बचपन
काव्या मिश्रा
कुछ हँसाया कुछ रुलाया,
बाक़ी दोस्तों से वफ़ादार है पर,
काफ़ी साथ निभाया।
छ्म छम बारिश बरसी,
तो सावन का झूला झुलाया।
गर्मी की छुट्टी के साथ
नानी-नाना का लाड़ भी लाया।
नई किताबों की ख़ुशबू में,
ख़ुशियाँ मुझे ढूँढ़ना सिखलाया;
और माँ के हाथों की रोटी में,
दुनिया भर का स्वाद चखाया।
थोड़ी देर से ही सही,
जाना दूर उसे भी ज़रूर था,
मजबूरियाँ रही होंगी कुछ शायद,
वरना जाने का शौक़ तो
उसे भी नही था।
लुक्का छुप्पी का खेल समझकर
जा बैठा जाने किस कोने में!
मैंने भी एक बार ना ढूँढ़ा,
लगी रही बड़ी होने में।
इक दिन मिला भागता हुआ;
अलमारी में रखे
पुराने खिलौनों के बीच
छुप गया कहीं।
अर्सों तक ढूँढ़ने पर जो पकड़ा मैंने;
बोला,
"तुम्हें ही तो बड़ी जल्दी थी बड़े होने की।"
भारी आँखों से मैं मुस्काई;
गले लगाकर बोली–
बचपन, अरे कहीं तू
मेरा खोया हुआ बचपन तो नहीं?