अभिलाषाएँ
डॉ. हृदय नारायण उपाध्यायचाहूँगा मैं फूलों से बन पराग बिछ जाना
कलियों से थिरकन को लेकर पत्तों सा हिल जाना
उड़ता जाऊँ नील गगन में मन की यह अभिलाषा
माटी से जुड़कर बुझ पाए मन की गहन पिपासा
पतझड़ और तपन आकर भी गीत ऐसा गा जाए
स्वर कोयल का राग भ्रमर का जीवन गीत सुनाए
काँटे समझ भले ही अपने अन्त समय तज जायें
फिर भी सबके रक्षा की अभिलाषाएँ मिट ना पायें।
1 टिप्पणियाँ
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bahut khub man khush kar diya