अभंगित मौन

21-11-2008

मूक होकर मौन धारण करूँ कब तक,
लाली लायी अब अरुण फिर
बन गया है वीर काफ़िर
                     मैं बनूँ काफ़िर कब तक;


डर है तुमको झंझावातों से
डर है मुझको सूनी रातों से
औंधे कटोरे के सितारे
                     मैं तो गिनता रहूँ कब तक;


तुम अभी कोमल प्रवाहिनी हो
किंतु मेरे मन मन्दिर की रागिनी हो
हाथ में वीणा लिये मैं
                     तेरी प्रतिक्षा करूँ कब तक।


मूक होकर मौन धारण करूँ कब तक।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में