1857 का संग्राम 

01-04-2021

1857 का संग्राम 

डॉ. विचार दास (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: 1857 का संग्राम 
अनुवाद: विजय प्रभाकर (मूल लेखक: वि.स.वालिंबे)
मूल प्रकाशक:नेशनल बल ट्रस्ट, इंडिया, प्र.सं.2000
पुस्तक उपलब्धता:

नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया देश की एकमात्र ऐसी प्रकाशन संस्था है जो भारतीय भाषाओं में उचित मूल्य पर पुस्तकें पाठकों तक उपलब्ध कराती है। ‘1857 का संग्राम’ वि.स.वालिंबे द्वारा लिखित तथा विजय प्रभाकर द्वारा अनूदित ग्रामीण पाठकों के लिए प्रकाशित उसी संस्था की ऐसी पुस्तक है जो हिंदी भाषा के अल्प आय वाले पाठकों की पहुँच से दूर नहीं हैं।

1857 का संग्राम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली कड़ी है जिसे देश के अनेक रणबांकुरों ने अपने जीवन की आहुति देकर शुरू किया था। इस कड़ी को ‘1857 का संग्राम’ शीर्षक पुस्तक के रूप में लेखक ने रोचक शैली तथा सरल भाषा में लिखा है। पुस्तक कुल सात अध्यायों में विभाजित है। प्रथम अध्याय में 10 मई, 1857 के दिन का वर्णन किया गया है जिसमें दिल्ली के पास मेरठ छावनी में असंतोष की भड़की आग ने किस प्रकार गंगा-यमुना के सारे इलाके को अपनी लपेट में ले लेने का चित्रण किया गया है। लेखक 10 मई, 1857 की घटना को अचानक घटी घटना नहीं मानते बल्कि अँग्रेज़ों द्वारा किए जा रहे अत्याचार और एनफिल्ड बंदूकों में भरी जाने वाली कारतूस का पूरा विवरण देते हैं जिससे अँग्रेज़ों द्वारा देशी सिपाहियों का धर्म-भ्रष्ट होने का खतरा था। इसी अध्याय में मंगल पांडे द्वारा सुलगाई गई चिंगारी और उनको फाँसी पर लटकाए जाने का विवरण दिया है।

दूसरे अध्याय में लेखक ने बैरकपुर के पश्चात अंबाला छावनी में विद्रोह की चिंगारी का इतिहास रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। उन्होंने इस अध्याय में देशी सिपाहियों की मनोदशा का विवरण यूँ व्यक्त किया है:
‘मेरठ छावनी में भी अब अन्य जगहों की तरह एनफील्ड बंदूकों की आपूर्ति होने लगी थी। पहले अँग्रेज़ी सिपाहियों को ये बंदूकें चलाने का प्रशिक्षण दिया गया। इसके बाद देशी सिपाहियों को प्रशिक्षण देने की योजना तय हुई थी। यह प्रशिक्षण कार्यक्रम 24 अप्रैल से शुरू होने वाला था। इसकी बिल्कुल पहली रात को हिंदू सिपाहियों ने गंगाजल की तथा मुसलमान सिपाहियों ने क़ुरान की क़सम खाई – “हम उसी बंदूक को हाथ लगाएँगे जिस पर चरबी नहीं लगाई गई होगी।”

इस अध्याय में मेरठ छावनी के विद्रोही सिपाहियों के कोर्ट मार्शल का विवरण दिया है तथा उन सिपाहियों को नंगे पाँवों, बिना पगड़ी तथा हाथों में बेड़ी लटकाए मेरठ शहर में जुलूस के रूप में निकालकर जेल की तरफ़ ले जाते हुए तथा मेरठ शहरवासियों की आँखों में क्रोध की चिंगारी को निकलते हुए दिखाया गया है। यहीं से स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हुई और देखते ही देखते दिल्ली भी बाग़ी सिपाहियों के कब्ज़े में आ गई। उन्होंने सौ साल पहले प्लासी में हुई पराजय का बदला अँग्रेज़ों से चुकता कर लिया।

दिल्ली में विद्रोही सिपाहियों के कब्ज़े की सूचना जब देश के अन्य छोटे-बड़े क़स्बों, गाँवों में फैली तो चारों तरफ़ विद्रोह की लहर दौड़ गई। देश का हर कोना विद्रोह की चिंगारी से जलने लगा। विद्रोह का समाचार जब नाना साहब पेशवा को मिला तो उनमें भी आज़ादी की ल‍हरें हिंडोले मारने लगीं। विद्रोहियों के आमंत्रण पर नाना साहब भी इस जंग में कूद पड़े। तीसरे अध्याय को ‘बिठूर के महाराज’ शीर्षक दिया गया है जिसमें नाना साहब पेशवा और कानपुर में विद्रोही सैनिकों का पूरा विवरण है।

‘अवध की स्थिति’ में लखनऊ में अँग्रेज़ी सिपाहियों और विद्रोही सिपाहियों के घमासान तथा कूटनीति आदि का पूरा विवरण दिया है।

पाँचवें अध्याय में दिल्ली में उपद्रवियों तथा विद्रोहियों के हाथों से दिल्ली वापस अँग्रेज़ों के हाथ लौटने और बूढ़े बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के पतन का ख़ुलासा है।

छठे अध्याय में लखनऊ के पुन: अँग्रेज़ों के हाथ में आने और विद्रोहियों के पराजय का विवरण है। सातवें और अंतिम अध्याय में बुंदेलखंड और वीरांगना झाँसी की रानी के शौर्य का वर्णन, तात्या टोपे की कूटनीति और देश की आज़ादी में किया गया आत्मोत्सर्ग का उल्लेख किया गया है।

74 पृष्ठों में संकलित यह पुस्तक सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐसा प्रामाणिक दस्तावेज़ है जिसे लेखक ने आम पाठकों के लिए सहज, सरल भाषा और रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। पुस्तक खोलने के बाद पुस्तक को समाप्त किए बिना पाठक का मन नहीं मानेगा। पुस्तक के हिंदी अनुवाद हिंदी भाषी पाठकों के लिए एक उपहार है। इसमें कहीं भी शब्दों की क्लिष्टता नहीं है यानी पुस्तक ग्रामीण पाठकों के लिए मानक है।

इस पुस्तक में जहाँ प्रथम संग्राम स्वतंत्रता संग्राम में देशी सिपाहियों की आज़ादी के प्रति जज़्बात का दर्शन होता है वहीं अँग्रेज़ों की क्रूरता, कुटिलता और बदले की भावना से किए गए वध एवं मासूम जनता के प्रति उनके अत्याचार भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। आज़ादी मिलने के इतने वर्षों के उपरांत देश में फैली अराजकता, हिंसा आदि को ध्यान में रखते हुए यदि उक्त पुस्तक पाठकों तक पहुँचेगी तो निश्चित रूप से हमारे पूर्वजों द्वारा आज़ादी के लिए दिया गया बलिदान हमें सही ढंग से सोचने तथा देश में आज़ादी स्थापित रखने में मददगार साबित होगी।

डिमाई आकार की पुस्तक में अक्षरों का आकार भी सही है। बीच-बीच में चित्र दिए गए हैं जो कि पुस्तक की गुणवत्ता में वृद्धि करते है किंतु यह और उत्तम होता यदि 1857 के ऐतिहासिक स्थलों का चित्र दिया जाता तो पुस्तक की प्रामाणिकता और बढ़ जाती। कुल मिलाकर पुस्तक न केवल ग्रामीण पाठकों के लिए बल्कि बाल पाठकों के लिए भी पठनीय है।

(*1857 का संग्राम, वि.स.वालिंबे (अनु.विजय प्रभाकर), नेशनल बल ट्रस्ट, इंडिया, प्र.सं.2000,) 


 

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