आरंम्भिक भारत का संक्षिप्त इतिहास

15-11-2014

आरंम्भिक भारत का संक्षिप्त इतिहास

नानकचन्द

समीक्ष्य पुस्तक: आरंम्भिक भारत का संक्षिप्त इतिहास
(प्राचीन और आदि मध्य काल)
लेखक: डी.एन.झा,
प्रकाशक: मनोहर प्रकाशन, नई दिल्ली- 110002, वर्ष-2009,
पृष्ठ संख्या: 283
मूल्यः 280 रुपये

आरंम्भिक भारत का संक्षिप्त इतिहास तथ्यों का क्रमबद्ध अध्ययन है जिसे अतीत का दर्पण कहा गया है और दर्पण में वास्तविकता ही परिलक्षित होनी चाहिए। इतिहासकार समसामयिक रुचि और आवश्यकता के अनुसार अतीत की घटनाओं का निरुपण करता है। इतिहासकार का मुख्य उद्देश्य अतीत और वर्तमान के बीच ऐसे सेतु का निर्माण करना है जिसके माध्यम से समसामयिक समाज को अतीत का अवलोकन करा कर भविष्य का मार्गदर्शन कर सकें। इतिहसकार इस सेतु पर घूमने वाला वह उल्कापिंड है जिसका विशेष रूप से मुख्य उद्देश्य अतीत का अवलोकन कराना, वर्तमान को प्रकाशित करना और उज्जवल भविष्य के लिए दिशा-निर्देश करना है। ई.एच.कार ने कहा है, कि "वस्तुतः इतिहास, इतिहासकार तथा तथ्यों के बीच अंतक्रिया की अविच्छिन्न प्रक्रिया तथा अतीत और वर्तमान के बीच अनवरत् परिसंवाद है।" यह पुस्तक मुख्य रूप से प्राचीन इतिहास पर गहन प्रकाश डालती है। इस पुस्तक में भारतीय समाज से संबंधित सभी पक्षों का पूरी ईमानदारी और निष्पक्ष रूप से आलोचनात्मक विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है और विषय को पूरी सम्यकता से समझने के लिए पुस्तक को 9 अध्यायों में विभाजित किया गया है।

इस पुस्तक में लेखक ने प्रथम अध्याय "भूमिका" में प्राचीनकालीन इतिहास का बडी गहनता से विश्लेषण करने का प्रयास किया है। लेखक के द्वारा वर्णित ऐतिहासिक तथ्यों से विदित होता है कि हिन्दू धर्म यदि शैतानों और पिशाचों से सम्बन्धित आचरण न भी हो तो मानवीय अज्ञानता के फल से ज़्यादा कुछ नहीं था। चार्ल्स ग्रांट का मानना है कि हिंदू धर्म बेईमानी, स्वार्थीपन, सामाजिक विखंडन, झूठेपन, स्त्रियों के पतन और मैथुन सम्बन्धी व्यभिचारों की जड़ है। सामंतवादी प्रथा का आरम्भ इसी काल में हुआ जिसके दूरगामी सामाजिक आर्थिक परिणाम हुए और इसके साथ-साथ आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास भी हुआ। यही कारण है कि भारतीय राजनीति का सामंतीकरण हुआ।

पुस्तक के द्वितीय अध्याय में "प्रागैतिहासिक युग से सिंधु सभ्यता तक" में पुरापाषाणकाल, मध्यपाषाणकाल, नवपाषाणकाल और सिंधु सभ्यता की सामाजिक आर्थिक स्थिति का उल्लेख किया गया हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार यह विदित होता है कि लोग अपने मृतकों को उत्तर दक्षिण दिशा में लिटाकर बर्तनों और तांबे की वस्तुओं के साथ रखकर दफनाते थे। कब्रों में पाई जाने वाली वस्तुओं से प्रमाणित होता है कि सामाजिक असमानता की शुरुआत हो चुकी थी। मोहनजोदड़ो की खुदाई में सबसे बड़ा अन्नागार और विशाल स्नानागार मिला है। हड़प्पा सभ्यता के लोग गाय और बैल आदि पशुओं का माँस खाते थे और पत्थर के औजार निर्मित करके शिकार करते थे। राजस्थान, कालीबंगा, चंहुदड़ो, बनवाली आदि स्थानों पर कुछ ऐसे साक्ष्य मिले है जिनसे विदित होता है कि हड़प्पा और आर्य लोगों के बीच बड़े पैमाने पर संघर्ष हुआ था।

पुस्तक के तीसरे अध्याय "वैदिक जीवन" में वैदिक काल के लोगों की सामाजिक स्थिति का गहन विश्लेषण करने का प्रयास किया है। हिंदू परिवार का मुख्य साहित्यिक स्रोत है वेद और वेदों के अंतिम भाग को आरण्यक कहा गया है। वेदों से प्रमाणित होता है कि भरत कबीले का मुखिया दास था जिसके पुरोहित विश्वामित्र थे और सुदास ने विश्वामित्र को हटाकर वशिष्ठ को उक्त पद पर नियुक्त किया। वैदिककाल की मूल जनजातियों को पणि, दास और दस्यु कहकर संबोधित किया गया है। कुछ विद्वानों का मानना है कि दास कबीले का दूसरा नाम था लेकिन यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा अछूतों को ही दास कहा गया है। अतिथियों के भोजन में परोसे जाने वाला गाय का माँस मुख्य व्यंजनों में से एक था और पाणिनी की अष्टधयायी में अतिथि को गाय का वधिक भी कहा गया है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में बताया गया है कि पुरुष के मुख से ब्राहाण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है। ऋग्वेद में कई मुनियों कण्व और आंगरिस को श्याम वर्ग की संज्ञा दी गई है। दैत्यों और दानवों का विनाश करने वाले इंद्र को पुरंदर भी कहा गया है। ऋग्वेद में इला, अदिति और उषा देवियों की भी चर्चा की गई है जो जाति से शूद्र थी। कुछ साक्ष्यों से पता चलता है कि उस समय चर्मकला, धातुशिल्प, काष्ठकला और मृद्भांड कला अपनी पराकाष्ठा पर थी।
पुस्तक के चतुर्थ अध्याय में "सामाजिक परिवर्तन एवं धार्मिक मतभेद: जैन एवं बौद्ध धर्म" में बौद्ध धर्म और जैन धर्म के सिद्धांतों का समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन किया है। बौद्ध जातक कथाओं में एक जगह से दूसरी जगह जाने वाले 500 से 1,000 बैलगाड़ियों का उल्लेख कई बार आया है। यह प्रमाणित होता है कि उस समय में नगरों का विकास, मौद्रिक अर्थव्यवस्था, नाई, धोबी, जुलाहा, रसोईया आदि का निर्माण करने वाले दस्तकारों और शिल्पकारों की पराकाष्ठा चरम सीमा पर थी जिसका उल्लेख बौद्ध साहित्य मिलता है। बौद्ध धर्म के त्रिरत्न सम्यक दर्शन, सम्यक चरित्र, सम्यक ज्ञान थे और जैन धर्म के चार सिद्धांत अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रहाचर्य थे। यह कहा जाता है कि सड़क पर चलते समय अनजाने में चींटी को मारना भी जैन नैतिकता के विरुद्ध था। बौद्ध और जैन धर्मों का मुख्य उद्देश्य समाज में निहित वर्ण व्यवस्था, रुढ़ीवादी नीतियों का निराकरण करके आध्यात्मिक की ओर अग्रसर करना था। बौद्ध और जैन धर्म में निम्न वर्ग के लोगों को ज्ञान प्राप्त करने पर प्रतिबंध नहीं लगाया बल्कि उन्हें समानता का दर्जा दिया गया।

पुस्तक के पंचम अध्याय "आरंभिक राज्य का उदय में सोलह महाजनपदों" का उल्लेख किया है। गंधार, कम्बोज, अस्सक, वत्स, अवंति, शूरसेन, चेदि, मल्ल कुरु, पंचाल, मत्स्य, वज्जि, अंग, कांशी, कोसल और मगध का नाम लिया जाता है जिसमें से काशी सबसे सुप्रीम जनपद था। न्याय और विधि व्यवस्था जो किसी भी शासक वर्ग के हाथों में शोषण का एक मुख्य हथियार थी, उसका उदय और स्थायी सेना का विकास भी वित्तीय प्रणाली के कारण इसी काल में हुआ।

पुस्तक के अध्याय छठें में "प्रथम साम्राज्य मौर्य वंश" की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनैतिक दशा, नगरविकास, स्थापत्य कला, चित्रकला, मंदिरों और चैत्यों का वर्णन किया गया है। अभिलेखों और श्रीलंकाई गाथाओं से यह प्रमाणित होता है कि आरम्भिक मौर्य काल में बंगाल मगध साम्राज्य का अंग था। अशोक के अभिलेखों में चोल, पांडय, सत्यपुत्रें और केरल पुत्रें का उल्लेख मिलता है और अशोक के द्वारा ही श्रीनगर शहर का निर्माण किया गया। जस्टिन और पलूटार्क के वक्तव्यों से विदित होता है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने नंद वंश को समाप्त करके मौर्य वंश की स्थापना की। इस काल में सर्वप्रथम शूद्रों को बस्तियाँ बसाने के लिए सर्वप्रथम राज्य द्वारा मदद दी गई। साहित्यिक स्रोतों के अनुसार कई प्रकार की धातुओं के खनन चांदी, तांबे और सोने का उपयोग सर्वप्रथम मौर्यकाल में ही किया गया। मौर्य राज्य केंद्रीयकृत राज्य था जो नव उपनिवेशवादी विचारों से प्रेरित था। अर्थशास्त्र में प्रथम तीन वर्णों को द्विज कहा गया है। इस काल में कारीगरों, दस्तकारों और दासों को ही शूद्र माना गया हैं। कौटिल्य के शब्दों में जब एक शूद्र अपने को ब्राह्मण कहे, भगवान की संपत्ति चोरी करे तो उसकी खों में विषैला लेप डालकर समाप्त कर देना चाहिए।

पुस्तक के सातवें अध्याय "आक्रमण, व्यापार एवं संस्कृति 200 ई.पू.-300 ई.पू." में मौर्योत्तर काल पर प्रकाश डाला है। यह प्रमाणित होता है कि अशोक ने 84, 000 स्तूपों का निर्माण कराया था लेकिन पुष्यमित्र ने उन्हें समाप्त कर दिया। बौद्ध ग्रंथों में मिनेन्डर को मिलिंद के रूप में जाना जाता है जिसने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया था। मिनेन्डर के शासनकाल की अवधि 155 ई.पू. से 130 ई.पू. के मध्य थी। ऐसा विद्वानों का मानना है कि कनिष्क ने कश्मीर के कुंडल वन नामक स्थान पर चतुर्थ बौद्ध संगीति आयोजित की थी और पेशावर में बौद्ध के अवशेषों को स्थापित कराने के लिए बहुमंजिली मीनार भी बनवाई गई थी। इस युग में सातवाहन वंश भी अपनी चरम सीमा पर था। गौतमी पुत्र शतकर्णी सातवाहन वंश का सबसे प्रतापी शासक था जिसने क्षत्रियों के निरंतर बढ़ते हुए दर्प पर रोक लगाने के साथ-साथ शकों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। यह विदित होता है कि इस काल का सबसे बड़ा परिवर्तन भारत और पश्चिमी दुनिया के बीच व्यापार की उन्नति थी। भारत रोमन स्रामाज्य से महीन वस्त्र, सुरमा, शीशे का सामान, टिन, रांगा, शराब, गेहूं का आयात और रोमन भारत से गोलमिर्च, हाथीदांत, रेशम, हीरे जवाहरात आदि वस्तुएँ निर्यात करता था।

पुस्तक के आठवें अध्याय "स्वर्णयुग में सामंतवाद का प्रारम्भ" में गुप्त वंश के सम्राटों, उनके आक्रमणों, सामाजिक दशा, व्यापार, मंदिरों, चैत्यों, गुफाओं और स्थापत्यकला आदि तथ्यों को विश्लेषण करने का प्रयास किया है। इलाहाबाद प्रशस्ति से यह प्रमाणित होता है कि समुंद्रगुप्त एक विजेता ही नहीं था बल्कि एक संगीतकार और विधाओं का संरक्षक भी था। भूमि अनुदानों ने सामंतवादी समाज के विकास का मार्ग प्रशस्त कर दिया। विभिन्न विद्वानों के मत से यह स्पष्ट होता है कि गुप्त काल में सबसे अधिक सोने के सिक्के चलाये गये। फाहान के अनुसार कौड़ी विनिमय का साधन बन गई थी। भारतीय समाज में वैश्याओं को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। विशाखादत्त के मुद्राराक्षस नाटक से पता चलता है कि त्योहारों के अवसर पर वैश्याएँ सड़कों पर भीड़ लगाकर उपस्थित रहती थी। वराहमिहिर के अनुसार यह अवगत होता है कि उस समय वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी। एक ब्राह्मण का घर पाँच कमरों, क्षत्रिय का चार, वैश्य का तीन और शूद्रों का घर दो कमरों का होना चाहिए। गुप्त काल में स्थापत्य कला, मूर्तिकला, मंदिरों और धार्मिक साहित्य की रचनाओं में भी वृद्धि हुई।
पुस्तक के नौवें अध्याय "भारत का सामंतवादी उदय" में भारत में सामंतवादी व्यवस्था के प्रचलन पर प्रकाश डाला गया है। गहड़वालों ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज और बनारस के कुछ हिस्सों पर आधिपत्य जमा लिया था। भारत में क्षेत्रवाद के उदय का प्रमुख कारण नागर, द्रविड़, वैसर या चालुक्य शैली के मंदिरों में दिखाई देता है। मध्य काल में सामंती राजनीतिक ढाँचे में केंद्रीय सत्ता विशेष रूप से कमजोर पड़ गई थी और सामंत किसानों से उच्च दर पर भूमि कर वसूल करते थे। सामंतों के द्वारा समय-समय पर किसानों का हर तरीके से शोषण किया जाता था और चोल अभिलेखों से विदित होता है कि सामंतवाद का बोलबाला था। सामंती शासक वर्ग ने साहित्यकारों और लेखकों को भी उदार संरक्षण प्रदान किया गया।

लेखक ने इस पुस्तक में प्राचीनकालीन इतिहास में भारतीय समाज की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति, प्रशासनिक केंदीय व्यवस्था, सामंतवाद का उदय और विभिन्न तथ्यों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इस पुस्तक की भाषा शैली सरल और सुबोध है। क्रमबद्ध तरीके से तथ्यों और साक्ष्यों को समाहित नहीं किया है लेकिन पाठक को गहन जानकारी प्राप्त होती है। लेखक द्वारा इस कृति में गहन अध्ययन करने के पश्चात घटनाओं और तथ्यों को पेश करने का प्रयास किया है।

नानकचन्द, शोधार्थी
इतिहास एवं सभ्यता विभाग
मानविकी और सामाजिक विज्ञान संकाय
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय
ग्रेटर नोएडा, उ-प्र-

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