अभंगित मौन
चन्द्र किशोर प्रसादमूक होकर मौन धारण करूँ कब तक,
लाली लायी अब अरुण फिर
बन गया है वीर काफ़िर
मैं बनूँ काफ़िर कब तक;
डर है तुमको झंझावातों से
डर है मुझको सूनी रातों से
औंधे कटोरे के सितारे
मैं तो गिनता रहूँ कब तक;
तुम अभी कोमल प्रवाहिनी हो
किंतु मेरे मन मन्दिर की रागिनी हो
हाथ में वीणा लिये मैं
तेरी प्रतिक्षा करूँ कब तक।
मूक होकर मौन धारण करूँ कब तक।