आलोचना की वैचारिक दृष्टि

01-09-2021

आलोचना की वैचारिक दृष्टि

डॉ. शुभा श्रीवास्तव (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

पुस्तक: समकालीन रचनाशीलता की वैचारिकी
लेखक: मीना बुद्धिराजा
प्रकाशक: राहुल प्रकाशन, अहमदाबाद 
प्रकाशन वर्ष: 2020 

डॉ. मीना बुद्धिराजा की पुस्तक समकालीन रचनाशीलता की वैचारिकी अपने आप में एक अनोखी कृति है। यह कृति हिंदी साहित्य के सुधी पाठकों एवं शोधार्थियों के लिए उपयोगी पुस्तक है। यह पुस्तक गहन मानसिक परिपक्वता की माँग करती है क्योंकि किताब में भाषा और वैचारिक अवगुम्फन विचार करने को विवश करता है। भारतीय और पाश्चात्य विचारकों के विचारों का समावेश विचारात्मक विश्लेषण की माँग करता है। यह पुस्तक क्रमिक वैचारिक क्रम के अनुरूप है। मीना जी सबसे पहले इसमें साहित्य पर उसके पश्चात रचना और रचना प्रक्रिया पर चर्चा के बाद भाषिक परिदृश्य पर अपने विचार प्रस्तुत करती है विधाओं के समावेश के साथ मीडिया और रंगमंच पर चर्चा इस पुस्तक को अन्य पुस्तकों की श्रेणी से अलग करते हैं।

हम जब भी आलोचना की पुस्तक को पढ़ते हैं तो रचना की बदलती प्रक्रिया पर बहुत कम विचारकों ने अपने विचार रखे हैं। इस दृष्टि से इस पुस्तक में अनेक तथ्य अनेक चरण हमें देखने को मिलते हैं जो आलोचना में अपनी वैचारिक पैठ को मज़बूती से प्रस्तुत करते हैं। क्योंकि जब भी हम रचना प्रक्रिया की बदलती हुई प्रक्रिया के संदर्भ में चर्चा करते हैं तब अत्यधिक आवश्यक होता है कि समालोचक ने उस संदर्भ में कितना पढ़ा है। और जब हम पढ़ेंगे तभी बदलती रचना प्रक्रिया पर अपनी पुष्ट अभिव्यक्ति दे सकते हैं। बिना तुलनात्मकता के यह चर्चा संभव ही नहीं है। इस दृष्टि से इस पुस्तक को समृद्ध कहा जा सकता है जिसमें रचना प्रक्रिया की बदलती हुई प्रक्रिया पर सिर्फ़ मीना जी ने अपनी ही दृष्टि को पाठक के सामने नहीं रखा है बल्कि पाश्चात्य विचारकों तक भी वह भ्रमण करती है। आज आलोचना के क्षेत्र को कुछ लोगों ने बहुत सीमित कर दिया है। आलोचना के नाम पर रचनाकारों और रचनाओं के प्रशस्ति गान की परंपरा बन पड़ी है परंतु यह पुस्तक प्रशस्तिगान की परंपरा से भिन्न है। इस पुस्तक में समकालीन परिदृश्य में साहित्य, उसका अर्थ, उसकी उपादेयता, रचना और उसकी विचारधारा, रचना की आधुनिकता, रचना का समकालीन यथार्थ क्या होना चाहिए और रचना प्रक्रिया का दौर कैसे बदलता चला जा रहा है इस पर विशाल एवं व्यापक तथ्य प्रस्तुत किया गया है। इस आधार पर हम देखें तो यह विशुद्ध रूप से आलोचना की पुस्तक है। इसमें रचना अथवा रचनाकार की प्रशंसा नहीं बल्कि वर्तमान समय में साहित्य की उपादेयता से संबंधित चर्चाएँ हैं। हमारा साहित्यिक दौर कैसे बदल रहा है इस बदलते दौर में रचनाकार कैसे उसमें अपना हस्तक्षेप कर रहा है कैसे रचनाकार अपनी रचना प्रक्रिया से पाठक से जुड़ रहा है इस जुड़ाव का विश्लेषण इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है।

किसी कृति का विश्लेषण करते समय जो सबसे पहली कसौटी मीना जी रखती हैं वह है मानवीय मूल्यों की कसौटी। कोई भी कृति मानवीय मूल्यों की कसौटी पर कहाँ पर खरी उतरती है यह सर्व प्रमुख और सर्वप्रधान विशेषता है। और सत्य भी है क्योंकि साहित्य अंततः मानव मूल्यों को बचाने का ही उपक्रम है इसलिए इन मूल्यों को बचाने में कृति कहाँ तक योगदान देती है कहाँ पर सफ़र करती है इसका निर्धारण करना समालोचना की सबसे पहली विशेषता होनी चाहिए। जो भी नकारात्मक है उसको हटाना और जो भी सकारात्मक है उसको साहित्य में समावेश करना की साहित्यिक की उपादेयता है। साहित्य वही है जो मनुष्यता को बचाता है और जो संपूर्ण वैश्विक परिदृश्य से हमें जोड़ता है और संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए सदैव प्रयत्नशील है।

परंपरा और आधुनिकता का सेतु बनाती यह पुस्तक अपने विश्लेषणात्मक विधान में अप्रतिम है। भाषा की धारा प्रवाहता इस पुस्तक को और अप्रतिम बनाती है। भाषा की वैचारिकता मीना जी की निजी विशेषता है जिसे अक़्सर पाठक क्लिष्ट समझ लेता है। जो भाषा वैचारिकता न प्रदान करें और जो आलोचना में वैचारिक विश्लेषण न प्रदान करें वह आलोचना में उत्कृष्ट नहीं कहा जा सकता है। वैचारिकता की दृष्टि से यह पुस्तक लंबे समय तक याद की जाएगी।

इस पुस्तक की एक ख़ास विशेषता यह है कि यह किसी भी विमर्श का पक्ष नहीं रखती है और ना ही किसी विमर्श को चलाने का बीड़ा उठाती है। यहाँ पर शुद्ध रूप से अस्मिता की तलाश है और उसे विमर्श का नाम कोई देना चाहे तो दे सकता है। इस पुस्तक में स्त्री के होने के नाते कहीं कोई तर्क वितर्क या चर्चाएँ नहीं है बल्कि विशुद्ध रूप से आलोचना है। इसमें अगर कहीं कोई बात कही भी गई है तो वह अस्मिता के संदर्भ में है ना कि स्त्री विमर्श के संदर्भ में या दलित विमर्श के संदर्भ में।

इस पुस्तक में मीना जी साहित्य कितना भविष्यगामी है और भविष्यगामी होने के कारण वह कितना उपयोगी है इस पर चर्चा करती है। कोई भी कृति क्या मूल्य देती है यह आलोचना का मुख्य बिंदु है जो इस पुस्तक में सर्वोपरि रूप में आया है। कृति की मूल संवेदना उसका केंद्रीय बिंदु, रचनाकार की संप्रेषण क्षमता, पाठक की समझ और सीमा रचनाकार तक पहुँच रही है कि नहीं यह मुख्य कथ्य बनकर उभरा है। 

समकालीन साहित्य के परिदृश्य को अगर हम देखें तो इसके संवेदनात्मक दृष्टि का जितना विस्तार हुआ है उसमें वैचारिकता और मनुष्यता के सरोकार समाहित हैं। आधुनिक समय 21वीं सदी में समाज संस्कृति मनुष्य की नियति मनुष्य की अस्मिता इत्यादि के प्रश्न वर्तमान समय में साहित्य में अपनी क्षमता के साथ अभिव्यक्त हुए है। आज की रचनात्मकता पर विचार व्यक्त करते हुए मीना जी कहती हैं—"आज की रचनात्मकता का तनाव स्वप्न और यथार्थ के बीच का नहीं है बल्कि उसे पूरा करने के संघर्ष का है! जिसके लिए मानवीय संवेदनाओं और क्रूरताओं का द्वंद्वात्मक समय इसके सामने उपस्थित है।"

समकालीन साहित्य में आलोचना की वैचारिकता की सत्ता को नकारा नहीं जा सकता है। वस्तुतः यह आलोचना के लिए सर्वाधिक आवश्यक है जो आज के आलोचकों में नहीं दिखाई देती है। इस पुस्तक में साहित्य के सैद्धांतिक और व्यावहारिक विमर्श के अनेक बिंदु बड़ी आसानी से पकड़े जा सकते हैं और उन्हें कृतियों की संवेदनाओं के समझने में भावानुकूल बड़ी सहजता से पिरोए जा सकते हैं।

विकल्प में कविता प्रथम अध्याय है जिसे पढ़कर आचार्य रामचंद्र शुक्ल की कविता क्या है का स्मरण अनायास हो जाता है। वह कहते हैं कि कविता वह साधन है जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है। मीना जी भी इसी विचारधारा की अनुयायी हैं। उनका मानना हैं कि—"कविता मनुष्य की अंतिम नहीं प्राथमिक ज़रूरत है। वस्तुतः मानवीय सच की सबसे विश्वसनीय अभिव्यक्ति कविता में ही संभव होती है।" 

कविता के संदर्भ में वह कहती हैं कि—"अस्तित्वगत उद्विग्नता आत्मरिक्तता और उदासी को कविता किसी कृत्रिम उपभोग से नहीं भरती, अपितु एक मुक्ति और समर्पण बनकर उसकी क्षतिपूर्ति बन जाती है।" कविता की इससे सार्थक और सुंदर व्याख्या और क्या हो सकती है कि कविता समर्पित भी होती है और उस रिक्तता को भी भरती है जो मनुष्य, पाठक, रचनाकार स्वयं अपने भीतर महसूस करता है। कवि और कविता को और स्पष्ट करने के लिए वह कुंवर नारायण के साथ पाब्लो नेरुदा के साथ विसलावा शिम्बोर्का को भी पाठकों के समक्ष ले आती हैं। इस प्रकार से कविता के संदर्भ में वह भारतीय एवं पाश्चात्य संदर्भों को एक सूत्र में पिरो कर के चलती है और तब तक उस पर चर्चा करती हैं जब तक की पाठक को पूरा परिदृश्य स्पष्ट नहीं हो जाता है।

पाश्चात्य और भारतीय विचारकों की सूत्रगत व्याख्या सिर्फ़ कविता के संदर्भ में नहीं बल्कि आगे भी वह प्रयुक्त करती चलती हैं। इसीलिए रचना और विचारधारा को स्पष्ट करते हुए वह प्रेमचंद्र के साथ फिदेल कास्त्रो ब्रेख्त को भी उद्धृत करती चलती हैं। हिंदी साहित्य के सुधी पाठकों के लिए इन सब को जानना और पहचानना अपने आप में अनूठा है।

अपने को किसी वाद से न जोड़ने की ख़ासियत मीना जी को समकालीन आलोचकों में एक पृथक पहचान देती है। वह अस्मिता विमर्श की पक्षधर हैं। वह कहती हैं कि—"अस्मिता विमर्श के नए वर्तमान दौर में जब वर्ण जाति लिंग और वर्ग के बंधन टूट रहे हैं और कई पुरानी अवधारणाएँ बदली हैं। लेखक भी अपने समय के प्रवाह और बदलावों को रचनात्मक अंतर्दृष्टि के सघनतम आवेगों और संवेदना द्वारा स्पर्श करने का प्रयास करता है।" 

किसी विषय पर सूक्ष्म दृष्टि और उसके विभिन्न पहलुओं पर विमर्श करना इस पुस्तक की ख़ासियत बनकर उभरती है। जैसे अगर रचना के यथार्थ की बात करनी हो तो मीना जी कहती हैं कि—"रचना में यथार्थ की कलात्मक अभिव्यक्ति के बहुत से पहलू होते हैं। जीवन जैसा सतह पर दिखाई देता है वैसा ही सरल नहीं होता है। यथार्थ केवल बाह्य परिवेश से ही नहीं बल्कि चरित्रों के आंतरिक संघर्ष और तनाव की परिवेश की टकरार से ही उठता है।" 

वर्तमान में आलोचना से अभिप्राय रचना या रचनाकार विशेष के संदर्भ में सिमट कर रह गया है। या किसी ने अपनी दृष्टि को अधिक व्यापक बनाया है तो विमर्श के जाल में उसको उलझा दिया है। परंतु आज हमें अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ेगा। यह बुनियादी सत्य है कि अस्तित्व अपने आप पूर्ण है, चाहे उसे हम कोई भी नाम दे दें। इसे हम चाहे स्त्री विमर्श कहें या आदिवासी विमर्श परंतु सब की मूल दृष्टि अस्तित्व स्थापना की है। इसलिए अस्मिता विमर्श अपने आप में एक व्यापक और परिपूर्ण संकल्पना है जिसकी पक्षधर मीना जी है और यह पुस्तक इसका परिणाम है। 

वर्तमान में समय में आलोचना के क्षेत्र में विभिन्न एजेंडे, विचारधारा विशेष, गुटबंदी या फिर विरोध का एजेंडा लेकर केंद्र में आना तेज़ी से घटित हो रहा है। हर क्षेत्र के समान साहित्य भी इस विषय से या इस परिवेश से अछूता नहीं है। परंतु यह पुस्तक किसी भी एजेंडे को लेकर के नहीं चलती है। इसका एकमात्र लक्ष्य है साहित्य, साहित्य की उपादेयता और उसकी मूल्य देने की प्रवृत्ति। इन्हीं बिंदुओं के आधार पर ही यह पुस्तक चलती है किसी भी विमर्श किया एजेंडे को नहीं लेकर चलती है।

भाषा के संदर्भ में अपने विचार प्रस्तुत मीना जी कहती हैं कि प्रत्येक रचनाकार की अपनी लेखन शैली मौलिकता और भाषिक संस्कार की विशेषता होती है जो उसकी गहन अनुभूति से संचालित होती है। भाषा मानव संस्कृति का सर्वाधिक शक्तिशाली और समृद्ध उपकरण है क्योंकि हमारी अस्मिता का जुड़ाव मूलभूत रूप से भाषा के साथ जुड़ा है। इस प्रकार भाषा ही रचनाकार की निजता और सामाजिकता के बीच में पाठकों तक सेतु का निर्माण भी करती है। भाषा ही मनुष्य रचनाकार और समाज के बीच जीवंत संबंध और संवाद के रूप में सामूहिक अंतःकरण की आशाओं आकांक्षाओं को आत्मसात करके आगामी मानव जाति की धरोहर बन सकती है। भाषा के संदर्भ में कही गई यह बातें गूढ़ विश्लेषण की माँग करती हैं। भाषा के संदर्भ में रचनाकार समाज और मनुष्य सबकी दृष्टि से और साथ ही संपूर्ण मानव जाति की दृष्टि से विश्लेषण करने का गुण जो मीना जी ने अपने में विकसित किया है वह समकालीन आलोचकों में दुर्लभ है। भाषा के संदर्भ में हम अनेक परिभाषाएँ गढ़ते चले आ रहे हैं परंतु भाषा को संपूर्ण मानव जाति की दृष्टि से देखने की ज़रूरत गंभीर और जायज़ रूप में मीना जी प्रस्तुत करती हैं जो सराहनीय है।

साहित्य में जनतांत्रिक लक्ष्य पर विचार करते हुए रचना और रचनाकार को जनतांत्रिक मूल्यों के वाहक के रूप में मीना जी देखती हैं। उनका मानना है कि रचना या रचनाकार को अपनी परंपराओं संस्कृति को त्यागे बिना आगे बढ़ना चाहिए। विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम की प्रतिबद्धता से अलग होकर रचना व रचनाकार पर व्यापक चर्चा इस पुस्तक में हमें देखने को मिलती है। इसमें निराला विराट सांस्कृतिक एकता एवं मानवीय मानवीय मुक्ति का आधार बनते हैं और मुक्तिबोध समाज के लिए मानवतावादी मूल्य लिए खड़े दिखते हैं। परंतु साहित्य के जनतांत्रिक मूल्यों परंपराओं और संस्कृति पर विचार करते हुए मीना जी समकालीन चुनौतियों पर भी सम्यक दृष्टि रखे हुए हैं। उन्हें पता है कि जब सृजन की सारी उर्वरताएँ, संवेदनाएँ, अनुभव और विचारधाराओं के स्रोत निरंतर बंजर हो रहे हैं तो रचना और रचनाकार का दायित्व और भी कठिन हो जाता है। इसलिए साहित्य को इन कसौटियों पर खरा उतरना होगा। 

एक स्त्री आलोचक का स्त्री लेखन के संदर्भ में स्वतंत्र व तटस्थ विचार संप्रेषण अपने आप में सराहनीय कार्य है। वर्तमान समय के लेखन में स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्षरत स्त्री को स्त्री रचनाकार स्वयं उपस्थित करने लगी हैं और अपनी अस्मिता को पहचान रही हैं। यह स्वीकार करना एक स्त्री आलोचक के लिए आलोचना के मानदंडों के साथ स्वीकार करना क्लिष्ट कार्य है, क्योंकि पाठक उस पर पक्षपाती होने का आरोपण कर सकता है। परंतु मीना जी ने अपनी बातों को विभिन्न स्त्री लेखिकाओं के माध्यम से व्यक्त किया है, चाहे वह प्रभा खेतान हो या सिमोन द बोउरा। आज का यह सच है कि अब—“स्त्री रचनाकार भी समकालीन यथार्थ की ठोस ज़मीन पर खड़े होकर ही तीव्र गति से बदलते सामाजिक आर्थिक परिवेश के बीच युवा पीढ़ी के लिए उत्पन्न नई जटिलताओं के बीच उनकी त्रासदी को उतनी ही सच्चाई और जीवंतता से प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। स्त्री पुरुष के जेंडर भेद से ऊपर यह सशक्त कथाकार एक संवेदनहीन और रिक्त हो चुके समय में निस्वार्थ मानवीयता की खोज करती हैं।“

मीना जी का मानना है कि स्त्री चेतना को केवल भावात्मक कसौटी पर नहीं अपितु बौद्धिकता के मानदंड पर परखा जाना चाहिए। स्त्री रचनाकारों पर भावुकतावादी लेखन के जो आरोप लगे हैं उस के संदर्भ में स्त्री अस्मिता का साहित्य मैं वह कहती है कि—"मात्र देह मुक्ति को ही विमर्श ना मानकर वह बौद्धिक रूप से अधिक सक्षम सामाजिक रूप से ज़्यादा सचेत और परिपक्व है। इस लेखन के अनुभव का दायरा बहुत वृहद है। स्त्री साहित्य में आज की स्त्री के जीवन की वास्तविकताएँ संभावनाएँ और दासता की दारुण स्थितियों से मुक्ति की दिशाओं का उद्घाटन हुआ है। स्त्री लेखन सामाजिकता और दैहिकता के प्रश्नों को समानांतर लेकर चलते हुए पितृसत्ता पर ठीक उन्हीं तर्कों से प्रहार कर रहा है जो उसके लिए भी स्व की पहचान के सवाल है।" 

साहित्य का मूल उद्देश्य सामूहिक अस्मिता के सपनों को पूरा करने में अदम्य आस्था और संक्रमणताओं सीमाओं से मुक्त विराट जनजीवन की वैश्विक दृष्टि में समाहित होता है। अतः साहित्य में स्त्री विमर्श हो या दलित विमर्श आदिवासी विमर्श अथवा अल्पसंख्यक विमर्श देखना यह भी ज़रूरी है कि उसमें जीवन के संघर्ष और आगामी मानवता का निर्माण करने की कितनी शक्ति है। किसी भी साहित्य में समाज में सार्थक रचनात्मक हस्तक्षेप करने के साथ उसकी विश्वसनीयता और जन सरोकारों की प्रतिबद्धता का होना ज़रूरी है। जिसकी चर्चा मीना जी व्यापक स्तर पर करतीं हैं। साहित्य के संदर्भ में मीना जी कहती हैं की साहित्य अंततः मानव मूल्यों को बचाने का ही महत्वपूर्ण प्रयास है। हर युग का साहित्य अन्याय, शोषण और विषमता के प्रतिरोध में खड़ा होता है। एक रचनाकार के लिए अपने सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था के यथार्थ का प्रभाव और परिवेश के दबावों से परिवेश निरपेक्ष रहना रहना संभव नहीं है। अन्यथा उसका साहित्य अपने रचना का प्रभाव और सार्थकता खोने लगता है।

मीना जी विषय पर बारीक़ पकड़ और रचना के लिए अनुभूति, कल्पना और विचार तीनों का गुम्फन अनिवार्य मानती हैं और यह ज़रूरी भी है। रचनाकार तभी लिख सकता है जब उसके पास स्वयं की अनुभूति हो अपनी अनुभूति को वह कल्पना और अपने विचारों पर कसकर ही किसी कृति का सृजन करता है। ज़ाहिर सी बात है जब इन तीनों दृश्यों से किसी रचनाकार की समीक्षा की जाएगी तो सदैव उत्कृष्ट ही होगी। वस्तुत: मीना जी मानती है कि “साहित्य का मूल उद्देश्य सामूहिक अस्मिता के मूल उद्देश्यों को पूरा करने, जीवन में अदम आस्था और संकिर्णता, उसकी सीमाओं से मुक्त विराट जनजीवन कि वैश्विक दृष्टि में समाहित होता है।“

पुस्तक में चार प्रमुख रचनाकार केंद्रित हैं। जिनमें सबसे पहला है एक जटिल कवि का पुनर्पाठ, जिसमें मुक्तिबोध को एक अलग दृष्टिकोण से देखा गया है। इसी प्रकार से विश्व कविता के विराट फलक में कुंवर नारायण किस तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं इस पर व्यापक और गहन पड़ताल की गई है। जैनेंद्र की जीवनी अनासक्त आस्तिक के रचनाकार ज्योतिष जोशी को केंद्र में रखकर वह जैनेंद्र जी को व्याख्यायित करती हैं। मिथकीय कथा में स्त्री का विद्रोह शिलावहा में कैसे रूपांतरित हुआ है और किरण सिंह ने कैसे मिथक के माध्यम से वर्तमान स्त्री विमर्श के सवालों को पाठक के सम्मुख खड़ा किया है इसका विवेचन और विश्लेषण सिर्फ़ कथा के आधार पर नहीं बल्कि काव्य कसौटी के मानदंडों के आधार पर भी किया गया है जो अपने आप में एक अलग दृष्टिकोण रखता है। किरण सिंह द्वारा लिखित उपन्यास की पड़ताल करते हुए मीना जी कहती हैं कि रूप विन्यास आदि की दृष्टि से एक नया प्रयोग है। इसे न तो हम लंबी कहानी कह सकते हैं और ना ही उपन्यास कह सकते हैं। इस दृष्टि से से लघु उपन्यास कहना ज़्यादा श्रेष्ठकर है। वह आगे कहती है कि “लोक प्रचलित कथानक और मिथकों की पुनर्व्याख्या नए संदर्भ में करने के लिए लेखिका ने जिन नाटकीय युक्तियों और कथा प्रवाह का प्रयोग किया है, वह स्त्री जीवन से जुड़े सभी पक्ष और त्रासदी को जीवंत करने के लिए ही कार्य करते हैं।“ कथा साहित्य के अपने मानदंड और अपनी कसौटी होती हैं पर रूढ़ कसौटिओं को स्वीकार न करते हुए एक स्वतंत्र व स्वच्छंद दृष्टिकोण से मूल्यांकन करने का प्रयोग और साहस यहाँ स्पष्ट लक्षित हुआ है। 

इस पुस्तक में हिंदी सिनेमा पर भी दो अध्याय सम्मिलित हैं। इसके साथ ही रंगमंच का समावेश पुस्तक को विराटता प्रदान करता है।

आलोचना की एक बड़ी विशेषता है कि वह अपने साथ संदर्भ बहुत प्रस्तुत करता है। इससे समीक्षा का कार्य भी आसान हो जाता है और पाठक के लिए भाव को ग्रहण करने में भी सुलभता होती है। और एक अच्छे समालोचक का यह गुण मीना जी में भी विद्यमान है। एक प्रसंग में वह राकेशरेणु की कविताओं से गुज़रते हुए कहती हैं कि “रेणु की रचनाओं में जीवन के प्रति उत्कट प्रेम दिखता है जो विभिन्न कैनवास पर विभिन्न रंगों के साथ उपस्थित होता है”। अब एक रचनाकार के लिए उसकी रचनाओं को पाठकों के समक्ष खोलने के लिए इससे अच्छा उदाहरण दो पंक्तियों में और क्या दिया जा सकता है। वस्तुतः मीना जी की यही विशेषता मुझे बहुत अच्छी लगती है कि वह कम शब्दों में समीक्षा को पूरी तरह से खोल देती हैं। हाँ एक बात अवश्य खटकती है की भाषा बड़ी उत्कृष्ट श्रेणी की है और शब्द कहीं-कहीं क्लिष्ट भी हैं जो एक साधारण पाठक के लिए थोड़ी परेशानी बन सकते हैं। क्योंकि यह ज़रूरी नहीं है कि हिंदी को पढ़ने वाला पाठक हिंदी का विद्वान ही हो। कुछ शब्द ऐसे हैं जो कठिनता उत्पन्न करते हैं पर समीक्षा के दौरान वह कहीं भी अटपटे नहीं लगते हैं। अब यह मेरी दृष्टि का परिचायक है। यह संभव नहीं है कि सभी को ऐसा प्रतीत हो। परंतु भाषा सिर्फ़ अभिव्यक्ति नहीं बल्कि अपने समय का गवाह भी होती है इसलिए उत्कृष्ट भाषा का प्रयोग अपनी उपयोगिता सदैव रखेगा। इस दृष्टि से यह मीना जी की कमी नहीं बल्कि ख़ासियत को ही बताता है।

मीना जी की आलोचना को पढ़कर के भीतर तक यह महसूस होता है कि बिना आत्मीय लगाव के समीक्षा करना वह भी इतनी भीतरी पर्त तक गुज़र जाना संभव नहीं है। मीना जी की समालोचना की यह सबसे बड़ी विशेषता कही जा सकती है कि वह कृति और कृतिकार दोनों को पढ़ती हैं उसे भीतर तक महसूस करती हैं, उससे एक आत्मीय संबंध बनाती हैं और उसके पश्चात उस पर लिखती है। ज़ाहिर सी बात है समीक्षा का यह कार्य आसान नहीं है।

1 टिप्पणियाँ

  • पुस्तक की सार्थक और बहुआयामी समीक्षा। हार्दिक आभार डॉ शुभा श्रीवास्तव जी।

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