आज़ादी

रीना गुप्ता (अंक: 189, सितम्बर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

आज़ादी?
आज़ादी कैसे आज़ादी?
विस्मृतियों का संघर्षमय जाल,
और चलती फिरती
ज़िन्दा लाशें।
 
चिंतामय बचपन,
संघर्षमय जीवन
कष्टमय बुढ़ापा।
यही तो है
जीवन परिभाषा का
आधुनिकरण।
 
भविष्य,
एक विशाल प्रशन चिन्ह?
इसकी लपटों में
देखो !
झुलसे हुए शरीर
कैसे विचलित हैं।
ढूँढ़ रहा है हर एक,
अपने लिए एकाधिकार।
 
अपनी ही लाशों को ढोहते
पता नहीं किस डगर,
किस मंज़िल के लिए
बदहवास दौड़े जा रहे हैं।
 
देखो ज़रा ग़ौर से!
नन्हे नन्हे कोमल पदचिन्ह,
लाठियों की रगड़ें
और इनके क़दमों के नीचे
दबा हुआ है
जर्जरित जीवन चक्र।

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