अभिलाषाएँ

31-05-2008

चाहूँगा मैं फूलों से बन पराग बिछ जाना 
कलियों से थिरकन को लेकर पत्तों सा हिल जाना

 

उड़ता जाऊँ नील गगन में मन की यह अभिलाषा
माटी से जुड़कर बुझ पाए मन की गहन पिपासा

 

पतझड़ और तपन आकर भी गीत ऐसा गा जाए
स्वर कोयल का राग भ्रमर का जीवन गीत सुनाए

 

काँटे समझ भले ही अपने अन्त समय तज जायें
फिर भी सबके रक्षा की अभिलाषाएँ मिट ना पायें। 

1 टिप्पणियाँ

  • 1 Aug, 2019 04:58 AM

    bahut khub man khush kar diya

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