बाल-साहित्य का उद्भव और विकास

03-01-2016

बाल-साहित्य का उद्भव और विकास

डॉ. यदुनन्दन प्रसाद उपाध्याय

साहित्य समाज का दर्पण होता है। प्रत्येक साहित्यिक विधा तत्कालीन परिस्थितियों की उपज होती है। हिन्दी साहित्य का क्षेत्र विस्तृत और विविधता लिए हुए है। जो समाज के अनेक रूपों को परोसता आ रहा है। बाल-साहित्य भी कोई नया विषय नहीं है। बाल साहित्य हमारे यहाँ मौखिक रूप में सदियों से रहा है। दादी-नानी तरह-तरह की कहानियाँ सुनाती थीं और हमारे रूठने का कारण एक यह भी होता था। कभी कोई दिन ऐसा न था जब कहानी नानी नहीं कहतीं। बाल-साहित्य का जन्म उसी कहानी की कोख से हुआ है। बाद में थोड़ा परिवर्तन हुआ। पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानी "सिंहासन बत्तीसी" और "वेताल पच्चीसी" की कहानी भी बच्चों के बीच आने लगी। जातक कथाएँ इसी के अंतर्गत हैं। बाल साहित्य की लिखित परम्परा में अमीर खुसरो से इसकी शुरूआत मानी जा सकती है। खुसरो की कुछ मुकरियाँ और कुछ पहेलियाँ बाल मनोरंजन और उन्हें कुछ सिखाने क उद्देश्य से भी लिखी गईं। इसीलिए खुसरो को "बीज-बाल साहित्य लेखक" कह सकते हैं।

मध्यकाल में सूर और तुलसी ने बाल-साहित्य को व्यापक रूप प्रदान किया। तुलसी में कम तो सूर के सम्पूर्ण काव्य में बाल मनोविज्ञान की नानाविध झाँकियाँ दृष्टित होती हैं। बालक की विविध चेष्टाओं और विनोदों के क्रीड़ा स्थल, मातृ हृदय की अभिलाषाओं, उत्कंठाओं और भावनाओं के वर्णन में सूरदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि ठहरते हैं। उनके पदों की यह विशेषता है कि उनको पढ़कर पाठक जीवन की नीरस और जटिल समस्याओं को भूलकर उसमें मग्न हो जाता है। तुलसीदास के "रामचरित मानस" में पहला कांड भी "बालकाण्ड" ही है। वहाँ एक प्रसंग आता है कि एक दिन राजा दशरथ भोजन करने बैठते हैं और साथ में खाने के लिए राम को बुलाते हैं। राम नहीं आते हैं। बच्चों के साथ खेल में लीन हैं। कौशल्या की एक आवाज़ में खेलना छोड़कर दौड़ कर आ जाते हैं। पंक्तियाँ हैं- "भोजन करत बोलावत राजा। नहीं आवत तजि बाल समाजा॥ कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकि-ठुमकि प्रभु चलहिं पराई॥" हम कह सकते हैं, बालक के लिए कोई राजा नहीं होता, वह स्वयं अपने मन का राजा होता है। बड़ी-से-बड़ी बादशाहत भी उसकी तोतली बोली और निश्छल किलकारी पर नत मस्तक हो जाती है।

रीतिकाल पक्का शृंगार काल है केवल भूषण और सूदन को छोड़ कर। परंतु बाल-साहित्य की दृष्टि से समस्त रीतिकाल कवि सूरदास (अंधे) सिद्ध हुए। उनकी दृष्टि नायिका के नवयौवन ने छीन ली और उन्हें घोर शृंगारी बना दिया। इसीलिए शृंगार रस की प्रधानता के कारण रीतिकाल को कुछ आलोचक शृंगार काल भी कहते हैं। कुछेक कवि भी यदि सूर और तुलसी की बाल-काव्य परंपरा को बढ़ाते रहते तो शायद रीतिकाल पर वे शृंगार के एकछत्र राज का आरोप नहीं लगता।

भारतेन्दु युग में ख़ुद भारतेन्दु ने "अंधेर नगरी" नामक प्रहसन लिखा, जिसमें बच्चों की बचकानी दुनिया का कुछ अंश देखा जा सकता है। राजा लक्ष्मण सिंह का "बालक भरत" नाटक भी इस नए प्रयास में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। "सबसे बड़ा काम तो फ्रेडरिक पिंकाट ने किया। इंग्लैण्ड में बैठे-बैठे हिन्दी में किताब लिख रहे थे वह भी बच्चों के लिए, चार भागों में। "बाल दीपक" नाम से उन्हीं की किताब उस समय बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। "बाल दीपक" की चर्चा आज भी होती है। बेताल पच्चीसी और सिंहासन बत्तीसी के साथ-साथ पंचतंत्र और हितोपदेश का अनुवाद भी बालकों को रुचि के साथ पढ़ने का अवसर दिया।"1

द्विवेदी युग में मैथिलीशरण गुप्त ने "सरकस" नामक कविता लिखी जो बहुत प्रसिद्ध हुई। स्वयं द्विवेदी जी भाषा को प्रावहमयी बनाने के साथ-साथ भावों की सरलता और सरसता के पक्ष में क़लम-क़लम चलाने लगे। ताकि बड़ों के साथ-साथ बच्चे भी साहित्य को अपने जीवन का अंग बना सकें। बाल साहित्य के क्षे़त्र में सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम अति महत्त्वपूर्ण है। उनकी जो कविताएँ कभी हमने पाँचवीं-छठवीं में पढ़ी थीं वे आज भी उतनी ही ताज़ा और प्रासंगिक हैं। कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -

"यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे
दे देती यदि मुझे बाँसुरी यह दो पैसे वाली
किसी तरह नीचे हो वह कदंब की डाली।"

इसी तरह एक दूसरी कविता भी बालक मन को केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। कुछ अंश प्रस्तुत हैं -

"बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी।"

इतनी मार्मिक अभिव्यक्ति अन्यत्र दुर्लभ है। वे अल्पकाल में ही विपुल साहित्य सृजन कर गयी हैं। उनका काव्य सूरदास जी की तरह वृद्ध को भी बालक बनाकर छोड़ता है। वे महान थीं। उनके बारे में डॉ. बच्चन सिंह लिखते हुए कहते हैं, "घटेल कविताओं में मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी भी काफी लोकप्रिय है। इतना सहज महत्त्व और ऋजु वात्सल्य आधुनिक कविता में मिलना अत्यंत दुर्लभ है।"2

आधुनिकाल का सर्वोत्तम आविष्कार गद्य का विकास है। गद्य लेखन जब अपने अस्तित्त्व और प्रभाव में आया तो प्रेमचंद ने भी ढेरों कहानियाँ एवं उपन्यास लिखे और अनुदित किये। साहित्यकार को वर्ग-चरित्र का ज्ञान होना ज़रूरी है। बिना उसकी पहचान के उस पर क़लम चलाना दही में मूसर देना है। प्रेमचंद अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक हैं। उनका ध्यान बालक वर्ग पर विशेष तरह से था। उन्होंने "दुर्गादास" नामक पहला उपन्यास लिखा जो मूल रूप से बाल-बालिकाओं के लिए ही लिखा गया था। उनका मानना था कि "बालकों के लिए राष्ट्र के सपूतों से बढ़कर उपयोगी साहित्य का कोई दूसरा अंग नहीं है। इससे उनका चऱित्र ही बलवान नहीं होता, उनमें राष्ट्र प्रेम और साहस का संचार होता है।"3

प्रेमचंद ने बच्चों को केन्द्र में रखकर कई कहानियाँ लिखीं। "ईदगाह", "बड़े भाई साहब", "गुल्ली डण्डा", "रक्षा में हत्या", "बूढ़ी काकी" आदि। प्रेमचंद जानते थे कि एक बेहतर जीवन की शुरूआत बचपन से ही होती है। गुलेरी जी की कहानी " उसने कहा था" में भी बाल-मनोविज्ञान का आंशिक रूप देखने को मिलता है बल्कि बचपन की सहजता और लापरवाही से ही कहानी शुरू होती है। जो हिन्दी की पहली स्वप्न शैली में लिखी गयी कहानी है।

बालक की ज़िंदगी को आधार बनाकर लिखा गया हिन्दी का सबसे पहला सफल और कलात्मक उपन्यास है- मन्नू भण्ड़ारी कृत "आपका बंटी"। सुशिक्षित आधुनिक पत्ति-पत्नी के अहं के टकराव से तनाव और फिर संबंध-विच्छेद। बण्टी का स्थितियों में पिसते जाना और अकेले पड़ जाना इसी प्रक्रिया का अंग है। पत्ति-पत्नि की परस्पर वैमनस्यता की मार बण्टी को झेलनी पड़ती है। निर्मल वर्मा कृत "लाल टीन की छत" में किस तरह एक अबोध बच्ची अपनी निश्छलता के कारण गहन यातना और अकेलेपन की शिकार हो जाती है। अज्ञेय कृत "शेखरः एक जीवनी" उपन्यास में शेखर वह बालक है जो ख़ुद से अपने जीवन को विस्तार देने में लगातार संघर्ष करता है। रमेश चंद्र शाह कृत "गोबर गणेश" में विनायक के ज़रिए बालकों की इच्छा-आकांक्षाओं को लेखक ने बख़ूबी प्रस्तुत किया है उन्हीं का एक अन्य उपन्यास "किस्सा गुलाम", जिसमें एक दलित बालक कुंदन जो बौद्धिक स्तर पर बहुत आगे पहुँच जाता है लेकिन संस्कारों की गुलामी उसका पीछा नहीं छोड़ती। अपनी साहित्यिक सीमा में यह भी बालोपयोगी है। वर्तमान साहित्य जगत् में हरिकृश्ण देवसरे, श्रीप्रसाद, विनायक ही उनकी मनोदशा को बड़ी निर्भीक और निश्छल वाणी में चित्रित किया है।

आज समय बड़ी तेज़ी से बदल रहा है। जिसका सर्वाधिक प्रभाव बच्चों पर है। कुछ लोगों का मानना तो यहाँ तक है, कि वर्तमान जगत् का बालक संस्कार-विहीन हो गया है। पर इस बात में कितनी सच्चाई है, यह जानने से पहले इस बात पर मंथन कर लेना समीचीन होगा कि उन्हें संस्कार-विहीन कर कौन रहा है? क्या हम उन्हें धर्म-कर्म, साहित्य-समाज, संस्कार और भाव-व्यंजना की शिक्षा देते हैं? क्या कभी भगवान राम, कृष्ण या किसी अन्य महापुरुष की जीवन या प्रेरक प्रसंग बच्चों को सुनाते या उन पर अमल करने के लिए बल देते हैं? क्या हमने कभी जानने की इच्छा की कि वह किस मानसिकता को धारण करता है और उसकी दिशा क्या है? नहीं। केवल बड़े स्कूल या कॉलेज-कोचिंग में दाखिला दिलवाने से बच्चे राम-कृष्ण-गाँधी-गौतम और विवेकानंद नहीं बन सकते, जब तक कि हम ख़ुद में संस्कार डालकर बच्चों के हृदय की थाली में नहीं परोसेंगे। आज का बालक तकनीकी मस्तिष्क का हो गया है, जो शरीर और हृदय से रोबोट या मशीन बन चुका है। अगर यह ऐसे ही चलता रहा, तो निश्चित ही वह दिन दूर नहीं कि रोबोट आपको और आपके समाज और संस्कृति को नष्ट कर देगा। और उसके ज़िम्मेदार हम होंगे न कि बच्चे।

साहित्य-जगत में बाल-साहित्य का बीड़ा अनेक लोगों ने उठा रखा है। परंतु उपयोगी साहित्य कुछेक लेखकों के प्रतिफल का ही परिणाम है। बाल साहित्य के प्रति हमारी उदार और सकारात्मक सोच भी इस दिशा में किए गये प्रयासों की परम्परा को प्रवाहशील बना सकती है। बाल-साहित्य के श्रेष्ठ रचनाकारों की रचनाओं का कलेक्शन होना चाहिए। बालक, चंपक, नंदन, चंदा मामा, किशोर-प्रभात जैसी पत्रिकाओं में अब तक जो बाल साहित्य पर काम हुए उनको संग्रहीत कर गाँव-शहर, स्कूल-स्कूल तक सस्ते दामों में उपलब्ध कराना चाहिए। "पराग" जैसी पत्रिका को हम नहीं भूल सकते हैं। बाल साहित्य का क्षेत्र व्यापक हो इसके लिए ज़रूरी समय-समय पर परिचर्चा, संगोष्ठी और सेमिनार भी हों। तभी जाकर बालक और बाल-साहित्य समृद्ध होगा।

यदुनंदन प्रसाद उपाध्याय (शोधार्थी)
जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र)

संदर्भ ग्रंथ -

1. आजकलः बाल साहित्य-परम्परा और आधुनिकता बोध (विजय शंकर मिश्र) (पृष्ठ. क्र. 11 )
2. आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास डॉ. बच्चन सिंह (पृष्ठ-क्र-270)
3. मुशी प्रेमचंद कृत दुर्गादास उपन्यास की भूमिका से उद्धृत

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