अस्पृश्यता के कट्टर विरोधी पं. गोविन्द बल्लभ पंत

06-09-2016

अस्पृश्यता के कट्टर विरोधी पं. गोविन्द बल्लभ पंत

विभा खरे

जयन्ती (10 सितम्बर) पर विशेष:-

पं. गोविन्द बल्लभ पंत जी का जन्म 10 सितंबर 1887 ग्राम खूंट, जिला अल्मोड़ा उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री मनोरथ पंत तथा माताजी का नाम श्रीमती गोविन्दी था। पंत जी ने सन् 1923 में रामसे कॉलेज अल्मोड़ा से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। पंत जी की जीवन यात्रा बड़े सामान्य ढंग से प्रारम्भ हुई। रामसे कॉलेज की भाषण प्रतिस्पर्धा में वे सबसे आगे रहते थे, तत्पश्चात क़ानून का अध्ययन पूरा करने के बाद वे वकील बने। इसी अवधि में वे समाज सेवा की ओर अग्रसर हुए और "कुमाऊँ परिषद" की स्थापना की। इसके बाद वे उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गए जब 1937 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, तो कांग्रेस के नेताओं को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए बेहतर व्यक्ति नहीं मिला। बाद में पुनः वे 1946 से 1954 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। उसके बाद मृत्युपर्यन्त वे भारत सरकार के गृहमंत्री रहे।

क़ानून की शिक्षा पूरी करने के बाद पं. गोविन्द बल्लभ पंत ने अपना वकीली जीवन का प्रारम्भ प्रख्यात अधिवक्ता पं. मोतीलाल नेहरु के सहायक के रूप में किया। पं. मोतीलाल जी इस युवा अधिवक्ता की विलक्षणता, तर्कशक्ति तथा भाषण शैली से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। उन्होंने निरानुभवी पंत को "काकोरी-षड़यंत्र" मामले में क्रान्तिकारियों का वकील बनाया जिसे कुशलता से उन्होंने क्रान्तिकारियों की वकालत की, उसकी प्रशंसा तेज बहादुर सप्रू तथा मोतीलाल नेहरु जैसे दिग्गज अधिवक्ता ने मुक्त कंठ से की, एक प्रतिभाशाली अधिवक्ता के रूप में उन्होंने अपने आगमन का संकेत दिया।

30 नवम्बर 1928 को साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन करते हुए पंत जी पर पुलिस ने बेरहमी से लाठी प्रहार किया था। इस कमीशन के विरोध में लखनऊ में एक विशाल जुलूस निकाला गया था, जिसका नेतृत्व नेहरुजी और पंत जी ने किया था। पुलिस ने जुलूस को भंग करने के लिए इन दोनों पर बर्बरतापूर्ण लाठी प्रहार किया। ऊँचे क़द के पंतजी ने छोटे क़द के नेहरु जी को बचाने के लिए अपने ऊपर लाठियों के प्रहार सहे। नेहरु जी के शब्दों में - "मेरा शरीर लाठियों के प्रहार के निशान और घावों से भरा पड़ा था, लेकिन मेरे साथियों का हाल मुझसे कहीं अधिक ख़राब था," छः फीट से अधिक ऊँचाई वाले गोविन्द बल्लभ पंत ने पुलिस के क्रूर लाठी प्रहारों को बड़ी हिम्मत और निड़रता के साथ सहन किया, परंतु इन प्रहारों के फलस्वरूप वह एक ऐसी लाइलाज और कष्टदायक व्याधि के शिकार हो गए, जिसने उनका पीछा आजीवन नहीं छोड़ा और सदैव गर्दन में कष्ट होता रहा। इस घटना के बाद पंतजी को अद्भुत साहस और देशभक्ति का प्रतीक माना जाने लगा। उनकी ख्याति उत्तर प्रदेश की सीमाओं को लाँघकर सारे देश में फैल गई। बाद में जब वे केन्द्रीय एसेम्बली के लिए चुने गए तो कांग्रेस दल का उप प्रधान नियुक्त किया गया। मधुर एवं प्रवाही भाषा के स्वामी, प्रभावशाली वक्ता, जो अपनी सहज तथा कर्णप्रिय शैली से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने में समर्थ थे, पंतजी ने शीघ्र ही एसेम्बली में अपनी धाक जमा दी, तीसरे दशक में वह सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में अंग्रेज़ सरकार की दमनकारी नीतियों के बारे में सबसे अधिक बार बोले, एक बार तो, उन्होंने लगातार पाँच घण्टे तक बोलकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया।

\वाद-विवाद में पंत जी बेजोड़ थे। उत्तर प्रदेश विधान सभा में सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में उनके समान असरदार ढंग से विवाद करने वाला दूसरा वक्ता न था। इस केन्द्रीय विधान सभा में पंत जी ने स्वयं को उच्च कोटि के विख्यात सांसदों के बीच पाया। वे संसदीय कार्य प्रणाली में निपुण थे। हाज़िर जवाबी में तथा व्यंग्योत्तर देने में उनका जवाब नहीं था। ऐसे दिग्गज सांसदों के बीच भी पंत जी ने अपनी अलग पहचान बनाई और एक दक्ष सांसद के रूप में प्रसिद्ध हुए। राजनीतिज्ञों के साथ पंत जी संसद की कार्यवाही को अत्यन्त सजीव बनाए रहते थे, विशेष रूप से उस काल को जो प्रश्नोत्तर काल में माना जाता है।

पंत जी सभी संसदीय विषयों में निपुण थे, परंतु आर्थिक विषयों पर उनके भाषण दर्शाते थे कि उन विषयों की उनकी जानकारी कितनी व्यापक और गहरी थी, बजट के अवसर पर वह जो भाषण देते थे उसकी सराहना स्वयं सरकार भी करती थी। गंगा के शान्त और सतत् प्रवाही जल का जो प्रभाव दर्शकों पर पड़ता है, वैसा ही प्रभाव उनके बजट की सटीक टिप्पणियों का होता था। पंत जी जो कहते थे उसका प्रभाव सरकार पर अवश्य पड़ता था, फलतः सभी उन्हें वित्तीय विषयों के निर्विवाद विशेषज्ञ मानते थे, विशेष रूप से सार्वजनिक अर्थव्यवस्था पर उनके मत को बड़े आदर के साथ सुना जाता था।

1936-37 के चुनावों में कांग्रेस दल ने भारी बहुमत से विजय प्राप्त की। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और पंत जी को राज्य का पहला प्रधानमंत्री (उन दिनों राज्य के मुख्यमंत्री को राज्य का प्रधानमंत्री ही कहा जाता था) बनने का असाधारण गौरव प्राप्त हुआ। जिस दूरदर्शिता, प्रशासकीय क्षमता से उन्होंने सरकारी प्रशासन का संचालन किया उससे यह सिद्ध हो गया कि वह एक जन्मजात प्रशासक थे।

सन् 1946 में जो चुनाव हुए उसमें कांग्रेस पार्टी पुनः विजयी हुई और पंतजी एक बार पुनः उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इसी वर्ष इन्हें संविधान परिषद का सदस्य बनाया गया। उनकी गिनती प्रमुख संविधान निर्माताओं में होती है। इस प्रसंग में उनके द्वारा सुझाए गए तीन महत्वपूर्ण प्रस्तावों को संविधान में स्थान मिला और इनके इस विशिष्ट योगदान ने संविधान को एक निश्चित आकार और रूपरेखा प्रदान करने की सहायता की। उत्तर प्रदेश में स्वाधीनता के बाद कृषि क्षेत्र में जो क्रान्तिकारी सुधार हुए उसका आधार भी वह रिपोर्ट थी जो "पंत कमेटी रिपोर्ट" के नाम से जानी जाती थी। और जिसे उन्होंने 1937 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस समिति को उसके अनुरोध पर प्रस्तुत किया था। समिति ने इन सुधारों की सिफ़ारिश करने के लिए उनके नेतृत्व में "कृषि सुधार समिति" की स्थापना की थी।

मुख्यमंत्री के रूप में श्री पंत जी ने सन् 1939 में 300 परिच्छेदों वाला "उत्तर प्रदेश काश्तकारी क़ानून" विधान सभा द्वारा पारित कराया। इस क़ानून से राज्य के किसानों में भूधारण अधिकार और सुरक्षा प्राप्त हुई। उनका उचित लगान निश्चित किया गया और ऐसे अनेक कर समाप्त कर दिए गए जो किसानों के लिए असहनीय थे। इसके अलावा पंत जी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश, देश का पहला राज्य बना, जिसने शिक्षा के प्रसार तथा हरिजन कल्याण को ठोस रूप देने वाली अनेक योजनाओं का भी श्री गणेश किया। ग्रामीण विकास के वे सब कार्यक्रम जिनकी घोषणा चुनाव से पूर्व कांग्रेस ने की थी, भी आरम्भ किए गए। इस दिशा में पहल करने में भी उत्तर प्रदेश अन्य सभी राज्यों से आगे रहा।

पं. जवाहरलाल नेहरु, सरदार पटेल के निधन के बाद से ही पटेल जैसी क्षमता और दृढ़ता वाले गृहमंत्री की खोज में थे, चारों ओर नज़र दौड़ाई लेकिन उन्हें इस पद के लिए पंतजी से अच्छा व्यक्ति नहीं मिला। गृहमंत्री के रूप में भाषाई आधार पर राज्यों का पुनगर्ठन का कार्य पंतजी के कार्यकाल में सम्पन्न हुआ था। इस कार्य के दौरान उन्हें विभिन्न वर्गों के आवेगों और भावावेशों का, जो परस्पर विरोधी थे, भी सामना करना पड़ा था। मौजूदा इकाइयों के टूटने और नई इकाइयों के बनने से अनेक ऐतिहासिक स्मृतियों का मिटने पर मजबूर होना पड़ा और यही अनेक राज्यों के बीच भावात्मक संघर्ष का कारण बना। गृहमंत्री के रूप में, राज्यों के पुनर्गठन के समान ही एक और विशिष्ट समस्या का सामना भी पंत जी को ही करना पड़ा था। ग़ैर हिन्दी राज्यों से हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृति दिलाने में उन्होंने जिस उच्च कोटि की राजनीतिज्ञता का परिचय दिया वह सदा याद की जायेगी। यह पंत जी की कूटनीति का ही परिणाम था कि असम, पंजाब और केरल राज्यों में गहराते राजनीतिक संकट, जातीय दंगों तथा भाषाई दंगों पर पार पाकर उन्होंने एकीकरण की प्रक्रिया को जारी रखा और उसे इन दंगों तथा संकटों से प्रभावित नहीं होने दिया।

जब उन्होंने गृहमंत्री का कार्यभार सँभाला था, तब मणिपुर और नागालैण्ड राज्यों में घोर अशान्ति छाई हुई थी, लेकिन पंत जी ने आते ही दोनों राज्यों में स्थायी शान्ति स्थापित करवा दी। उनके कुशल नेतृत्व में ही ज़मींदारी प्रथा समाप्त हुई। ग्राम पंचायतों की स्थापना हुई, अस्पृश्यता को अवैध घोषित किया गया और जन कल्याण की अनेक विकास योजनाओं ने जन्म लिया। केन्द्रीय गृहमंत्री बनने के बाद पंतजी ने उत्तर प्रदेश के अस्पृश्यता उन्मूलन क़ानून के अनुरूप एक विधेयक संसद में भी पेश किया, जिससे प्रेरित हो जाने के बाद अस्पृश्यता का पालन करने वाले को अपराधी माना जाने लगा, वे अस्पृश्यता के कट्टर विरोधी थे। इसी विधेयक पर बहस के दौरान उन्होंने कहा था, "अस्पृश्यता मात्र हिन्दु धर्म पर एक कलंक ही नहीं, उसके कारण विघटनकारी शक्तियों को बल मिलता है और जातिवाद को बढ़ावा मिलता है। हमारी अनेक सामाजिक बुराईयों की जड़ में अस्पृश्यता ही है"।

आज़ादी के बाद कांग्रेस के नेताओं के पथ प्रदर्शक की अहम् भूमिका भी पंत जी को निभानी पड़ी। उनका कार्य इसलिए कठिन था कि उन्हें देश की जनता को ऐसे नए पंथों पर अग्रसर करना पड़ रहा था, जिनकी जानकारी स्वयं उन्हें भी नहीं थी या बहुत कम थी। पंत जी ने अपनी पथ प्रदर्शक की भूमिका को बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ यशस्वी ढंग से निभाया और इस प्रकार देश को प्रगति के मार्ग पर ले जाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके इस महत्वपूर्ण योगदान की प्रशंसा सभी इतिहासकारों ने की है। पं. गोविन्द बल्लभ पंत जी का स्वर्गवास 7 मार्च सन् 1961 को हुआ था। ऐसे महान व्यक्ति को शत्-शत् नमन्।

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