कि यह सब झूठ है। हम फिर मिलेंगे। शायद बार-बार मिलें। कितनी बड़ी है, यह दुनिया। बहुत आसान है, दुबारा मिलना और फिर से शुरू करना। दुबारा मिलकर फिर से शुरू करना। या फिर वहीं से शुरू होना जहाँ पर हम समय को बड़ी बेरहमी से काटकर किसी और समय के लटकते टुकड़े को पकड़कर झूल गये थे। कुछ भी तो कठिन नहीं।

पर फिर हम नहीं मिले। कोशिशें नाकाम रहीं। पता चला मैं ग़लत था। दुनिया बहुत बड़ी है। दुनिया के बड़े-बड़े दाँत हैं। दुनिया किसी इंसान को पूरा का पूरा निगल सकती है। दुनिया ने उसे चबाकर निगल लिया था। उसे एक बार देखने की इच्छा आज भी है। क्या वह वैसी ही होगी जैसी कि उन दिनों थी- लंबा पतला चेहरा, धँसी हुई छाती, उभरी हुई कालर बोन, माथे पर फैलते घुँघराले बाल...। क्या वैसी ही स्टबबार्न और अड़े रहने वाली...। क्या... पता नहीं वह कहाँ होगी। पता नहीं कभी वह दिखेगी भी या नहीं। मैं अब नहीं सोचता हूँ कि वह दिखेगी। उसे देखने की इच्छा है, पर उसे देखने का ख़्याल नहीं आता। कोई बात इसी तरह पुरानी होती है। इसे ही कहता हूँ उसकी पुरानी बात, एक आकंठ इच्छा जो कहीं इतने गहरे दब गई है, कि उसका अब ख़याल ही नहीं। एक चमक खो चुकी पुरानी बात, जिसे बहुत गुनने पर भी कोई ख़ालीपन नहीं उतरता है भीतर, कोई बेचैनी नहीं घेरती...... किस तरह वह पुरानी हो गई है। वह जब याद आती है, तो जैसे एक इतिहास जिससे मैं गुज़रा ही नहीं हूँ। कितना कठोर होता है समय, जो छीलकर अलग कर देता है, हर कोमल भाग को, हर बेचारगी और आँसू को...... पता नहीं वह कहाँ होगी। पता नहीं।

 

खुले आकाश के नीचे बिना हेज के......    

 

जब हम मिले थे, तब नहीं सोचा था कि हम इस तरह अलग होंगे। हमने सोचा था, सब कुछ थोड़ा दिन चलेगा और फिर ख़त्म हो जायेगा। कॉलेज के दूसरे लड़के-लड़कियों की तरह, जो बस कुछ ही दिनों में अपने फ़्रैण्डस बदल लेते हैं। बस कुछ दिन का घूमना-फिरना, मौज-मस्ती और फिर सब ख़त्म...। हमने इसे एक नाम दिया था- लव फ़ॉर फ़न। कितनी उल्टी चीज़ है, लव और फ़न। हमारे कॉलेज में यह ख़ूब था। पर लगा जैसे कोई एक ही चीज़ होती थी-लव या फ़न। आज सोचता हूँ तो लगता है दोनों कभी भी साथ नहीं था। किसी से संबंध के लिए लव ज़रूरी था। यह था। लोग बीते समय को जल्दी भूल नहीं पाते थे। उसे बेदर्दी से झटकारना पड़ता था, जैसे शरीर पर चिपकी जोंक पर नमक डालकर चिमटे से खींचकर अलग करना पड़ता है। 

कुछ दिन हमारी यादों में उन पोस्टरों की भाँति चिपक जाते हैं, जिन्हें हम बेदर्दी से फाड़कर अलग तो कर देते हैं, पर उनके कुछ निशान रह जाते हैं। कुछ टुकड़े पोस्टर के चिपके रह जाते हैं। मुझे ऐसा ही चिपका टुकड़ा याद आया।

हम दोनों कॉलेज के कैण्टीन में थे। वह मुझसे किसी बात का आश्वासन चाहती थी।

"डेट। ऑनली डेट। " 

उसने "ऑनली" थोड़ा वज़नदारी से कहा। कहते समय उसकी आँख मेरी आँख में घुसी जा रही थीं।

"या...ऑनली डेट। नथिंग एल्स। "

मेरे चेहरे के सामने से उसकी ब्राउन आँखें हट गईं। उसके चेहरे पर एक बेपरवाही तैर गई। वह बिल्कुल रिलैक्स हो गई।

उसको मैंने पहले भी देखा था। पर आज वह कुछ अलग लग रही थी। वह वैसी ही थी, जैसी हमेशा दिखती थी। धँसे हुए गाल, उभरी चीक बोन, दुबला-पतला लंबा सा चेहरा जिस पर अब भी थोड़ा बचकानापन रह गया था। कंधे पर झूलते सर्पिलाकार बालों की लटें जो बार-बार उसके चेहरे के सामने आ जातीं और वह उन्हें इकट्ठा कर अपने कानों के पीछे खोंस देती। उसके होंठों में स्ट्रॉ फँसी थी, जिसमें से ऊपर चढ़ता कोल्ड ड्रिंक दिख रहा था। बीच-बीच में वह अपने दातों से स्ट्रॉ को दबा देती और तब उसके गुलाबी लिपिस्टिक पुते होंठ अजीब से दिखने लगते।

उसकी चिन पर एक तिल है। मैंने उस तिल को छूआ है। मैंने सोचा है, आज मैं उस तिल को अपने होंठों में दबा लूँगा।

उस दिन हम दोनों ग्लोबस माल के मार्केट में घूमते रहे। मैं उससे ज़िद करता रहा कि हम वहाँ नहीं जायेंगे, पर वह ले गई। उसे एक बुक ख़रीदनी थी। फिर हम दोनों ग्रीन पैसेज गये। ग्रीन पैसेज हमारे कॉलेज के पास ही है। वहाँ अक्सर कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ जाते हैं। अक्सर और पूरे दिन वे वहाँ मिल जाते हैं। यह जगह उन्हें इतनी अच्छी लगती है, कि उन्होंने उसका नाम ही बदल दिया है। वे उसे एमरैल्ड पैसेज कहते हैं। वह एमरैल्ड लगता भी है। पूरे पार्क में ताड़ के पेड़ लगे हैं और स्क्वेयर कट वाली हेज लगी है। वहाँ ग़ज़ब की शांति है। उस जगह पहुँचकर लगता है, जैसे हम इस भीड़-भाड़ वाले शहर में ना हों। मानो यह पार्क इस शहर में ना हो। सुना है चाँद में एक जगह है, जिसे हम नहीं देख पाते हैं। अँधेरे में खोई हुई ग़ज़ब की शांति वहाँ है। उसे नाम दिया गया है- ओशेन ऑव ट्रेंक्वेलिटी। बस वैसा ही है ग्री पैसेज। लगता जैसे बरसों से कोई यहाँ ना आया हो।

पहले मैं अकेले यहाँ आता था। तब अक्सर इक्का-दुक्का लड़के-लड़कियाँ वहाँ दिख जाते थे। घास के छोटे-छोटे लॉन में दुनिया से बेख़बर वे एक दूसरे में डूबे रहते। लॉन के किनारों पर जहाँ हेज मुड़ती है, वहाँ कोई ना कोई लड़के-लड़की का जोड़ा दिख ही जाता था। जब मैं उनके पास से गुज़रता तो अक्सर उन्हें पता ही नहीं चलता था। फिर अगर कहीं वे मुझे देख लेते तो ख़ुद को और सुरक्षित करते हुए हेज के और भीतर घुस जाते। कुछ परवाह नहीं करते थे। पर कभी-कभी जब किसी जोड़े पर नज़र पड़ती और वह सकुचाकर किसी दूसरी सुरक्षित जगह पर चला जाता तो मुझे एक तरह का अपराध बोध होता। जब कोई मुझे देखकर सकुचा जाता तो एक अजीब सा गिल्ट, एक संकोच सा होता जिसे बता पाना मुश्किल है। पर एक मुश्किल भी थी। उस पार्क में लड़के-लड़कियों से बचकर चलना मुश्किल सा था। कोई ना कोई दिख ही जाता । सच बचकर चलना कठिन ही था। फिर ज़्यादातर लड़के-लड़कियाँ जो वहाँ दिखते वे हमारे कॉलेज के ही होते थे। इक्का-दुक्का बाहरी चेहरे भी दिख जाते थे। जब किसी अपने कॉलेज वाले जोड़े से मेरी नज़र मिलती, हम दोनों क्षण भर को एक दूसरे को ऐसे देखते जैसे हम एक-दूसरे से अजनबी हों। हम एक दूसरे को इस तरह देखते जैसे पहली बार देख रहे हों। कॉलेज में साथ-साथ मटरगश्ती करने वाले लड़के-लड़कियाँ इस पार्क में अजनबी और पराये से लगते। फिर जब उनमें से कोई मुझे देखकर सकुचाता तो मेरा गिल्ट और बढ़ जाते जैसे मैं अपने केा बरदाश्त नहीं कर पा रहा हूँ। उस पार्क में सच्ची शांति थी। चाँद के अनदेखे अँधेरे वाले भाग "ओशन ऑव ट्रेंक्वेलिटी" से भी ज़्यादा शांति। इतनी शांति कि वहाँ पहुँचकर अजनबी और पराया बना जा सकता था। एक अण्डरस्टैडिंग कि हम मटरगश्ती करने वाले यार दोस्त होकर भी कितने अनजान हो सकते हैं। उस पार्क का प्रभाव विरक्ति पैदा करता था, वह भी बिना किसी दबाव के स्वभाविक तरीक़े से।

मैं और वह ग्रीन पैसेज के एक कोने में लकड़ी की पार्क चेयर पर बैठ गये। चेयर के ऊपर कचनार का एक पुराना पेड़ था। जिसकी पत्तियाँ चारों ओर बिख़री थीं। मेरा ध्यान उसके बैग पर गया। उसमें से वह बुक झाँक रही थी, जो उसने अभी ख़रीदी थी। मैंने उस बुक को निकाल लिया। थॉमस हार्डी की "टैस ऑव द अरबरविल"

"कोर्स बुक। आई हेट लिट्रेचर। "

उसने कहा।

"बट आई डोंट। "

"हाउ यू बी सो अनरोमैंटिक। "

"मुझे यह अच्छा लगता है। "

मैंने उसके चिन पर बने तिल पर उँगली रखते हुए कहा।

"व्हाट। "

उसके माथे के बीच बनावटी से बल पड़ गये। मैंने अपना चेहरा उसकी ओर बढ़ाया। मैं उस तिल को अपने होंठों में दबा लेना चाहता था। वह कुछ सकपकाकर पीछे हट गई। मेरे और उसके बीच एक ख़ाली जगह बन गई। एक छोटी सी ख़ाली जगह जो लम्बी सी ख़ाली जगह महसूस हो रही थी। उस ख़ाली जगह में पार्क चेयर के लकड़ी के बत्ते थे। हम दोनों अपने-अपने में बैठे थे। मैं उस ख़ाली जगह को भरना चाहता था। मैंने उसका हाथ अपने हाथ में खींच लिया। वह ख़ाली जगह भर गई। अब वहाँ उसका हाथ था। मेरी हथेली में दबा उसका हाथ। उसके बढ़े हुए नाखून मेरी हथेली में चुभ रहे थे। पास ही एक स्क्वैयर कट हेज थी। वह हेज हल्की सी हिली। हम दोनों उस हेज को देखने लगे। फिर वह मुझे देखने लगी। पता नहीं उस समय वह क्या सोच रही थी? तभी हेज ज़ोर से हिली। मैं उसकी ओर देखकर मुस्करा दिया और वह मुझे देखकर अपना मुँह अपने हाथों से दबाकर हँस पड़ी। शायद उसकी हँसी हेज में दबे लोगों ने सुन ली। हेज शांत हो गई। मुझे हमेशा की तरह गिल्ट महसूस हुआ।

मेरा बैग अभी तक मेरे कंधे पर था। मैंने उसे उतारकर चेयर के नीचे घास पर रख दिया। मुझे उस पर थोड़ा ग़ुस्सा भी आ रहा था। वह उसी किताब को देख रही थी, जिसके लिए उसने कहा था "आई हेट"। मैं उसे अपने और पास बुलाना चाहता था। पर फिर लगा मैं ही क्यों?

"व्हाय यू लैफ़्ट निशा? तुम दोनों ज़्यादा दिन साथ नहीं रहे। "

उसने अचानक पूछा।

"वी वर नॉट इंट्रेस्टेड लांगर। शी ए ट्रेडिशनल...। यू नो आई हेट सच थिंग्स। बट इट्‌स ऑब्वियस। इट कैन हैपेन। तुम्हें पता है, व्हॉट इज द बेस्ट थिंग एबाउट ए डेट?"

उसने ना कि मुद्रा में अपना सिर हिला दिया।

"इट्‌स द बेस्ट वे ऑव लर्निंग रिलेशंस। यू कैन नो द सीक्रेट ऑव रिलेशन्स। "

"आई डोंट थिंक। ये कोई रिलेशन नहीं है। यह सिर्फ़ डेट है। डेट। ऑनली डेट। "

मैं उससे बहस नहीं करना चाहता था। मैंने अपने बैग से एक मैग्ज़ीन निकाली और उसे उलटने-पलटने लगा। मैं उसे दिखाना चाहता था, आई डोंट केयर। जैसा कि वह मेरे साथ कर रही थी। फिर वह भी उस मैग्ज़ीन को देखने लगी। मेरे कंधे पर उसकी चिन थी और वह मेरी तरह से उस मैग्ज़ीन को देख रही थी। मैग्ज़ीन के बीच ग्लेज़्ड पेपर पर दो पोस्टर बने थे। पोस्टर में जो मॉडल थी, वह नेकेड थी। मैंने उस फोटो को उसे दिखाते हुए उसके कान में कुछ कहा। उसने मेरे बाल पकड़कर हल्के से झिंझोड़ दिये और अपना चेहरा मेरे कंधे से ऊपर उठाकर हँसने लगी। उसके चेहरे पर कचनार के पेड़ से छनकर आती धूप-छाँव अपना खेल दिखाने लगी। मैंने धीरे से उसके चिन पर बने तिल पर अपने होंठ रख दिये। अचानक उसके हाथ मेरे कंधे और पीठ पर आ गये। मेरे चेहरे के दोनों ओर उसके सर्पिलाकार बाल थे और मेरे सामने उसकी ब्राउन आँखें थीं। मैं उन आँखों को अपने से दूर नहीं जाने देना चाहता था। वहाँ कोई हेज नहीं थी। पार्क की कुर्सी के चारों ओर खुली हवा और ऊपर कचनार की जाली से झाँकता आकाश था। लगा ही नहीं कि हेज होनी चाहिए। ख़याल ही नहीं आया।

 

समय: एलार्मिंग डॉग या शिकारी 

 

ट्रेन कुछ धीमी हो गई थी। अब छायाओं को पकड़ने और छोड़ने के काम में मन नहीं था। वह बेमन का काम था। गुज़रते समय की मजबूरी। क्योंकि घड़ी रुकती नहीं। क्योंकि अकेलापन हाड़-मांस बन गया है। क्योंकि हम कभी ख़ाली नहीं होते। क्योंकि निर्वात (वैक्यूम) मरने से पहले सिर्फ़ एक कमरा भर हवा के लिए तड़पाता है। ऐसे बहुत से "क्योंकि" मैंने ढूँढें हैं, जो इस "बेमन" के पीछे उसे धकियाते से पड़े हैं।

केबिन में ऊपर की बर्थ पर सोया बूढ़ा जाग गया है। वह बूढ़ा मुझे ताक रहा था। उसकी आँखें मेरे देह पर पड़ी थीं। वे मेरे भीतर झाँकने की ताक में थीं। मैं कुछ असहज सा हो गया। बूढ़ी आँखों का भीतर झाँकना सकुचा देता है, जैसे कोई अनुभवहीन आदमी जब किसी वेश्या के सामने नंगा होता है तब एक "हिच" उसके भीतर की दीवारों को नोचता रहता है। उस बूढ़े की आँखों से ख़ुद को छिपाना कठिन था। क्या पता ट्रेन की खिड़की के कांच से चिपका अँधेरे देखता आदमी उन बूढ़ी आँखों के करोड़ों खांचों में से किसी खांचे में फ़िक्स हो जाय। मैं क्षण भर को ऐसा प्रदर्शित करने लगा जैसे मैं कुछ भी तो नहीं कर रहा हूँ...बस मुझे नींद नहीं आ रही थी, सो कांच से चिपक गया... पर अब नींद आ रही है... मुझे जम्हाई आ रही है, जिसका मतलब है कि मैं जल्दी ही सो जाऊँगा... उन आँखों का मुझे ताकना बेमानी है...। मैं प्रदर्शित करता रहा, जैसे चाइनीस चेकर की गोटी एक सोच के तहत एक गढ्‌ढे से दूसरे गढ्‌ढे पर कूदती रहती है।

कितना विचित्र है, उस दिन हमें लगा ही नहीं था कि हेज होनी चाहिए। किसी ओट का ख़याल ही नहीं आया था और आज मैं एक निरीह बूढ़ी आँख से सकुचा रहा था। समय कितना कुछ बदल देता है। वह नष्ट भी करता है। शिकारी जानवर की तरह किसी जीवन को चबाकर नष्ट कर देता है।

पर वे आँखें मुझे ताकती रहीं। मैंने क्षण भर को उन आँखों को देखा। पता नहीं क्य्¡ मुझे लगा कि मैं ग़लत हूँ। मेरा अनुमान मुझे ग़लत खींच रहा है। वे आँखें मेरे घर के दरवाज़े पर भिखारी की तरह खड़ी हैं,पर वे कुछ माँग नहीं रही हैं। उन आँखों का टटोलना चुप्पी में बैठे-बैठे पैरों को हिलाने जैसा है। उसके पीछे कोई नीयत नहीं है। ऐसा सोचकर मैं निश्चिंत हो गया और फिर से खिड़की के कांच से चिपक गया।

मुझे फिर से उसकी आँखें दिख गईं-डेट ऑनली डेट। उसने एक लिमिट बनाई थी। शुरू में हम दोनों मानते थे- डेट...ऑनली डेट। पर फिर लगा ही नहीं कि कब यह डेट, डेट नहीं रही। बात समय गुज़ारने भर की नहीं थी। हमने सोचा था, थोड़ी सी मौज-मस्ती और फिर सब कुछ दफ़न। हमेशा आसान लगा था, समय को इस तरह गुज़ारकर दफ़न कर देना। कितना आसान है, कोई झंझट नहीं। हम समय को अपनी तरह से गुज़ारना चाहते थे। हमने जाना था, कि समय हमारी मुट्ठी में बंद है। वह उन पामेरियन, तिब्बती लासाप्सा या सिल्की सिडनी सरीखे पालतू कुत्तों की तरह है, जिन्हें उनके मालिक शाम को घुमाने के लिए ले जाते हैं और वे हगने-मूतने के लिए भी अपने मालिक की दया पर होते हैं। जब रात को कोई अजनबी आ जाता है, तब दूर से ही भौंकते हैं और फिर भीतर घुस जाते हैं। एलार्मिंग डाग्स... समय भी ऐसा ही लगता था। जब हम नये-नये जवान होते हैं, तब पहली बार समय हमारे सामने इसी रूप में आता है। एक मजबूर एलार्मिंग डॉग की तरह। ...पर डेट, फिर आगे डेट नहीं रही। हम ग़लत सिद्ध हुए थे। और इस तरह ग़लत होना हमें अच्छा लगा था। हमने इस बारे में संजीदगी से बात भी नहीं की। हम एक दूसरे पर हँसते हुए कहते थे- डेट ऑनली डेट...। व्हाट ए फ़न...यू वर लुकिंग सिली सेइंग डेट ऑनली डेट...। मुँह में स्ट्रा दबाये हुए, लिपिस्टिक पुते चेहरे को अजीब तरह से घुमाते हुए...डेट ऑनली डेट। कभी-कभी वह चिढ़ जाती। पर यही वह बात थी, जिससे मैंने जाना कि समय पामेरियन डॉग की तरह अलार्मिंग डॉग ही नहीं है, वह शिकार भी कर सकता है। उसने हमारी डेट्‌स का इस तरह शिकार किया था, कि हमें पता भी नहीं चला। फिर यह भी कि आप तय करके किसी के साथ नहीं चल सकते। अगर किसी के साथ चलना है, तो कई चीज़ों को समय के हवाले करना पड़ता है। जैसे समय ने हमारे प्यार को तय कर दिया था, जबकी हमने सोचा था, कि हम आगे नहीं बढ़ेंगे।

 

रिलेटिविटी

 

छायायें पीछे की ओर भाग रही थीं। पर उनसे जी उकता गया था। अब उन्हें पकड़कर छोड़ने का मन नहीं कर रहा था। मैंने काले आकाश की ओर देखा और उसे पकड़कर छोड़ना चाहा। पर वह छूट नहीं पाया। एक बार पकड़ में आया काला आकाश छूटता नहीं है। वह ट्रेन के साथ-साथ चलता है। उसके चाँद-तारे और उसका अँधेरा ट्रेन के साथ चलते हैं। वह बीतते अँधेरों में नहीं छूटने की अपनी ज़िद पर अड़ा रहता है। वह ट्रेन के साथ ही रुकता है, ट्रेन के साथ ही चलता है और ट्रेन के साथ ही दौड़ता है। ना एक क़दम आगे और ना पीछे।

ऐसा क्यों है? क्यों पेड़ घर, पहाड़, पुल, रेल्वे स्टेशन, शहर, गाँव...... सब तेज़ी के साथ पीछे चले जाते हैं और चाँद तारे, आकाश.....भागती ट्रेन के साथ-साथ चलते रहते हैं। स्कूल में फिजिक्स में पढ़ा था, कि ऐसा "प्रिंसिपल ऑफ़ रिलेटिविटी"(सापेक्षवाद का सिद्धांत) के कारण होता है। चाँद-तारे पृथ्वी से बहुत दूर हैं। इसलिए ट्रेन के चलने पर भी पृथ्वी के रिलेटिव उनका डिस्प्लेसमेंण्ट (विस्थापन) बहुत कम याने लगभग शून्य होता है, जबकी पेड़, जंगल, पहाड़, घर... वग़ैरा का डिस्प्लेसमेंण्ट बहुत ज़्यादा होता है। इसलिए चाँद तारे साथ-साथ चलते हैं। पर बात शायद इससे भी आगे जाती है। जो जितना निकट होता है, वह इतने ही तेज़ झटके के साथ बीत जाता है।

वह भी जब निकट हो गई, झटके के साथ बीत गयी। मैं उसे ठीक से विदा भी नहीं कर पाया। बहुत सी बातें हमेशा-हमेशा के लिए मिट गईं। आज सोचता हूँ तो लगता है, कि कितना कुछ किया जा सकता था, जो नहीं हो पाया। लगता है अगर वह मिल गई। बीत चुके पूरे पंद्रह सालों के बाद तो मैं आज भी उससे कह सकता हूँ, वह सब जो कहना था। मैं उसके सामने चुप भी रह सकता हूँ। ठीक उसी तरह जैसे मैंने उसके सामने चुप होना सोचा था, कभी उसे निहारते हुए, कभी उसके कामों को देखते हुए उनमें इनवाल्व होते हुए, कभी उसे मुझमें डूबने के लिए गिरते हुए......तरह-तरह की चुप्पियाँ। लगता है जो छूट गया है उसे आज पूरा किया जा सकता है। कोई अंतर नहीं अगर पंद्रह साल बीत गये।

जब वह जा रही थी, मैंने उससे कहा था कि मैं आ सकता हूँ। वह जब भी बुलायेगी, मैं आऊँगा। पर फिर कभी उससे बात नहीं हुई। ना कोई फोन आया, ना कोई मैसेज... बाद में कुछ दिन मैंने उसे तलाशा भी। कॉलेज के पुराने फ़्रैण्ड्‌स जिनसे मेरे कान्टेक्ट थे, उसकी वह फ़्रैण्ड जो उसकी रूम मेट थी उसे मैंने ढूँढ निकाला था, पर उसे भी पता नहीं था... यहाँ तक कि मैंने इंटरनेट पर भी उसे तलाशा-ओल्ड फ़्रैण्ड्‌स डाट कॉम। पर वह कहीं नहीं थी।

मैं ट्रेन के बाहर दिखते आकाश को फिर से ताकने लगा। काला आकाश हमेशा साथ चलता है। हाँ हमेशा...।

उसकी तरह का प्यार

मैं याद करने लगा। वे दिन जब हम अक्सर मिलते थे।

उसने एक फ़्लैट ले रखा था। वह अपनी एक फ़्रैण्ड के साथ उसे शेयर करती थी। एक कमरा और एक छोटी सी बालकनी। बालकनी से दिखते चौरस छत वाले बेतरतीब मकान और उनके पास से गुज़रने वाली रेल्वे लाइन। हर थोड़ी देर बाद ट्रेन की धड़धड़ाहट फ़्लैट के उस कमरे की चुप्पी को तोड़ देती थी।

अक्सर हम दोनों कॉलेज से उसके फ़्लैट तक साथ-साथ आते थे। कभी उसकी फ़्रैण्ड फ़्लैट में होती थी, तो कभी वह ख़ुद उस फ़्लैट का लॉक खोलती थी। जब उसकी फ़्रैण्ड देर से लौटती तो वह फ़्लैट का दरवाजा खोले बिना भीतर से ही उससे कहती कि वह थोड़ी देर कहीं और चली जाये, क्योंकि मैं उसके साथ हूँ। वह अक्सर एडजस्ट कर लेती, पर कभी-कभी वह इरिटेट हो जाती। फिर हम लोगों ने अपनी मीटिंग्स इस तरह तय कर लीं कि उसे प्रॉब्लम ना हो। उसे पहले से पता होता और वह कहीं और चली जाती।

जब उस फ़्लैट को याद करता हूँ तो कुछ भी सिलसिलेवार याद नहीं आता है। बस कुछ टूटे हुए चित्र हैं। वे चित्र किसी एक मोमेण्ट को पूरा नहीं करते हैं। 

मुझे याद आया मैं और वह फ़्लैट की बालकनी में खड़े थे। उसने मुझसे कुछ कहा था। पर तभी ट्रेन गुज़री और मैं सुन नहीं पाया। मैंने उससे पूछा। उसने कहा-कुछ नहीं। फिर उसने दुबारा कहा। शाम घिर रही थी। चौरस छत वाले घर धुँए में घिर रहे थे। मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। बस उस रात मैं घर नहीं गया। वह पहली रात थी। उसकी फ़्रैण्ड भी उस रात नहीं आई। उसे पहले से पता था। उस रात मैंने हर धड़धड़ाती ट्रेन को सुना था। फिर जब सुबह अपने घर गया तो घर वालों के पूछने पर उनसे झूठ बोला कि, रात भर मैं कहाँ रहा था। फिर बाद में यह झूठ मुझे कई बार कहना पड़ा। मैंने पहली बार महसूस किया हेज का होना ज़रूरी है। पर जैसे यह मेरी कमज़ोरी हो। फिर इससे भी आगे मानो मैं ग़लत हूँ। जब यूँ सोचता तो ख़ुद से चिढ़ सी हो जाती। मन कहता घर वालों से कह दूँ, कि रात को मैं कहाँ था, किसके साथ सोया था, हम दोनों पूरी रात एक दूसरे से...... कह दूँ सब कुछ। क्या ज़रूरत है, इस झूठ की, इस ढोंग की जो मुझे पाप लगता है। पर जैसे मैं हार रहा था। मुझे पता ही नहीं था, कि यही वह रास्ता है जहाँ से मौत को आने की जगह मिलती है, वरना आदमी कभी मरने के लिए पैदा नहीं होता।

उस फ़्लैट में मैं उसके साथ उन रास्तों पर चला था, जहाँ मैं फिर किसी और लड़की के साथ नहीं चल पाया। वे रास्ते उसने ख़ुद बनाये थे। उसने सोचा था, वह मुझे वहाँ अपने साथ लेकर चलेगी। उसने मुझे अपने साथ लेकर चलने का सोचा था। ऐसा बहुत कम होता है। ऐसी कितनी लड़कियाँ होती होंगी, जो अपने प्रेमियों के लिए रास्ते सोचकर रखती हैं। कि जब प्यार होगा तब वे उसे अपने साथ उन रास्तों पर ले जायेंगी। वे उन रास्तों पर नहीं जायेंगी जिन्हें उनके प्रेमियों ने उनके लिए सोचा है। बल्कि वे उन्हें ख़ुद ले जायेंगी, उनका हाथ पकड़कर, उन रास्तों पर जो उन्होंने सोचा है। वे खुलकर बतायेंगी कि यह है, जो उन्होंने सोचा है। मैंने जितना जाना है, जितना महसूस किया है, वह यह है, कि ज़्यादातर के पास उनके अपने रास्ते ही नहीं होते हैं। अगर होते हैं, तो वे उन्हें छिपाकर रखती हैं। फिर उनका दावा होता है, कि वे प्यार करती हैं। वे उन रास्तों को छिपाकर प्यार करती हैं। कितना अजीब है यह विरोधाभास। कुछ छिपाकर प्यार करना। पर हर कोई इसे अंधे की तरह मानता है और प्यार चलता रहता है। पर उसने नहीं छिपाया। मैंने उससे पूछा भी नहीं। जब छिपा ही ना हो तो पूछना कैसा। उसके साथ उन रास्तों पर चलना बड़ा सहज सा था। मैंने सोचा था, कि प्यार इसी तरह होता है। पर मैं ग़लत था। बहुत कम लड़कियाँ उस तरह कर पाती होंगी। उसकी तरह प्यार करना कठिन है।

 

एक बीता हुआ शहर

 

बाहर के अँधेरे में रेल की पटरी पर धुँधली सी चाँदनी चमक रही थी। पटरी छूटती जा रही थी, पर धुँधली सी चमक साथ चल रही थी। लगता मानो पटरी रुकी हुई है। उसका एक सा आकार बिल्कुल भी नहीं बदला है। चेतना नहीं होती तो मैं उसे रुका ही जानता। चेतना ना हो तो कितना कुछ रुक जाये। ना आगे जाय और ना पीछे जाय। बात चेतना भर की नहीं है। यह बात उस धड़कन की है, जो चेतना के खोल में रहती है...जो भ्रम तोड़ती है, स्वप्नों को सुधारती है, कविता के शब्द गढ़ती है...। तभी तो मैं आज भी अपने हाथों पर उसकी देह को महसूस कर पा रहा हूँ। उसकी देह की उष्णता। एक मासूम सी चेतना जो मेरे हाथों पर आज भी फिसलती जान पड़ती है। उन दिनों वह चेतना मुझे उकसाती थी, मुझे उसकी ओर खींचती थी। पर जो आज उकसाती नहीं है और ना ही उत्तेजित करती है। बस आँखों को भिगो जाती है। गले को रूँध देती है।

मुझे नींद आने लगी। मैंने आँखें बंद कर लीं। मेरे अँधेरे में बस ट्रेन की आवाज़ रह गई।

अचानक ट्रेन की आवाज़ बदल गई। उसकी धड़धड़ाहट तेज़ हो गई। मैं चौंककर जाग गया। ट्रेन के नीचे से कई नई पटरियाँ निकल आईं और तभी एक जगमगाता स्टेशन तेज़ी से आया और बीतते अँधेरों में खो गया। मैं उसकी जगमगाहट में से कुछ भी नहीं पकड़ पाया। दूसरे ही क्षण ट्रेन की आवाज़ पुरानी आवाज़ जैसी हो गई। अगर ट्रेन बोलती तो मैं उससे पूछता- वे कौन-कौन से स्टेशन हैं, जिन्हें वह रोज़ जगमगाता पाती है और लगभग एक ही तरह से उन्हें अँधेरों के हवाले कर देती है? क्या उसने सोचा है, कि उनमें से किसी स्टेशन पर वह रुकेगी? सिग्नल के लाल होने से नहीं बल्कि अपनी मर्ज़ी से। स्टेशन से गुज़रते समय उसकी धड़धड़ाहट क्यों बदल जाती है? क्या ठीक वैसे ही जैसे वह जा रही थी। वह हमेशा के लिए जा रही थी। फिर जाते-जाते अचानक वह मेरे गले से लिपट गई और तब मुझे उसकी धड़कन सुनाई दी थी। वह धड़कन अलग तरह की थी। मैंने उसकी जितनी धड़कनें सुनी थीं वह उससे अलग थी। वह बदली हुई धड़कन थी। क्या ठीक उसी तरह......

वे बूढ़ी आँखें मुँदकर लुढ़क चुकी थीं।

कुछ और लोग जाग गये थे। वे अपना सामान बाँध रहे थे। उनकी बातें मुझे समझ नहीं आ रही थीं। वे किसी दक्षिण भारतीय भाषा में बात कर रहे थे। मैंने उनमें से एक व्यक्ति से आने वाले स्टेशन के बारे में पूछा। पता चला वह जगह आने वाली है। वही जगह जिसके लिए मैं जाग रहा हूँ। खिड़की के पार एक काली पहाड़ी सरक रही थी और एक झिलमिलाता शहर काले आकाश को घूँट दर घूँट गटकता जा रहा था।

उन दिनों इन पहाड़ियों को हम दोनों लगभग रोज़ देखते थे। इस शहर में वे लगभग रोज़ मेरे सामने होती थीं। उन पहाड़ियों से बचकर नहीं रहा जा सकता था। उनका सामने होना एक अजीब सा ढाढ़स बँधाये रहता था। जैसे घर का बुज़ुर्ग सदस्य होता है। वह अनुत्पादक है। उसका होना ना होना कोई अंतर पैदा नहीं करता। पर उसके होने से एक ढाढ़स होता है। जब हम दु:खी होते हैं, तब अपना चेहरा टिकाने के लिए किसी अपने बूढ़े का कंधा ढूँढते हैं। वह कमज़ोर कंधा होता है। पर वहीं ढाढ़स मिलती है। वे पहाड़ भी ऐसे ही थे। पूरा शहर थककर उन्हीं के कंधों पर अपना सिर टिका देता था। यद्यपि रोज़ उन पहाड़ों को काटा जाता था। उन्हें नुकसान पहुंचाया जाता था और वे किसी बुढ्‌ढे की तरह निरीह होकर सब सहते थे। हम दोनों कई बार इन पहाड़ों पर गये थे। पर उन दिनो मैंने इन पहाड़ों को इतनी संजीदगी से नहीं देखा था, जिस तरह इन्हें देखने का मन आज कर रहा है और मैं ट्रेन की खिड़की से अपना चेहरा चिपकाये इन्हें देख रहा हूँ। शायद पहाड़ों को नहीं देख रहा हूँ। एक भ्रम सा है, जैसे आज भी उस पहाड़ पर मैं और वह दिख सकते हैं। एक दूसरे का हाथ थामे, ऊपर की ओर बढ़ती दो छायायें...। मैं और वह।

फिर शहर की पुरानी वाली झुग्गी बस्ती गुज़रने लगी। फूस और खप्परों वाले मकानों के बीच इक्का दुक्का पक्के मकान इसमें हैं। यह वैसी ही है, जैसी उन दिनों होती थी। फिर शहर का गंदा नाला आया। हम इसे ही पार कर कॉलेज जाते थे। नाले बदबू बिल्कुल वैसी ही थी, जैसी उन दिनों होती थी। खट्टी और उबका देने वाली बू। फिर बोर्ड आफ़िस वाला एरिया पड़ा। इसी से लगा हुआ वह कैंटीन था, रिजाइस और उसके पीछे ला बैले कॉलेज। जो आज भी मुझे किसी सपने सा लगता है। यद्यपि मैं वहाँ पढ़ा था। पर कुछ चीज़ेंं सपना ही होती हैं। उनसे गुज़रने से पहले हम उसे सपना ही जानते हैं और सोचते हैं जब गुज़र जायेंगे तब वह सपना नहीं रहेगा। पर वह गुज़रने के बाद भी नहीं बदलता है। हम उसको लेकर कल्पनायें गढ़ते रहते हैं। उसको लेकर सपने बुनते रहते हैं। यद्यपि हम जानते हैं कि अब इन सपनों का कुछ नहीं हो सकता। हम लौटकर पीछे नहीं जा सकते हैं। ये सपने और इन्हें देखना पागलपन है। हम जानते हैं। परन्तु फिर भी उसे लेकर सपने बुनते हैं। एक अधूरापन मन में होता है। उसे भरने के लिए हम इन सपनों को देखने का पागलपन करते हैं। पर वह अधूरापन कभी नहीं भरता है। वह उन सपनों के साथ-साथ और गहरा हो जाता है। वह ख़ालीपन हर सपने के साथ और बढ़ जाता है।

ट्रेन के पास ही से कैण्टीन की वह सफ़ेद बिल्डिंग गुज़र रही थी। उस पर लाल रंग से लिखा रिजाइस चमक रहा था। उसके पीछे धीरे-धीरे ला बैले कॉलेज की बिल्डिंग दीख रही थी। रात के अँधेरे में वह कुछ उदास दिख रही थी। उसका रंग वही था, लाल किरी| पत्थरों वाला रंग। वह उन्हीं पत्थरों से बनी थी। बरसात में माली उन दीवारों पर काही के बीज डाल देता था। तब वह इमारत नीचे से हरी मखमली हो जाती थी। ... मुझे लगा यह संसार की सबसे सुंदर इमारत है। मैं उसे संसार का सबसे बढ़िया कॉलेज मानना चाहता था। उस क्षण लगा कि मैं सही था। यह सबसे सुंदर है। सबसे बढ़िया है। अगर यह सबसे बढ़िया नहीं है,तो फिर कौन है। मैं आज तक... उससे गुज़रने के बाद भी, पंद्रह सालों बाद भी, उसके सपने देखता हूँ।

कुछ भी नहीं बदला। सब वैसा ही है।

इसी इमारत के ठीक पीछे था-ग्रीन पैसेज। वह ट्रेन से नहीं दिख सकता। पर मुझे विश्वास था, कि वह वैसा ही होगा जैसा पंद्रह साल पहले था। वह वैसा ही होगा। कहीं कुछ भी तो नहीं बदला है। वह भी वैसा ही होगा। यहाँ कुछ भी नहीं बदलना चाहिए। मुझे लगा कुछ भी नहीं बदलना चाहिए। अगर समय गुज़रता है, तो गुज़रता रहे। पर कुछ भी ना बदले। कम से कम जब तक मैं ज़िंदा हूँ। तब तक तो कुछ भी ना बदले। अगर बदलना ही हो तो मेरे मरने के बाद बदले।

वे बूढ़ी आँखें फिर से जाग गई थीं। वे मुझे फिर से देख रही थीं। वे अचरज में थीं, कि मैं इतनी डूब के साथ क्या देख रहा हूँ? उनमें अब कोई बेचारगी नहीं दीख रही थी। वे अब उत्सुक थीं।

रेल की पटरियों से थोड़ी ही दूर एक संकरी गहरी पुलिया थी। पुलिया के किनारे ही वह अपार्टमेंण्ट था, जिसमें उसका फ़्लैट था। अपार्टमेंण्ट का नाम आज मुझे याद नहीं है।

मैं उत्सुकता से ट्रेन के बाहर देखने लगा। वह पुलिया और वह अपार्टमेंण्ट शायद स्टेशन के पहले ही पड़ते थे। तभी एक के बाद एक दो पुलियाँ निकलीं। पर ये वो नहीं थीं। मैं इंतज़ार करता रहा। पर वह पुलिया और वह अपार्टमेंण्ट नहीं आये। मुझे लगा शायद नये कंस्ट्रक्शन के कारण जगह बदल सी गई हो। वह पुलिया और वह अपार्टमेंण्ट छुप गये हों।

थोड़ी ही देर में रेल्वे स्टेशन आ गया। स्टेशन के ऊपर दीखता चाँद पहले से ज़्यादा पीला होकर दूसरी दिशा में सरक गया था। तारे सोडियम की लाइट में खो गये थे। स्टेशन पर लटकी घड़ी के काण्टे दो बजकर चालीस मिनट पर अटके थे।

मैं ट्रेन से नीचे उतर आया। स्टेशन बिल्कुल वैसा ही था, जैसा मैंने उसे उन दिनों देखा था। यहाँ मैं उससे आख़री बार मिला था। एक पुराना लैंप पोस्ट है। ओव्हर ब्रिज के ठीक नीचे। वह आज भी वहीं है। उससे सटी हुई एक बैंच है। वह भी वहीं है। उस दिन उसकी ट्रेन लेट आई थी। हम दोनों उस बैंच पर काफ़ी देर तक बैठे रहे थे। मैं ट्रेन से उतरकर उस बैंच के पास जाकर खड़ा हो गया। उस बैंच पर एक भिखारी सो रहा था। उस दिन भी देर रात हो गई थी। हम दोनों देर तक उस बैंच पर बैठे रहे थे। उसने अपना बैग अपनी गोद में रखा हुआ था। वह चुप थी। स्टेशन में बहुत कम भीड़ थी। क्षण भर को लगा, जैसे अभी-अभी उसकी ट्रेन स्टेशन से गई है और मैं अकेला छूट गया हूँ। जैसे उस दिन छूट गया था और थोड़ी देर तक उस बैंच के पास खड़ा रहा था।

पर दूसरे ही क्षण लगा जैसे मैं बहुत समय से अकेला और ख़ाली रहा हूँ, बस उसका अहसास मुझे आज हो पाया है। और मुझे यह शहर पराया लगने लगा। एक बिल्कुल अजनबी शहर, जिसके रेल्वे स्टेशन में रात के तीन बजे मैं किसी दूसरे ग्रह के प्राणी की तरह खड़ा हूँ। इस शहर पर अब मेरा कोई अधिकार नहीं। यह अब दूसरों का शहर है। जब हम किसी शहर में रहते हैं, तब कितने अधिकार के साथ रहते हैं। लगता ही नहीं कि शहर कभी भी हमारा नहीं होता है। वह तो हमेशा समय का होता है। लोगों में धोखे पालता है। स्मृतियों के बावजूद भी वह बेगाना हो जाता है। मानो वे स्मृतियाँ कूड़ा हों। एक मजबूरी है जो वे स्मृतियाँ इस शहर से जुड़ी हुई हैं। उन स्मृतियों का इस शहर से पोंछने का काम समय हमेशा करता रहता है। पर यह शहर मेरे लिए शायद कभी भी मर ना पाये। वह अगर मेरे जीवन में ना आती तो यह शहर मेरे लिए मर सकता था। पर उसकी स्मृतियों के कारण यह शहर मर नहीं सकता। उसकी स्मृतियों के कारण यह शहर याद रहता है। समय कितनी भी निर्ममता से पोंछे यह शहर मिट नहीं पायेगा।

मैं उस बैंच के पास थोड़ी देर और खड़ा रहना चाहता था। पर तभी ट्रेन के चलने का सिग्नल हो गया और मैं वापस अपने केबिन में आ गया।

यह उसकी स्मृतियों का शहर है। मैंने इसे उसके शहर के रूप में जाना है। उसकी स्मृतियों से भी आगे यह उसका शहर है। उसका शहर। यह शहर जिस तरह उसका हुआ, उस तरह किसी और का नहीं हो सकता है। इस शहर की हर जगह उसने इस शहर को दी है। हर जगह उसकी दी हुई है- पहाड़ियाँ जहाँ हम कई बार गये जिसे सोचते कई कहानियाँ याद आ जाती हैं। ला बैले कॉलेज और रिजाइस कैण्टीन जहाँ उसे पहली बार देखा था। जहाँ उससे पहली बार मिला। जहाँ से हमने शुरूआत की थी। ग्रीन पैसेज, यह स्टेशन,यह बैंच, चाँद के सामने चमकता सोडियम वाला लैंप......सब कुछ उसी का ही तो है। वह ना होती तो यह सब यहाँ नहीं होता। वह ना होती तो यह सब यहाँ इस तरह होता कि उसका होना, उसका ना होना होता। वह ना होती तो यह ट्रेन भी यहाँ नहीं रुकती। अगर रुकती तो किसी अजनबी की तरह रुककर आगे बढ़ जाती। उसका रुकना अर्थहीन होता। उसका रुकना और ना रुकना बराबर होता।

वह ना होती तो मैं इस शहर से गुज़रकर भी इससे नहीं गुज़रता। मैं उसी तरह गुज़रता जैसे भीड़-भाड़ वाले रास्ते से किसी शवयात्रा में कोई मुर्दा गुज़रता है। वह मुर्दा होता है। उस मुर्दे को उसके आसपास से गुज़रने या घटने वाली चीज़ों से कोई मतलब नहीं होता है। मुर्दे का किसी से क्या मतलब? वह तो लोगों के कंधों पर चढ़ा हुआ एक तमाशा होता है। मुर्दे के आसपास की दुनिया, संसार के दूसरे लोगों की दुनिया होती है। उस दुनिया में मुर्दे का कुछ भी नहीं होता है। ... वह ना होती तो मैं इस शहर से शवयात्रा वाले मुर्दे की तरह गुज़रता। एक मुर्दा बनकर गुज़रता। एक तमाशा बनकर गुज़रता।

वह ना होती तो यह स्टेशन भी उन आम स्टेशनों की तरह होता, जिन्हें ट्रेन पकड़ने और ट्रेन से उतरने की सुविधा के लिए बनाया गया है। वे स्टेशन सामान्य हैं। उनमें कुछ भी अलग नहीं है, कुछ भी विचित्र नहीं है। जब हम उन स्टेशनों पर उतरते हैं, तब हम पत्थरों और सीमेण्ट के लंबे चौड़े बेजान से प्लेटफ़ॉर्म पर उतरते हैं। वहाँ उतरना हमें धड़काता नहीं है। वहाँ उतरना हमें ख़ाली नहीं करता है। .........वह नहीं होती तो मैं भी इस स्टेशन के बेजान पत्थरों और सीमेण्ट पर बिना किसी धड़कन के उतरता। वास्तव में मैं उतरता ही नहीं। वह ना होती तो मैं इस स्टेशन पर नहीं उतरता। इतनी रात जब ना उतरना हो, तो कौन अजनबी स्टेशनों पर उतरता है।

वह ना होती तो स्टेशन की वह बैंच वहाँ नहीं होती। उस पर कोई भिखारी ना सोया होता। किसी को पता भी नहीं चलता कि स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर एक बैंच है और बैंच पर एक भिखारी सोया है। ट्रेन चली जाती और उस बैंच का वहाँ होना कोई मायने नहीं रखता। उस बैंच का होना, उसका नहीं होना होता।

वह ना होती तो मैं नहीं होता। सिर्फ़ स्टेशन होता, ट्रेन होती,एक गुज़रता हुआ शहर होता, सरकते पहाड़ होते, चाँद और पीला सोडियम होता, रिजाइस कैण्टीन का लाल रंग से चमकता साइनबोर्ड होता, बैंच पर सोता भिखारी होता, ला बैले कॉलेज की लाल किरी| पत्थरों वाली ऊँघती इमारत होती.........पर मैं नहीं होता। इन सब चीज़ों के बीच मैं नहीं होता। वह नहीं होती तो इन सब बेजान चीज़ों के बीच मैं नहीं होता। एक अजीब से ख़ालीपन के साथ इस स्टेशन पर मैं नहीं होता। वह नहीं होती तो इस शहर से गुज़रती ट्रेन में मेरे होने का कुछ अलग मतलब होता। पता नहीं क्या मतलब होता? कोई बेजान सा मतलब। एक ऐसा मतलब जो किसी बड़ी चट्टान की तरह हो। जो इस शहर से गुज़रते हुए ज़रा भी नहीं धड़के।

वह नहीं होती तो यह एक बीता हुआ शहर होता। उन बीते शहरों में से एक जहाँ फिर से जाने का कोई कारण नहीं बचा है। ऐसे बहुत से शहर हैं जो बीत गये। जहाँ जाना समय को खोना है। जहाँ जाकर कुछ नहीं हो सकता। पर वह थी और आज यूँ यह शहर पूरी तरह से बीत नहीं पाया है। उसके होने के कारण यह शहर मर नहीं पाया है। लगता है कुछ रह गया है। कुछ रह गया है बीतने से। कुछ रह गया है, इसे पूरी तरह से बेजान बनाने से। यह शहर अभी खोया नहीं है। इस शहर को अभी गुम होना है। उसने अभी इसे गुमने नहीं दिया है।

पता नहीं वह कहाँ होगी? पंद्रह साल हो गये। पर आज भी इस शहर पर उसका बस चलता है। यह शहर आज भी उसका कहा मानता है। पता नहीं वह कभी मिलेगी भी या नहीं? यह शहर भी मेरी तरह उसकी उम्मीद में धड़कता है। यह शहर नहीं मरेगा। उसकी यादें इसे मरने नहीं देंगी।

 

पंद्रह साल पुराना दिन 

 

थोड़ी देर बाद ट्रेन चलने लगी। स्टेशन छूट गया और शहर धीरे-धीरे गोल-गोल सा घूमता छुटने लगा। मुझे नींद आने लगी। मैं उनींदा सा कंपार्टमेण्ट की खिड़की पर सिर टिकाये बैठा रहा। और तभी...। हाँ तभी एक संकरी पुलिया और एक अपार्टमेंण्ट झटके से निकल गये। मैं तेज़ी से खिड़की से चिपक गया। मेरा चेहरा खिड़की के कांच पर धँस सा गया। पर तब तक सब कुछ निकल गया था। पंद्रह वर्ष पुरानी एक बात मुझे याद आई। मुझे लगा काश मैं केबिन में अकेला होता। अकेला होता तो मैं उस बात को अपनी तरह से याद करता। कोई मुझे देखता नहीं कि मैं क्या कर रहा हूँ?

मैं जल्द ही अपनी बर्थ पर लेट गया। मैंने लाइट बुझाई। अपने ऊपर चादर खींच ली। अपने चेहरे पर भी चादर खींच ली।

ट्रेन भागती जा रही थी। मैं सो गया।

जब नींद खुली तब भागती ट्रेन के एक ओर सिंदूरी प्रकाश बिखरा हुआ था। नीला आकाश था। चाँद तारे नहीं थे। मैं अपनी बर्थ पर लेटा था। बर्थ से आकाश और ऊपर सोये हुए यात्री दिख रहे थे। वे वैसे ही सो रहे थे जैसा कि मैंने उन्हें रात को सोते समय देखा था। क्षण भर को लगा कि सबकुछ वैसा ही है। कुछ भी नहीं बदला है। पर यह मेरा भ्रम था। रात को जब मैं सो रहा था, ट्रेन बहुत धीमी चल रही थी। वह रात को साथ-साथ भागने वाले आकाश से भी ज़्यादा धीमी हो गई। रात को आकाश और ट्रेन एक ही स्पीड में एक साथ, एक ही तरफ़ भाग रहे थे। पर ट्रेन इतनी धीमी हो गई कि आकाश आगे भागने लगा। वह आकाश के साथ-साथ आकाश के बराबर स्पीड में नहीं भाग पाई। और यूँ ट्रेन पिछड़ने लगी। ट्रेन आकाश से पिछड़ने लगी। आकाश आगे भागने लगा। ट्रेन आकाश से पीछे छूटने लगी। रात को साथ-साथ चलने वाले चाँद और तारे बहुत आगे निकल गये और ट्रेन बहुत पीछे रह गई। ट्रेन बुरी तरह पिछड़ गई। उसके साथ-साथ भागने वाला आकाश उससे आगे बहुत दूर जा चुका था । अब ट्रेन उस आकाश के के साथ थी जो बरसों पहले बीत चुका है। वह बीत चुके आकाश के साथ थी। बाहर सिंदूरी आलोक बिखरा था। वह किसी बीत चुके दिन का आकाश था। मैं सोच रहा था, यह बीते दिनों में से कौन सा दिन है? यह कौन सा दिन आ रहा है। क्या पंद्रह साल पहले बीत चुका कोई दिन है? उसके साथ गुज़रे वे दिन। वे दिन जो बीत चुके। वे दिन जो अब तक वापस नहीं लौट पाये हैं।

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