बाल्टी भर हौसले

15-10-2019

बाल्टी भर हौसले

डॉ. अनुराधा चन्देल 'ओस'

छक बाल्टी भर दूध भरकर जब वह ग्वालिन चलती तो पूरी गली महमहा जाती है। घर-घर दूध बाँटने का काम करती है, मज़बूत क़द-काठीक, औसत क़द की वह ग्वालिन हर रोज़ अपने मोहल्ले से निकल कर सामने वाले रत्ना मोहल्ले में दूध बाँटने जाती। आम तौर पर ऐसी क़द-काठी की औरतें कम देखने को मिलती हैं। मेरे घर भी वही दूध देने आती है। होंठों पर हमेशा मुस्कान, और माथे पर चवन्नी भर बिंदी। पैंतालिस-पचास साल की वय में बाल एकदम काले, चमकीले! आम तौर पर उससे कम बातचीत हो पाती है। उसको देखकर कई सवाल मन में आते थे लेकिन समय न होने से उससे केवल काम भर की ही बातचीत थी। 

उस दिन आसमान में काले बादलों का झुंड जमा हो रहा था। संयोग से मेरी छुट्टी भी थी, अफ़रा-तफ़री थोड़ी कम थी आम दिनों की अपेक्षा। बच्चे स्कूल जा चुके थे, पति अपने ऑफ़िस। चाय पीने का मन था, लेकिन दूध ख़त्म हो गया था। तभी वह हँसती मुस्कुराती प्रकट हुई। जब जाने को हुई तभी मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी,मैंने कहा, "बैठ जाओ बरखा बंद हो जाय तब जाना, नहीं तो तबियत ख़राब हो जाएगी।"

आज तो उससे ज़रूर पूछूँगी अपने सारे सवाल, "तुम क्या खाती हो जो इस उमर में भी तुम्हारे बाल एकदम काले हैं?"

सुनकर उसकी आँखों में थोड़ी नमी आयी लेकिन उसने अपने को सँभाल लिया, "शेम्पू कहाँ पाऊँ बीबीजी; बस रिन साबुन से धो लेती हूँ।"

सुनकर अपने पर बड़ी शर्म आई, यहाँ तो देशी-विदेशी शेम्पुओं के ब्रांड भरे हैं शेल्फ़ में, मगर बाल उम्र की चुगली कर ही देते हैं। 

"अच्छा ये बताओ तुम्हारा मरद क्या काम-धाम करता है?"

"हाँ करता है न, बिना ग़लती के चार गालियाँ। रोज़ रात को पीकर आता है और चिल्लाता है।"

"तुम खाना देती हो उसको।"

"कैसी बात करती हैं बीबीजी; आदमी है मेरा खाना नही दूँगी भला. . . चाहे जैसा भी हो। जब उसकी कमाई से घर का ख़र्च चलना कठिन हो गया तब मैं ये काम करने को निकली।

"चार बच्चों को कैसे पालूँ? इतनी पढ़ी भी नहीं कि कुछ कर लूँ। इसलिए दो भैसों को पाल लिया, उन जानवरों ने हमको पाल लिया। बीबीजी, कभी-कभी सोचती हूँ कि मैंने जन्म काहे ले लिया। बचपन में बाप का साया उठ गया सर से। पन्द्रह बरस की होते-होते माँ ने चाचा-मामा के सहारे मेरे हाथ पीले कर, दो जोड़ी कपड़े में विदा कर गंगा नहा लिया।"

"लेकिन तब भी तुम इतनी मस्त रहती हो जैसे कि तुम्हे कोई टेंशन ही न हो।"

बाहर बारिश टपाटप पड़ रही थी, अंदर उसके मन के भाव। जब ये अनपढ़ होकर जीवन जीने की राह ढूँढ़ लेती हैं तो, हम में से बहुत सारी औरतें क्यों निराश होकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेती हैं?

"बीबी मानुस जन्म एक बार मिले है। रो-झींककर गुज़ारने से बढ़िया है मस्त रहो।

"बाल्टी में दूध नहीं उम्मीद भर कर निकलती हूँ,अपने बच्चों की ज़िंदगी सँवार सकूँ। उनको पढ़ा भी रही हूँ बीबीजी।"

मज़बूत क़द-काठी के साथ मज़बूत इरादे भी हैं; समाज तो औरत की ग़लती खोजने की कोशिश करता है। एक दिन सुबह आयी हँसते हुए कहने लगी, "अपने लड़के ख़ातिर लड़की देखन गयी थी। एकदम तुम्हारे जैसी नीक! बस सुभाव अच्छा मिल जाय!"कहते-कहते उसकी आँखें भर आयीं। उनमें कई सपने तैर रहे थे। जीवन भर मेहनत कर बच्चों का भविष्य सँवारा। हर रात की सुबह ज़रूर होती है; इतना तो सपना देख ही सकती थी वह। सिल पर पिसी मेहंदी कटोरी में भरकर लायी थी, "ई लगा लो बीबीजी। अपने घर के पीछे के बाड़े से तोड़कर खूब रगड़ कर महीन पीसा है, लगा लो, खूब रचेगी, जल्दी छूटेगी नहीं।"

"अच्छा! ज़रूर लगाऊँगी।"

ख़ुशी से चहक रही थी वो, "अपनी झगड़ालू लड़की की शादी भी खोज रही हूँ। साथ ही दोनों के हाथ पीले कर दूँगी, ऐसी जगह जहाँ देवरानी-जेठानी न हो। नहीं बहुत किच-किच करेगी बीबीजी।"

मैं आश्चर्य से उसका मुँह ताकती रह गयी। कोई माँ अपनी बेटी के बारे में इतनी समझ रखती हो अनपढ़ होकर भी! लेकिन समझदार है, ग्वालिन! मस्त चाल, माथे पर चवन्नी भर बिंदी लगाए, झाग भरी दूधों की बाल्टी लिए चली जा रही थी।

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