अनोखी चाहत 

01-12-2019

अनोखी चाहत 

आरती 'पाखी' (अंक: 145, दिसंबर प्रथम, 2019 में प्रकाशित)

मई का महीना था। गर्मी के असहनीय दिनों की शुरूआत हो गई थी। आसमान से सूरज मानो आग के गोलों की बौछार कर रहा था। आजकल तो मौसम भी बहुत आलसी-सा जान पड़ता था। गर्मी के ये दिन अक्सर यूँ ही बीतते थे, हर तरफ़ सन्नाटा केवल साँय-साँय करती गर्म हवा। मेरा गला भी प्यास के मारे सूखा जा रहा था। पास में ही एक ढाबा थ॥ गर्मी के क़हर से बचने के लिए और अपनी प्यास को शांत करने के लिए मैं उस ढाबे के भीतर चला गया।

मैंने अपना बैग उठा कर टेबल पर पटक दिया, जैसे कि अब मेरा उससे कोई नाता न हो। और कुर्सी पर बैठ कर कुछ गर्मी की झुँझलाहट से परेशान होते हुए वेटर को आवाज़ दी - "वेटर, एक ठंडी कोल्‍ड ड्रिंक की बोतल और समोसा ले आओ।"

दिन भर के काम की वज़ह से मेरा शरीर थक चुका था, ऊपर से इस असहनीय गर्मी ने तो मानो मेरे होश उड़ा दिए थे।

ढाबे पर काम करने वाले एक वेटर ने मुझे ठंडे पानी का गिलास ला कर दिया। पानी के ठंडे और बड़े-बड़े घूँट के साथ ऐसा जान पड़ता था, जैसे मेरे अन्‍दर की ज्‍वाला भी शान्त होती जा रही है।

पानी पीने के बाद मैंने उस वेटर को धन्यवाद कहा और उसको फिर से कहा, "मुझे समोसा और कोल्ड ड्रिंक भी चाहिए।" 

उसने मुझे मुस्कुरा कर देखा और सर हिला कर बिना कुछ कहे मेरा ऑर्डर लेने चला गया। मेरी बगल वाली बेंच पर कुछ कॉलेज के बच्चे भी आ कर बैठे हुए थे, जो कि अपनी ही अलग धुन में थे। किसीको आस-पास बैठे लोगों से कोई मतलब नहीं। वेटर मेरा नाश्ता ले कर आ ही रहा था कि उस टेबल पर बैठे एक बच्चे ने मज़ाक के मूड में आ कर अपने पैर आगे कर दिए और वो वेटर समोसे की प्लेट लिए हुए ही नीचे गिर गया।

"वाह संदीप भाई! आपने तो कमाल कर दिया, इतने देर से बैठे-बैठे बोर हो रहे थे, आख़िर तुमने कुछ माहौल बना ही दिया," रमेश ने संदीप को कहा।

संदीप ने शेखी बघारी, "अरे हाँ भाई! इन लोगों को काम तो करना आता नहीं है और चले है हमारी ख़िदमत करने।"

इतना सुनते ही उस टेबल पर बैठे सारे बच्चे बहुत ज़ोर से हँसने लगे।

अब तक ढाबे का मालिक आ चुका था। वह स्थिति का जायज़ा न लेते हुए तुरन्त ही वेटर पर चिल्लाया, "क्या बेवकूफ़ी है राजू, इतनी महँगी प्लेट तोड़ दी! ऊपर से ड्रेस ख़राब हुई वो अलग! और ये खाना बर्बाद करना भी तुम सीख गए हो। इसी वज़ह से तुम जैसे लोगों को खाना नसीब नहीं होता। चलो! अब जल्दी से यहाँ की सफ़ाई करो और हाँ! इन सबके पैसे तुम्हारे पगार से काटे जाएँगे। कुछ ज़्यादा ही खुला छोड़ रखा है मैंने नौकरों को जो दिन पर दिन मेरे सर पर चढ़ते जा रहे हैं. . .!"

वेटर सर झुकाए सारी बात सुनता रहा फिर बिना कुछ बोले उसने वो जगह साफ़ की और मुझे खाने का सामान ला कर दिया। वह देखने में यही कोई 20-22 का होगा, उसका क़द पाँच फ़ुट रहा होगा। वो देखने में बहुत ही दुबला-पतला‌ था। उसके चेहरे की हड्डियाँ भी उभर आईं थीं, पर उसकी आँखों और मुस्कान में कुछ रौनक़ ही थी कि जो लोगों को अपने और आकृष्ट करने में सहायक थी। दुबला-पतला होने के बाद भी उसके शरीर‌ में एक अलग ही चुस्ती‌-फुर्ती थी। शायद यही कारण था कि वो इतना कुछ हो जाने के बाद भी अपने काम को बेहद ख़ूबसूरती से करने की कोशिश कर रहा था। मेरे दिमाग़ से वो हादसा जा ही नहीं रहा था और मैं उस वेटर को ही देखे जा रहा था। मुझको घर जाने की जल्दी थी क्यूँकि माँ का फोन पर फोन आये जा रहा था। एक कॉल तो पापा की भी आ गई और जब मेरे पापा का फोन आता है तो फोन से ज़्यादा वाइब्रेट मैं होता हूँ। बिना और वक़्त ज़ाया किए मैं घर के लिए निकल गया।

अगले दिन अपने दोस्‍तों से मिलने के बाद मैं घर जा रहा था कि वही ढाबा रास्ते में पड़ा। न चाहते हुए भी  मेरे क़दम उस ढाबे की और बढ़े जा रहे थे। अंदर पहुँच कर मेरी आँखें केवल उस वेटर को ही ढूँढ़ रहीं थीं। मेरी आँखों को ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। मैं सीधा उसके पास पहुँचा और 2 कप चाय लाने के लिए बोला। वो, उस दिन की तरह आज भी मुझे देख कर मुस्कुरा दिया। सच कह रहा हूँ. . . उसकी हँसी गर्मी के मौसम में किसी ठंडी हवा से कम नहीं थी। बदले में आज मैं भी मुस्कुरा दिया और जा कर टेबल पर बैठ गया।

"साहब जी चाय," उसने आ कर कहा और मेरी टेबल पर ध्यान से देखने लगा।

"रख दो और बैठ जाओ," मैंने कहा।

"साहब जी, मैं?” उसने हैरानी से पूछा।

फिर मैंने थोड़ा हँसते हुए कहा, "और क्या भाई 2 कप चाय मँगवाई है, और माँ कहती हैं चाय का मज़ा तभी है जब कोई साथ मैं पीने वाला हो।"

"पर साहब जी मैं तो यहाँ पर काम करता हूँ, मैं ये चाय कैसे पी सकता हूँ?" वह झिझक रहा था।

"साफ़ बोल दो तुम मेरी चाय में कुछ मिला कर लाये हो, इसलिए नहीं पी रहे साथ में," मैंने उसकी चुटकी लेते हुए कहा।

इस बार उसके पास कोई चारा नहीं बचा; वो बैठ गया। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “आज से तुम मेरे चाय की तपेली वाले दोस्त।" वो इस बार भी सिर्फ़ मुस्कुरा दिया।

अब मैं उससे मिलने का आदी हो चुका था। मुझे जैसे ही थोड़ा समय मिलता उससे मिलने पहुँच जाता और ऐसा करते हुए आज पूरे चार दिन बीत गए। इन चार दिन की दोस्ती ने हमको ऐसा जोड़ दिया जैसे कि हम जन्मों के दोस्त हों!

आज भी रोज़ की तरह मैं चाय पीने के मक़साद से पहुँच तो उसने बिना बोले ही चाय बनाई और 2 कप चाय लेकर मेरे पास आ गया। हम चाय पी रहे थे कि मैंने उससे पहले दिन के वाक़ये के बारे में पूछा कि इतना कुछ हो जाने के बाद भी तुमको उन बच्चों पर ग़ुस्सा नहीं आया? अगर तुम्हारी जगह मैं होता तो सबसे पहले उन बच्चों को पकड़ कर पीट देता और अगर मुझे मेरा मालिक कुछ बोलता तो ये नौकरी ही छोड़ कर चला जाता।"

राजू पहले तो मेरी बात सुन कर मुस्कुरा दिया फिर सर नीचे करते हुए बोला, "अच्छा थोड़ी न लगता है मुझे भी इस तरह से, रोज़ हर किसी के ताने सुनना। पर सच बोलूँ दोस्त हालातों के हाथों मजबूर हूँ।”

"ऐसी भी क्या मज़बूरी यार! कि तुम अपना अस्तित्व ही भूल जाओ," मैंने कहा।

" नहीं, ऐसा कुछ नहीं है," राजू ने ठंडी साँस भरी।

"देखो अगर तुमको लगता है, मैं तुम्हारा अच्छा दोस्त हूँ, तो तुम मुझसे अपना दुःख बाँट सकते हो," मैंने कहा।

इस बार भी वो मेरी तरफ़ देख कर मुस्‍कुरा दिया पर आज उसकी मुस्कराहट रोज़ की तरह नहीं थी।

उसने एक लम्बी साँस ली और मुझे कहा, "शाम को सात बजे मिलना, तुमको कहीं ले कर चलना है। वहीं तुम्हारे हर प्रश्‍न का उत्तर मिल जायेगा।"

"ठीक है, शाम को मिलते हैं," मैंने कहा और वहाँ से चला आया।

आज मुझे बेसब्री से शाम सात बजे की प्रतीक्षा थी। वैसे तो ढाबा मेरे घर से दस मिनट की दूरी पर ही था पर मैं साढ़े छह बजे ही घर से निकल गया। आज मैं ढाबे के अंदर नहीं गया बाहर ही खड़ा रहा। थोड़ी देर में राजू बैग लिए बाहर आया।

"तुम तो समय के पाबंद आदमी निकले," राजू बोला।

"नहीं ऐसा नहीं है। बस आज न जाने कैसे समय से पहले पहुँच गया," मैंने कहा।

"अच्छा कोई बात नहीं, जल्दी चलो बस लेनी है।"

हम दोनों ने बस स्टैंड की तरफ़ बढ़े और जल्द ही बस आ गई और हम चढ़ गए।

अब हम बस से उतर चुके थे और पहुँच गए थे एक मोहल्ले में जहाँ हर तरफ़ बड़े-बड़े बँगले और बड़े-बड़े मॉल थे।‌ हम उन सबको पार करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। आख़िर इतना चलने के बाद मैंने पूछा, “यार हम जा कहाँ रहे हैं बता तो दो?"

राजू ने कहा, "बस कुछ दूर और फिर तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा।"

मुझको कुछ समझ नहीं आ रहा था आख़िर राजू के दिमाग़ में चल क्या रहा है, और आगे क्या होने वाला है. . .!

मैं बस उसके साथ क़दम मिलते हुए चलता जा रहा था। पता नहीं हम किस दिशा में जा रहे थे और अचानक हम उन बड़ी-बड़ी गलियों को छोड़ कर ऐसी जगह पहुँच गए, जहाँ आज तक मैंने क़दम नहीं रखा था। और न ही मुझको मालूम था कि इन बड़ी-बड़ी गालियों से होकर कुछ ऐसी तंग गलियाँ भी आती हैं जिनका अस्तित्व आज तक किसी को पता नहीं। अब हम चलते हुए बेहद छोटी गलियों से गुज़र रहे थे, जहाँ पर घर भी बिल्कुल पास-पास बने थे। गली के दोनों और नालियाँ थीं, जिन से बहुत भयंकर‌ बदबू आ रही थी। मैंने बदबू से बचने के लिए अपनी नाक पर हाथ रख लिया पर राजू तो ऐसे चल रहा था, जैसे वो महक उसकी नाक तक पहुँच ही न रही हो. . .!

अब हम चलते हुए रुक गए और एक घर के बाहर‌ खड़े हो गए। उस घर की हालत बहुत ख़राब थी। टीन की चादर पड़ी हुई थी और गंदगी भरी हुई थी,‌ हर तरफ़ मक्खियाँ भिन-भिना रही थीं। राजू के दरवाज़ा थपथपाया।

अंदर‌ से किसी स्त्री की आवाज़ आई, "आती हूँ।"

दरवाज़ा खुला और एक छोटी सी तेरह-चौदह साल की‌ लड़की ने दरवाज़ा खोला।

राजू ने उसे कहा, "पायल, जा माँ को बोल जल्दी से चाय बनाये, दद्दा आये हैं।"

पायल उसको देखकर मुस्कुराते हुए बोली, "अच्छा!"

हम घर के अंदर आये।‌ घर के अंदर का माहौल बाहर के माहौल से भी ज़्यादा दयनीय था।‌ घर में केवल एक कमरा था, उसी के एक कोने में चूल्हा जल रहा था। और पास में ही एक चरपाई पड़ी थी। जिस पर एक फटी चादर बिछी हुई थी। हम उस चारपाई पर बैठ गए। राजू की माँ हमारे लिए चाय बना रही थी और उसकी बहन हमारे लिए पानी का गिलास ले कर आ गई। मैंने पानी पिया।‌

मुझको कुछ समझ नहीं आ रहा था की राजू के दिमाग़ में क्या चल रहा है वो आख़िर मुझको क्या बताना चाहता है।

राजू बोला, "देख भाई ये है मेरा छोटा-सा संसार, और यहाँ के हम राजा हैं।” वो मुस्कुरा दिया और फिर बोला, “यहाँ पर मेरे जी मैं जो आता है करता हूँ, कोई बोलने‌ वाला नहीं है ।"

"अच्छा," मैंने कहा।

"और क्या यार बस इस दुनिया से बाहर निकल जाने के लिए ही मैं दिन-रात मेहनत करता हूँ। लोगों की बातों को सुन कर ‌भी अनसुना कर देता हूँ। क्योंकि मैंने सोचा है कि जो कुछ मैंने सह लिया वहाँ तक तो ठीक है, पर अब अपने भाई-बहन को वो सब सुनने नहीं दूँगा," राजू के स्वर में दृढ़ निश्चय की झलक थी।

मुझे उसकी बातें बहुत अच्छी लगीं। पहली बार एक ऐसे इंसान से मिला था मैं जो अपनी ग़रीबी पर रो नहीं रहा था, बल्कि उससे बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था। 

इस से पहले कि मैं उससे और कुछ पूछता वह बोला, "चल तुझे कुछ और भी दिखाना है।"

हम दोनों घर से बाहर आ गए। उसने 2-3 घर छोड़ कर एक दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा एक आदमी ने खोला और दरवाज़ा खोलते ही बोला, "राजू...!!!"

उसके मुँह से बहुत गन्दी बदबू आ रही थी, और उसके शरीर से भी। हम उससे पाँच क़दम दूर खड़े थे, तब भी हमको बदबू आ रही थी।

मेरा वहाँ पर खड़ा होना भी भारी हो रहा था, और राजू उस घर मैं घुस गया। मजबूरन मुझे भी भीतर जाना पड़ा। अंदर घुसते ही और भी गन्दी बदबू का सामना करना पड़ा। ऐसा लग रहा था पूरे घर में शराब का छिड़काव किया गया हो। किसी तरह मैं ख़ुद को सँभाल कर बैठ गया। 

वो आदमी हमारे पास ही बैठ गया। राजू ने मेरा उससे परिचय करवाते हुए कहा, "इनसे मिलो, ये हैं पत्रकार, मिस्टर सतीश. . .।"

मैंने अचंभे के साथ राजू को देखा, उसने धीरे से मेरे कंधे पर हाथ रखा और मेरा हाथ दबा दिया। मैं जान चुका था कि अब राजू के मन में जो भी खेल था, खेल रहा था उसका वास्तविक प्रदर्शन मुझे करना था।

उस आदमी ने मुझे देखा और हाथ जोड़ कर बोला, "नमस्ते।"

बदले में मैंने भी हाथ जोड़ लिए। राजू ने पुनः बोलना शुरू किया, "ये हमारी बस्ती के बारे में लिखने आए हैं और जो सही से इनकी बातों का जवाब देगा, उसे उचित इनाम भी दिया जाएगा।"

मैंने चेहरे पर प्रश्नचिह्न लिए राजू को देखा। उसने धीरे से कहा, "पूछो दोस्त..."

मैं इन सबके लिए बिल्कुल तैयार नहीं था, पर अब मुझको ही सब सँभालना था। क्यूँकि मैंने ही राजू से उसकी पहचान ‌के बारे में बात‌ की थी और उसे चुनौती दी थी कि वो क्यों लोगों के ताने सुना करता है। पर मुझे बिल्कुल नहीं पता था कि मेरे प्रश्नों का उत्तर मुझे कुछ इस तरह से मिलेगा। 

मैंने भी राजू की‌ तरफ़ देखा‌ और पत्रकार का अभिनय करते‌‌ हुए बोला, "हाँ! मेरा नाम सतीश चौहान है, पेशे से पत्रकार हूँ। आज आप सबके बीच आपका साक्षात्कार लेने आया हूँ।‌ तो शुरू‌‌ करते हैं, ‌आप मुझे पहले अपना नाम बताइए?"

"मनोहर दास, नाम है मेरा," उसने कहा।

"अच्छा तो मनोहर तुम काम क्या करते हों?" मैंने पूछा।

"मोची का काम करते हैं,‌ हमारा मतलब जूते-चप्पल सी लेते हैं।"

"अच्छा, दिन का कितना कमा लेते हो?" मैंने पूछा।

"यही कोई ₹50/- ‌ तक," उसने कहा।

"यानी महीने के ₹1500 है न?"

"अरे, ‌का बात‌ करते हैं साहेब, लोगों के जूता रोजाना थोड़ी न टूटा करते हैं," उसने कहा।

"अच्छा, तो घर का खर्च कैसे‌ चलता है?" मैंने पूछा।

"अरे साहब खर्चा‌ चल‌ जाता है छह बच्चे‌ हैं मेरे; सब कमा लेते हैं," उसने कहा।

"अच्छा जब छह बच्चे हैं और कमाते भी हैं; तो फिर ऐसी जगह क्यों रहते हो?" मैंने पूछा।

"अरे साहब रेड‌‌ लाइट पर भीख माँगते‌ हैं। ‌बच्चे‌ से इतनी कमाई हो‌‌ जाती है कि घर चल सके, ‌और‌ मेरी बाटली आ जाए," इतना कह कर वो हँसने लगा। उसकी हँसी और भी भयंकर थी।

मैंने बात आगे बढ़ाते हुए पूछा, "जब तुम अपने बच्चों का पेट पाल नहीं सकते तो इतने बच्चे पैदा ही क्यों करते हो?"

"अरे साहब! अमीर लोग बच्चे पैदा करते हैं ये सोचकर कि वो बड़ा‌ होकर उनका उनका नाम करेगा। इसलिए उनके केवल एक-दो बच्चे होते हैं,‌ और हम सोचते हैं जितने ज़्यादा बच्चे उतनी ज़्यादा भीख," और वो फिर से ज़ोर से हँस दिया।

उसका उत्तर सुन कर मैं पूरी तरह से हैरान था। 

"अच्छा!” लम्बी साँस लेते हुए, थोड़ा रुक कर मैंने पूछा, “तो अपने बच्चों का दाख़िला सरकारी स्कूल में क्यों नहीं करवा देते; ‌वहाँ तो पैसे भी नहीं लगते, और आपका बच्चा पढ़ लिख कर अच्छा आदमी बन जाएगा। आप सब इस दलदल से बाहर निकल जाओगे।"

"न साहब जी न, ‌मेरा बच्चा जितना समय स्कूल में लगा कर आएगा‌,‌ उतने समय में तो काफ़ी भीख मिल जाएगी।” 

"और अगर हम आपके बच्चे को घर पर ही शाम को पढ़ाने आयें तब तो आपको दिक़्क़त नहीं होगी?" मैंने पूछा।

इस बार राजू ने प्रश्नचिन्ह लिए चेहरे से मेरी ओर देखा। मैंने अपनी बात आगे बढ़ाई, "मेरा विचार है कि हम एक संस्था आपके क्षेत्र में खोलेंगे और आपके बच्चों को शिक्षित करेंगे।"

"मेरे को कोई दिक़्क़त नहीं है साहब आप कर सकते हैं, लेकिन दिन में मेरे बच्चे वही करेंगे जो मैं कहूँगा।"

मैंने "हाँ" में सर हिलाया और राजू से कहा चलो। मैं और राजू चुपचाप घर से बाहर निकल आए।

राजू हैरान था, "ये क्या बोल कर आ गए दोस्त?"

मैं मुस्कुराया, "वही जो मेरे दिल ने कहा?"

राजू ने अपना संदेह प्रकट किया, “पर ये मुमकिन ही नहीं है।"

मैंने उसे समझाया, "देखो दोस्त मैंने सोचा है कि हम इस बस्ती के हर घर मैं जा कर उनके परिवार वालों को समझा कर आएँगे कि शिक्षा का क्या महत्त्व है। केवल भीख से गुज़ारा नहीं हो सकता है। उन्हें अपने लिए तुम्हारी तरह आगे बढ़ना होगा! समझे!"

"लेकिन तुम्हारी कोई सुनेगा क्यूँ भाई?" राजू बोला।

"हाँ! पता है ये काम आसान नहीं, इसलिए मैंने सच में एक संस्था खोलने का निर्णय लिया है, तुम साथ दोगे?"

"अच्छा! हाँ ज़रूर, पर ये काम बहुत मेहनत का है; यहाँ के लोग बहुत ज़िद्दी हैं," राजू बोला।

"कोई बात नहीं हम भी ज़िद्दी बन जाएँगे," और मैं हँस पड़ा।

"लेकिन दोस्त‌. . ." इससे पहले कि राजू कुछ बोलता मैंने उसकी बात काट दी। "हमारे इस काम से अच्छा ही होगा दोस्त और तुम चिंता न करो। कम से कम यहाँ की आने वाली पीढ़ी को तो सुधार ही सकते हैं। मेरा मतलब कि इनके बाप की दारू बेशक हम न छुड़ा पाएँ, पर सोचो हमारे इस काम से जब उनके बच्चे शिक्षित होंगे तो वो दारू नहीं पीयेंगे।‌ मतलब हम कितने सारे बच्चों को‌ ग़लत कामों से दूर रखेंगे, और वो शिक्षित होंगे तो किसी अच्छे रोज़गार में भी जा सकेंगे. . . समझे!"

अब राजू चुप था, मैं आगे बोला, "और पता है राजू अब कोई भी राजू अपने साथ ग़लत होने पर चुप नहीं होगा; उसका सामना करेगा।"

मेरे इतने बोलते ही राजू की आँखों में आँसू आ गए।‌ मैंने उसको‌ गले लगा लिया और हम दोनों की ही पलकें भीग‌ गईं।

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