अपने शहर को

10-07-2014

अपने शहर को

भानु प्रिया

एक डर चारों ओर से घेरता है उसे जब
आसपास के माहौल को देखती है वह
समय रुकता नहीं
नदी में आई बाढ़ की तरह
सब कुछ ठेलता चला जाता है।
वह फिर भी
प्रकृति से कुछ रंग चुराकर
अपने शहर के अस्तित्व को नये रंग देने की
असफल कोशिश करती है
लेकिन हर बार की तरह कोई न कोई
प्रदूषित रंग उसकी कोशिश को अँगूठा दिखा कर
उसकी नसों में घोल जाता है एक अजीब सा रंग
जिसकी पहचान किसी के पास नहीं होती है
तब सहम जाती है वह अपने शहर के साथ
वह फिर भी एक कोशिश करती है अपने शहर को
भूतहा होने से बचाने के लिए
अपनी हथेली में फैली लकीरों के मध्य
खड़ा करती है एक नई सोच का महल
ताकि मौत के भयावह होते स्वरूप को
ढकेल सके अनाम घाटियों की ओर
और छू सके शहर की
उन तमाम रूहों को जो
अपने समय की पहचान बनने से पहले ही
कहीं छिप गयी थीं
जिनकी खोज में वह
तमाम कोशिशों को उनके पीछे लगा दिया था
ताकि वह अपने शहर के
सुन्दर सपनों को
नये सिरे से पल्लवित कर
उसको नया विस्तार दे सके।

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