आदिवासी समाज हाशिए से केन्द्र की ओर

10-02-2016

आदिवासी समाज हाशिए से केन्द्र की ओर

डॉ. यदुनन्दन प्रसाद उपाध्याय

आजकल हिन्दी साहित्य में विशेषकर कथा-साहित्य के संदर्भ में एक नये सिद्धांत की चर्चा ज़ोरों से चल रही है। कहा जा रहा है कि कथा साहित्य एक "राष्ट्रीय-रूपक" है। दरअसल यह सिद्धांत पश्चिम का है। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि कथा-साहित्य ही वह समुद्र है, जिसमें तमाम विमर्शों या मुद्दों की नदियाँ एक हो सकती हैं।

विगत कुछ दशकों से हिन्दी साहित्य का क्षेत्र विश्वस्तरीय हो गया है। इसलिए अनेक लेखक विदेशी सभ्यता और संस्कृति की खुरपी से भारतीय सभ्यता और संस्कृति को गोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश का शासन जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में आ गया। ताक़त भ्रष्टाचार को जन्म देती है, यह एक सुपरिचित तथ्य है। यद्यपि संविधान में भारत को "समाजवादी-गणतंत्र" कहा गया, पर सामन्ती और पूंजीवादी ताक़तों ने राजनीति में प्रवेश कर अप्रत्यक्ष रूप से उस पर अपना कब्ज़ा जमा लिया। आज जो रिश्वतखोरी, तस्करी, आर्थिक घोटाला करने वाले, सत्ता का दुरुपयोग करके धन जमा करने वाले, करोड़ों का आयकर हड़प कर जाने वाले, भारत की जनता को पद-दलित करने वाले, सभी प्रकार के अपराधी राजनीति को अपनी बपौती समझकर उस पर सत्तारूढ़ हो गए हैं। हिन्दी कथा-साहित्य देश की इस बदलती हुई स्थिति के प्रति जागरूक रहा है। आज़ादी के बाद के उपन्यासों में स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप ग्रहण करने से लेकर इक्कीसवीं सदी के अंत तक के व्यापक स्त्रीविमर्श, दलित विमर्श और अब आदिवासी चिन्तन जैसे अछूते संदर्भों का बहुत ही विश्वसनीय अंकन हुआ है। मधुरेश, रोहिणी अग्रवाल, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मैत्रेयी पुष्पा, राजेन्द्र यादव, यश मालवीय, पंकज मिश्र, शानी इत्यादि ऐसे समकालीन रचनाकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में भारतीय अनछुए विषयों को ख़ासकर आदिवासी चिंतन को बख़ूबी दिखाया है।

आदिवासी-चिंतन हाल ही में विकसित एक क्रांतिकारी विचारधारा है, जिसकी ज़्यादातर जानकारी अख़बारी कही जा सकती है। तथा जिस पर वरिष्ठ लेखकों और समीक्षकों की गति भी निष्क्रिय रही है। परंतु वर्तमान दौर मे साहित्य, संस्कृति, फ़िल्म और लोक चिंतन के केन्द्र में आदिवासी चिंतन पर सुगबुगाहटें शुरू हो रही हैं। आदिवासियों को भी अब ऐसा लगने लगा है, कि वे कहीं न कहीं समाज के अन्य वर्गो से काफ़ी पिछड़े और कई कोसों दूर हैं। उनकी ज़िन्दगी ग़रीबी, कुपोषण, अशिक्षा, अलगाव, शोषण, भुखमरी, बेरोज़गारी, बेदख़ली, अंधविश्वास इत्यादि की दहशत से जूझ रही है। नक्सलवाद इन्हीं समस्याओं की लपटों से विकसित हुआ है। उनका मानना है कि समाज के पूँजीपति और शोषक वर्ग ने हमें सदैव समाज की मुख्य धारा से अलग रखा है। असुर-दैत्य-पशु जैसे घृणित शब्दों से संबोधित करते हुए हमारा बढ़ी बर्बरता के साथ शोषण किया है। अतः आज हमें उन सहारों की ज़रूरत है, जो हमें समाज की मुख्य धारा की ओर ले जाने का प्रयत्न कर, हमारे लिए आवाज़ उठाएगा।

आदिवासी, समाज का सबसे अविकसित वर्ग है। "उन्हें देखकर यक़ीन नहीं होता कि इक्कीसवीं सदी के भारत में ऐसा समाज और जीवन भी अस्तित्व में है जिनके पास न आय का कोई साधन है, न रहने के लिए घर है, न पहनने के लिए कपड़े और न खाने के लिए भोजन है"1 ऐसी दरिद्रता-दीनता अन्यत्र समाज के वर्ग में दुर्लभ है। सरकार और पूँजीपति तथाकथित विकास के नाम पर उन्हें अपनी ज़मीन और जंगलों से बेदख़ल कर रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण के छलावे में उनसे उनकी आजीविका का ज़रिया बलात् और बर्बर ढंग से दूर किया जा रहा है।

समाज के तिरिस्कृत वर्ग की कथा हमारे यहाँ प्राचीन समय से ही मिलती रही है। परंतु धैर्य इस बात का था, कि अन्य वर्गों के लोगों को अपने निर्धारित कर्तव्यों का पूरा-पूरा ज्ञान था। जिन्हें पूरा करने के लिए भी क्रियाशील रहते थे परंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह बात कतई लागू नहीं होती। तब निम्न वर्ग और स्त्रियाँ भी शोषण और अत्याचार को अपनी नियति समझकर झेल लेती थीं। परंतु अब समाज का आकार संकुचित नहीं रहा। आज विश्व एक गाँव में बदल गया है। यदि साउथ-सूडान के आदिवासियों के साथ नस्लवाद या अन्य कोई भेदभाव होता है, तो इस ख़बर को आम होने मे चंद मिनटों का समय लगेगा। कुछ आलोचकों का मत है कि स्त्री विमर्श पाश्चात्य-सभ्यता की देन हैं। यदि यह बात प्रमाणित है तो इसमें भी कोई दो राय नहीं कि जब से स्त्री-विमर्श चला है, तब से स्त्री की दशा और दिशा में ही नहीं लिंगानुपात में भी बदलाव आया है।

साहित्य एक प्रकाश है जो दिन में सूर्य बनकर समाज को आलोकित करता है और रात में टॉर्च और चाँद बन कर। कोई भी विमर्श या चिंतन इसलिए विकसित नहीं होता कि समाज और देश में अराजकता या वैमनस्यता फैले, बल्कि उसका उद्देश्य उस वर्ग विशेष का पक्ष रखना होता है, जिसे समाज के अन्य वर्गों ने कभी अपने वजूद के सामने कुछ समझा ही नहीं।

आज समाज का प्रत्येक वर्ग अपने अधिकारों को भली-भाँति समझने लगा है, यदि कोई नहीं समझ पा रहा है तो वह है आदिवासी वर्ग। जो कि साहित्य विमर्श का एक ज्वलंत मुद्दा है। पूँजीपतियों के चूल्हों में आग आदिवासियों के पेड़ों से चुराई हुई लकड़ियों से जल रही है, भवनों और मल्टी-फ्लैक्सों में लगा हुआ फ़र्नीचर उन्हीं के जंगलों की तस्करी का परिणाम है, वैद्यों और औषधालयों द्वारा विकृत की जा रही जड़ी-बूटियाँ उन्हीं के अनुसंधानों की खोज है। सच तो यह है, कि आदिवासी ही प्रकृति के सच्चे और पक्के चितेरे हैं। जो समझ और परख प्राकृतिक जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों की उन्हें है, वो क्या मज़ाल कि दूसरे को हो?

"सम्पत्ति की अवधारणा पर भारत, मिश्र, यूनान व चीन आदि प्राचीन दर्शनों, हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, ताओ जैसे धर्मों से लेकर तोल्सतॉय व महात्मा गाँधी तक का विश्लेषण करने से एक सूत्र सामने आता है कि पृथ्वी की सारी सम्पत्ति ईश्वर या प्रकृति द्वारा सृजित है, इसलिए किसी मनुष्य या मानव-समूह का उस पर अधिकार करने का दावा नैतिक व तार्किक दृष्टि से असंगत है।"2 जो दर्शन ईश्वर की अवधारणा में विश्वास करते हैं उनके लिए सम्पत्ति का जन्मदाता ईश्वर तथा जो दर्शन अनीश्वरवादी हैं उनके लिए इस सबकी जननी प्राकृतिक शक्ति है। यहाँ यह कहावत सटीक है "सबहि भूमिगोपाल की"।

आज आदिवासी समाज हाशिए से केन्द्र की ओर जा रहा है। आदिवासी-विमर्श का मतलब आदिवासियों के सवालों को उठाना तथा उनके हल के लिए विचार-विमर्श करना है। हालाँकि यह दलित व स्त्री विमर्शों की तरह व्यापक रूप नहीं ले सका है। लेकिन असली सवाल तो यही है कि यह आदिवासी विमर्श कहाँ और किन के बीच चल रहा है? वास्तव में यह विमर्श या चिंतन आदिवासियों से सहानुभूति रखने वाले उनके हमदर्द, बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बीच चल रहा है न कि ख़ुद आदिवासियों के अंदर। जो कि दलित और स्त्री-विमर्श से आदिवासी विमर्श का यह बड़ा बुनियादी फ़र्क है। दलित और स्त्री विमर्श मे दलित एवं स्त्री लेखिकाएँ, बुध्दिजीवी एवं नेता भी सक्रिय हैं। लेकिन आदिवासी विमर्श मे ख़ुद आदिवासी कहाँ हैं और कितने हैं? उनकी जो परिस्थितियाँ हैं, अपनी बनावट हैं उसमें कोई विमर्श इस तरह नहीं चल सकता। वे तो सदियों से प्रशासन को अपने दुःख तक़लीफ़ों के बारे में अर्जी-दरख़्वास्त देते रहे हैं और जब कोई सुनवाई नहीं हुयी तो उन्होंने हथियार उठाकर लड़ाइयाँ लड़ीं। उनके विमर्श का तो यही अंदाज़ है। कुछ राजनीतिक लोग उनके हथियार उठाने को उनका विमर्श कहते हैं, जो कि वास्तवकिता नहीं है। उनका विमर्श तो उनकी सामाजिक सस्थाओं और उनकी अपनी लोक मान्यताओं और भाषाओं में देखा जा सकता है। वास्तविक आदिवासी चिंतन एवं संघर्ष तो उनमें सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं शैक्षिक जागरण उत्पन्न करता है। तभी साहित्य के सरोवर की कीचड़ में कमल खिलेंगे।

सदर्भः-

1. आदिवासी समाज और साहित्य-शैलेन्द्र सागर, (संपादकीय), कथाक्रम (अक्टूबर-दिसम्बर 2.11)
2. निजी सम्पत्ति एवं आदिवासी परम्परा- हरिराम मीणा (कथाक्रम -अक्टूबर-दिसम्बर 2.11)

यदुनंदन प्रसाद उपाध्याय (शोधार्थी)
जीवाजी विश्वविद्यालय,ग्वालियर (म.प्र.)


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