बन्दर विमर्श

18-06-2016

बन्दर विमर्श

अवधेश कुमार झा

बन्दरों की एक टोली थी, उनका एक सरदार भी था।...बन्दर फलों के बग़ीचों मे फल तोड कर खाया करते थे, माली की मार और डंडे भी खाते थे… पिटते थे। एक दिन बन्दरों के सरदार ने सब बन्दरों से विचार विमर्श कर निश्चय किया कि रोज़ माली के डंडे खाने से बेहतर है, हम अपना फलों का बग़ीचा लगा लें और खायें। कोई रोक टोक नहीं। …और हमारे अच्छे दिन आ जायेंगे।

सभी बन्दरों को यह प्रस्ताव बहुत पसन्द आया। ज़ोर-शोर से गड्ढे खोद कर फलों के बीज बो दिये गये। पूरी रात बन्दरों ने बेसब्री से इन्तज़ार किया। सुबह देखा गया अभी तो फलों के पौधे भी नहीं उगे थे! दो-चार दिन बन्दरों ने और इन्तज़ार किया - परन्तु पौधे फिर भी नहीं आये। बन्दर बेचैन हो गये। उन्होंने मिट्टी हटाई, देखा…, उन्हें फलों के बीज जैसे के तैसे मिले।

बन्दरों ने कहा - लोग झूठ बोलते हैं। हमारे कभी अच्छे दिन नही आने वाले। हमारी क़िस्मत में तो माली के डंडे ही लिखे हैं। बन्दरों ने सभी गड्ढे खोद कर फलों के बीज निकाल कर फेंक दिये। पुन: अपने भोजन के लिये माली की मार और डंडे खाने लगे।

देश वासियो - ज़रा सोचना...! कहीं हम बन्दरों वाली हरकत तो नहीं कर रहे। 60 साल एक दल और एक ही परिवार को हमने शासन का अवसर दिया - आज देश की हालात क्या हुई? क्या दूसरा दल दो बार शासनकाल के हक़दार नहीं? यदि दो कार्यकालों के बाद भी आपको लगे कि अच्छे दिन नही आये तो मोदी को उखाड़ फेंकना। एक परिपक्व समाज का उदाहरण पेश करिये...बन्दरों जैसी हरकत मत करिए। यह कमेंट्स उन लोगों के लिए है, जिन्हें मोदी काल में ''भौकाल'' नज़र आता है...!

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